कोविड-19 : रहस्यमय है भारत में मौत का कम आंकड़ा

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hastakshep
01 May 2020
कोविड-19 : रहस्यमय है भारत में मौत का कम आंकड़ा

Covid-19: Mysterious low death toll in India

कोविड-19, समाज का विघटन और पर्यावरण का विनाश, तीनों का एक ही कारण है – पूंजीवाद

Kovid-19, Disintegration of society and destruction of environment, all three have only one reason - capitalism

कोविड 19 से ग्रस्त व्यक्तियों की दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत में कम मौत हो रही है, और यह रहस्य दुनिया भर में चर्चा का विषय है. 29 अप्रैल तक दुनिया में इस वायरस से लगभग 32 लाख लोग ग्रस्त थे, जिनमें से लगभग सवा दो लाख व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी, यानि लगभग 7 प्रतिशत लोगों की मृत्यु हो गई. इस समय तक भारत में लगभग 33 हजार व्यक्ति वायरस से ग्रस्त हुए और इनमें से लगभग एक हजार की मृत्यु हो गई, इस तरह भारत में महज 3 प्रतिशत व्यक्तियों की मृत्यु हुई. इन आंकड़ों पर दुनिया राहत की सांस भी ले रही है, और आश्चर्य भी कर रही है.

अलग-अलग विशेषज्ञ इसकी अपने तरीके से व्याख्या कर रहे हैं, लैंसेट और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसका कारण सख्ती से लागू किये गए देशव्यापी लॉकडाउन और शारीरिक दूरी को बताया है. दूसरे विशेषज्ञ कम मृत्यु दर का श्रेय भारत की अपेक्षाकृत युवा आबादी और शिशुओं के सघन टीकाकरण कार्यक्रम को दे रहे हैं. अनेक वैज्ञानिक अनुमान लगा रहे हैं कि भारत में जो कोरोनावायरस आया है, वह कम खतरनाक है और साथ ही भारत का गर्म मौसम इसके प्रभाव को कम कर रहा है. पर इस सिद्धांत को वैज्ञानिक तौर पर साबित नहीं किया जा सका है.

अमेरिका में बसे भारतीय मूल के कैंसर विशेषज्ञ सिद्धार्थ मुख़र्जी कहते हैं कि इस रहस्य का उत्तर पूरी दुनिया में फिलहाल किसी के पास नहीं है. विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि दुनिया के अधिकतर देश अपने यहाँ के पूरे आंकड़े प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं, संभव है भारत सरकार भी यही कर रही हो. न्यूयॉर्क टाइम्स ने हाल में ही अमेरिका, कनाडा समेत 12 देशों में कोविड 19 से सम्बंधित मृत्यु के आंकड़ों का विश्लेषण कर बताया है कि इन देशों में सम्मिलित तौर पर सरकारी आंकड़ों के अलावा 40000 से अधिक मौतें हुईं हैं. इसी तरह फाइनेंसियल टाइम्स ने 14 देशों के आंकड़ों का गहराई से विश्लेषण कर बताया कि इन देशों में सरकारी आंकड़ों की तुलना में 60 प्रतिशत अधिक जानें गईं. पर, इन दोनों अध्ययनों में भारत शामिल नहीं था.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ टोरंटो के भारतीय मूल के वैज्ञानिक प्रभात झा पहले भी भारत की मृत्यु दर पर अध्ययन कर चुके हैं. इनके अनुसार भारत में मृत्यु के सही आंकड़े जुटा पाना कठिन काम है, क्योंकि लगभग 80 प्रतिशत मौतें घरों में ही होतीं हैं और उनका लेखा-जोखा नहीं रहता. प्रभात झा के अनुसार देश में प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ लोग मरते हैं, जिनमें से सरकारी आंकड़ों के अनुसार महज 22 प्रतिशत की सूचना अस्पतालों के पास रहती है. इस विषय पर पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष के श्रीनाथ रेड्डी का मत है कि कोविड 19 से लोग या तो अस्पताल में मर रहे होंगे या फिर घरों में. पर, न तो अस्पतालों से अधिक मौतों की सूचना आ रही है और ना ही शहरों के श्मशान घाटों पर लाशों का ढेर लगा है.

मौत के आंकड़ों का रहस्य और भी गहरा तब हो जाता है, जब यह पता हो कि फरवरी के बाद से देश में किसी भी कारण से होने वाली मौतों में कमी आ गयी है. यह कमी इस हद तक है कि अब शवदाह सेवा, श्मशान सेवा इत्यादि से जुड़े कर्मचारियों के भी वेतन कटौती या नौकरी से निकाले जाने की नौबत आने लगी है. अंत्येष्ठी फ्यूनरल सर्विसेज नामक संस्था कोलकाता और बंगलुरु में कार्यरत है. इसकी सीईओ श्रुति रेड्डी के अनुसार जनवरी तक हरेक दिन उनकी संस्था ने हरेक केंद्र पर औसतन 5 शवदाह का कार्य किया, पर मार्च और अप्रैल में यह संख्या औसतन 3 तक भी नहीं पहुँच रही है. श्रुति रेड्डी ने बताया कि यदि यही स्थिति बनी रही तो जल्दी ही अनेक कर्मचारियों की छंटनी कर दी जायेगी.

