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बुनियादी तौर पर कठमुल्ला आलोचना है पेरियार की ‘सच्ची रामायण’

बुनियादी तौर पर कठमुल्ला आलोचना है पेरियार की ‘सच्ची रामायण’

periyar sachchi ramayana

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पेरियार : सच्ची रामायण और प्रकृतवादी आलोचना दृष्टि

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यांत्रिक आलोचना का आदर्श नमूना है पेरियार की ‘सच्ची रामायण’

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पेरियार की सच्ची रामायण की आलोचना (criticism of the Sachchi Ramayan by periyar)

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ई.वी.रामास्वामी पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’ की जो अंतर्वस्तु केन्द्रित आलोचना लिखी है, वह सतह पर आकर्षित करती है, लेकिन बुनियादी तौर पर वह कठमुल्ला आलोचना है। यह किताब यांत्रिक आलोचना का आदर्श नमूना है।

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पेरियार ने लिखा ‘यहाँ हम देवताओं, ऋषियों, इंद्र तथा तथाकथित संतों की मानव रूपी प्रस्तुतियों एवं उनके गुणों की पड़ताल करेंगे।’ (सच्ची रामायण, पृ.39)

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इस प्रसंग में पहली बात यह कि देवताओं को मानव रुप में देखना ग़लत है। इसका प्रधान कारण है कि देवताओं को किसी ने नहीं देखा। बाल्मीकि ने भी नहीं देखा। रामायण तो क्रौंच-वध के दुख से प्रेरित होकर लिखी गयी त्रासदी की सर्जनात्मक कृति है। इस कृति के पहले कोई लिखित महाकाव्य या सर्जनात्मक साहित्य उपलब्ध नहीं है। दूसरा बड़ा कारण यह कि महाकाव्य के यथार्थ और लेखक के यथार्थ में महा-अंतराल होता है। इस अंतराल को आप किसी भी तरह भर नहीं सकते। महा-काव्य में जो लिखा है, जैसा लिखा है, उसे उलट-पलट करके देख नहीं सकते। वहाँ जो लिखा है उसे नत-मस्तक होकर स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है।

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जनश्रुतियों पर आधारित हैं महाकाव्य

रामायण महाकाव्य राष्ट्रीय जनश्रुतियों पर आधारित है। यही स्थिति सभी महाकाव्यात्मक रचनाओं की है वे जनश्रुतियों पर आधारित हैं। कृति के यथार्थ और लेखक के यथार्थ में महा-अंतराल के कारण उसे सामाजिक यथार्थ या मानव रूपों के साथ जोड़कर देखना संभव नहीं है। यदि ऐसा किया जाता है तो वह ग़लत होगा।

इस क्रम में सबसे पहली समस्या है कृति के कथानक के युग और लेखक के युग में महा-अंतराल। इस महा-अंतराल को नत-मस्तक होकर स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है।

साहित्यबोध का अभाव है पेरियार की आलोचना में

पेरियार की आलोचना में साहित्यबोध का अभाव है। मसलन्,  राम के युग और बाल्मीकि के युग में महा-अंतराल है। बाल्मीकि के युग और आज के भारत में महा-अंतराल है। महाकाव्य में व्यक्त नैतिकता और आधुनिक युगीन मानवीय नैतिकता दो अलग चीजें हैं। दोनों के संदर्भ भिन्न हैं।

पेरियार का नैतिकता को देखने का अनैतिहासिक नज़रिया है। उसी तरह दैवीय नैतिकता और मानवीय नैतिकता में तुलना संभव नहीं है। दैवीय नैतिकता वायवीय है, काल्पनिक है। जबकि मानवीय नैतिकता वास्तव है।

पेरियार साहित्य में अनैतिहासिक ढंग से नैतिकता पर चर्चा करते हैं फिर उसे मनमाने ढंग से मानवीय नैतिकता के साथ तुलना करके लागू करते हैं।

कृति का बुनियादी लक्ष्य क्या होता है?

पेरियार ने बाल्मीकि की रामायण की आलोचना करते हुए कृति में व्यक्त साहित्य मूल्य की अवहेलना की है। कृति का बुनियादी लक्ष्य नैतिकता नहीं होता, बल्कि साहित्य मूल्य की सृष्टि करना उसका बुनियादी लक्ष्य है। कृति में साहित्य मूल्य की खोज की जानी चाहिए।  

बाल्मीकि रामायण का मूल्यांकन करते समय पेरियार ने कैसी आलोचना दृष्टि अपनाई

पेरियार ने बाल्मीकि रामायण का मूल्यांकन करते समय नेचुरलिस्ट (प्रकृतवादी ) आलोचना दृष्टि का उपयोग किया है।साथ ही प्रकृतवादी नज़रिए से जिन लोगों ने तमिल में बाल्मीकि की रामायण का अनुवाद किया या फिर उसकी आलोचना लिखी है उसके उद्धरणों का व्यापक रुप में उपयोग किया है। 

उल्लेखनीय है समाज विज्ञान से लेकर साहित्य तक प्रकृत विज्ञान के नज़रिए का गहरा प्रभाव है। प्रकृतवाद से प्रभावित नज़रिया प्राचीन -मध्यकालीन रचनाओं की यांत्रिक नज़रिए से समीक्षा करता है। खासकर समाज विज्ञान में यह परंपरा बड़ी समृद्ध है। इस परंपरा का पेरियार पर गहरा असर है।

प्रबोधनयुगीन प्रकृतविज्ञान ने तथ्य को मूल्य से अलग करके देखा। वे तथ्य का मन माफिक मुंडन करके व्याख्या करते हैं। यह नज़रिया आज भी प्रचलन में है।

राम के युग की नैतिकता, बाल्मीकि के युग की नैतिकता और आज के भारत वासियों की नैतिकता में जमीन-आसमान का अंतर है। पेरियार के लिए नैतिक मूल्य और आचरण सिर्फ़ सब्जैक्टिव चीजें हैं। वे उनको सब्जैक्टिव नज़रिए से देखते हैं।

सोशल मीडिया में तुलसीदास पर हमलों का क्या औचित्य?

इन दिनों अनेक लोग सोशल मीडिया में तुलसीदास पर हमले कर रहे हैं, उस तरह के हमलों में भी प्रकृतविज्ञान का नज़रिया काम कर रहा है। इस दृष्टिकोण की खूबी है तथ्यों की सब्जैक्टिव और अनैतिहासिक व्याख्या पेश करो। कृति की पंक्तियों की वर्तमान की नैतिकता और मान्यताओं से तुलना करके देखो। जब वे ऐसा कर रहे होते हैं तो यह भूल जाते हैं कि मानवीय आचार-व्यवहार और भाषा युगीन वैज्ञानिक नियमों से संचालित होती है। तुलसी या बाल्मीकि के युग की भाषा, भावबोध, मानवीय नैतिकता, राजनीति, संस्कृति आदि के वैज्ञानिक नियम वे नहीं हैं जो आज के समाज के हैं।

क्या तुलसीदास महापतित और ब्राह्मणवादी थे?

एक और बात है कि भारत में जिस तरह की विविधता है उसके अनुसार विविधतापूर्ण प्रकृतवादी नज़रिया भी दिखाई देता है। तुलसी-बाल्मीकि के प्रति दलितपंथियों का प्रकृतवादी नज़रिया इन दिनों फ़ेसबुक पर विविधता के साथ नज़र आ रहा है। उनमें तुलसी को महापतित और ब्राह्मणवादी सिद्ध करने की होड़ मची है। ठीक उसी तरह की प्रतिक्रिया एक ज़माने में तमिलनाडु में समाज सुधार आंदोलन के दौरान पेरियार आदि में दिखाई देती है जिसमें वे देवी-देवताओं को महापतित सिद्ध करते हैं।

कहने का आशय यह है कि जब भी किसी कृति की आलोचना या आलोचक पर विचार करें तो पहले यह देखें कि वह किस दार्शनिक नजरिए से चीजों को देख रहा है। इस क्रम में साहित्य और दर्शन का अन्तस्संबंध, लेखक और दर्शन का अंतस्संबंध और नैतिकता और दर्शन के अंतस्संबंध की संतुलित ढंग से समीक्षा कर पाएँगे।

प्राचीन कृतियों, प्राचीन समाज,संस्कृति, नैतिकता, राजनीति आदि को प्रकृतवाद के नज़रिए से नहीं समझा जा सकता है। सतह पर प्रकृतवाद आकर्षित करता है, उसके तर्क अपील करते हैं लेकिन वे बोगस, अवास्तविक और मूल्यहीन तर्क होते हैं। संयोग से पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’ में जिस नज़रिए का उपयोग किया है वह प्रकृतवादी दार्शनिक नज़रिया है। उससे न तो प्राचीन कृति और नहीं प्राचीन समाज के बारे में संतुलित और वैज्ञानिक समझ बनती है।

जगदीश्वर चतुर्वेदी

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