मुंबई महानगर निगम के अनुसार मार्च 2019 की तुलना में इस वर्ष मार्च में मुंबई में मृत्यु दर 21 प्रतिशत कम रही है. अहमदाबाद में यह संख्या 67 प्रतिशत कम आंकी गई है. दूसरे शहरों से भी ऐसे ही आंकड़े सामने आ रहे हैं. कानपुर में गंगा के किनारे श्मशान घाट के अधिकारी राजीव कुमार के अनुसार फरवरी तक हरेक दिन औसतन 30 शवों का दाहसंस्कार किया जा रहा था, पर 22 मार्च से 20 अप्रैल तक दाह संस्कार के लिए महज 43 शव आये हैं.

ये सभी आंकड़े आज के सन्दर्भ में हमें अविश्वसनीय लगते हैं पर अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों के लिए आज के दौर में कम मृत्यु दर कोई अजूबा नही है.

आज के दौर में समाज कोरोनावायरस के साथ गिरती अर्थव्यवस्था से भी जूझ रहा है. वर्ष 1922 में सबसे पहले प्रसिद्द अर्थशास्त्री विलियम ओग्बुर्न और डोरोथी थॉमस ने बताया था कि जब समाज संपन्न होता है, यानि आर्थिक गतिविधियाँ सघन रहतीं हैं तब मृत्यु दर बढ़ती है और आर्थिक मंदी के समय लोग अधिक स्वस्थ्य रहते हैं और मृत्यु दर कम हो जाती है. इसके बाद से आज तक अनेक अर्थशास्त्री इस सिद्धांत को परखते रहे हैं, पर परिणाम नहीं बदला. वर्ष 1977 में जोसेफ एयेर ने तो इसी विषय पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था, “प्रोस्पेरिटी एज अ कॉज ऑफ़ डेथ”. इसमें उन्होंने विस्तार से बताया है कि जब आर्थिक गतिविधियाँ चरम पर रहती हैं, बेरोजगारी कम हो जाती है तब मृत्यु दर बढ़ती है.

हाल में ही वेरोनिका तोफोलुती और मरे सुह्र्क्के ने यूरोपियन यूनियन के 28 देशों के 2007 से 2009 तक की भीषण आर्थिक मंदी के दौर के आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण प्रकाशित किया है. इसके अनुसार भी आर्थिक मंदी के दौरान लोगों का स्वास्थ्य सुधरने लगता है और मृत्यु दर कम हो जाती है. अर्थशास्त्री जोस टपिया के अनुसार आर्थिक मंदी का दौर हमारे जीवन को पूरी तरह से बदल देता है क्योंकि इस समय काम की अवधि कम होती है, ओवरटाइम ख़त्म हो जाता है, लोगों के पास व्यायाम का समय होते है, लोग पर्याप्त नींद लेते हैं, पर्याप्त आराम करते हैं इसलिए तनाव भी कम रहता है इसलिए धूम्रपान या अल्कोहल की लत कम हो जाती है. लोग खतरनाक मशीनों पर कम देर काम करते हैं, और सड़कों पर अपेक्षाकृत कम वाहनों के चलने के कारण सड़क दुर्घटनाओं की संभावना कम हो जाती है. सडकों पर कम वाहनों के चलने और कम उद्योगों के चलने के कारण उद्योगों और वाहनों से उत्पन्न प्रदूषण की मात्रा कम रहती है. आर्थिक मंदी के दौर में सामाजिक तानाबाना मजबूत रहता है और लोग एक-दूसरे की मदद करते हैं. इन सबसे लोग अधिक स्वास्थ्य रहते हैं और इसका असर मृत्यु दर पर भी दीखता है.

इन सारे अध्ययनों के बाद से अधिकतर समाजशास्त्री अब आवाज उठाने लगे हैं कि अर्थव्यवस्था के सामाजिक आकलन का समय आ गया है, क्या हम ऐसी व्यवस्था चाहते हैं जिसमें केवल कुछ लोगों के मुनाफे के लिए पूरा समाज अपना जीवन दांव पर लगा देता है. स्पष्ट है कि कोविड 19, समाज का विघटन और पर्यावरण का विनाश, तीनों का एक ही कारण है – पूंजीवाद.

महेंद्र पाण्डेय

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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