/hastakshep-prod/media/post_banners/pruwixVYsxD4F0PHKalh.jpg)
यूपी में 2017 में पिछला विधानसभा चुनाव (Issues in UP assembly elections 2017) जिन मुद्दों पर लड़ा गया आईए उन्हें फिर से एकबार समझते हैं।
तत्कालीन सरकार वाली पार्टी सपा अपने नये-नये राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर काबिज हुए युवा नेता "जवानी कुर्बान" कार्यकर्ताओं के बल पर "विकास" के नाम पर चुनाव लड़ रही थी। दूसरी तरफ भाजपा "मोदी" की नोटबन्दी के बाद जीरो बैलेंस से खोले गए खातों में कालाधन जमा होने के बाद आने बाले 15 लाख न सही कुछ कम रुपयों के इंतजार में बैठी पब्लिक के बीच चुनाव लड़ रही थी।
"विकास" के नाम पर सपा को बताने के लिये लखनऊ में गोमती रिवरफ्रंट, आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे, इटावा लाईन सफारी, 100 dial था। अखिलेश जी की सबसे बड़ी उपलब्धि जिसने आम आदमी को छुआ वह केवल 100 dial रही और इसी पर सबसे कम फोकस किया गया। एक्सप्रेस वे और मेट्रो भी विकास में योगदान है, इससे इंकार नहीं है, लेकिन वह कुल जनसंख्या के कितने भाग को प्रभावित करता है, यह जरूर विचारणीय है। लैपटॉप वितरण को भी विकास में योगदान माना जा सकता है।
यदि यूपी की रोडवेज बसों की स्थिति में उनको नीले से लाल हरा करने के अलावा गुणात्मक सुधार किया गया होता, अस्पतालों में दवाई और डॉक्टरों की उपलब्धता बढ़ाई गई होती, स्कूलों की व्यवस्था में गुणात्मक सुधार होता, इंटर कालेज, डिग्री कालेजों में आधुनिक प्रयोगशालाओं, इंटनेट की सुविधा युक्त पुस्तकालयों को जोड़ा जाता, बच्चों के हॉस्टल की व्यवस्था की जाती तो इस विकास का असर आम आदमी तक पहुंचता और वह महसूस करता।
100 dial के बाद बाकी पुलिस व्यवस्था वहीं की वहीं रही, सिवाय मुख्यमंत्री जी के सजातीय पुलिस अधिकारियों की हर जगह पोस्टिंग के अलावा और उनके द्वारा किया गया शोषण, भ्रष्टाचार उनकी नेमप्लेट पर लिखे "यादव" के मार्फ़त सीधे सपा के पोस्टर बॉय अखिलेश जी से जनता ने कनेक्ट किया और उनके प्रति समाज में अस्वीकृति इतनी बढ़ती गई कि त्रस्त सजातीय बन्धु ही उनसे किनारा करते चले गये।
पता नहीं किन वजहों से यूपी में बेसलैस रही कांग्रेस से सपा का आधे अधूरे मन से समझौता हो गया। समझौता भी ऐसा कि कहने को 100+ सीटें कांग्रेस को दी गईं, लेकिन कुछ सीटों पर दोनों ही दल के कैंडिडेट चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस को तो खुद ही यह पता नहीं था कि वह किन सीटों पर चुनाव लड़ने की स्थिति में है और कहां नहीं! जो सीटें कांग्रेस को मिल गईं, वहां वह लड़ी भी या नहीं यह तो नहीं पता पर सपा भी वहां कांग्रेस के साथ पूरे मन से न आ सकी।
दूसरी तरफ क्योंकि कांग्रेस ने पीके के मैनेजमैंट में हवा तो बनाई थी लेकिन बेस था नहीं तो कांग्रेस से गठबंधन का फायदा सपा को तो बिल्कुल ही नहीं मिला, लेकिन अल्पसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण जरूर इस गठबंधन के पक्ष में हुआ और हाथी वाली पार्टी को इससे नुकसान हुआ। लेकिन इससे एक फायदा यह रहा कि सपा ने कांग्रेस को कुल जमा 7 सीटों पर समेट दिया जो अकेले लड़ने की स्थिति में कम से कम 7 से ज्यदा ही होनी थीं।
भाजपा ने इस चुनाव में अपना मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया था और हर बड़ा नेता मुख्यमंत्री का चेहरा बना उड़न खटोले में घूम रहा था जिससे उसकी बिरादरी जातीय गौरव की भावना से और यादवों मुसलमानों की दबंगई से त्रस्त होकर भाजपा की तरफ झुक रही थी। जबकि यादवी समाजवाद में परिवार और मुस्लिमों में मु. आज़म खां के अलावा किसी भी अन्य समुदाय के लिये कोई खूंटा था ही नहीं।
यद्यपि अखिलेश जी ने प्रयास तो किया लेकिन वह विभिन्न जातीय समुदायों के प्रतिनिधियों को उचित स्थान नहीं दे सके और बाकी कमी जवानी कुर्बान साथियों के शक्ति प्रदर्शन और सामंती व्यवहार ने पूरी कर दी, जिसमें कोई परिवर्तन अब भी नहीं दिखाई दे रहा है।
भाजपा का हिन्दू-मुस्लिम एजेंडा अपनी जगह कायम था और उस एजेंडे को सार्थक करने के लिये भाजपा ने मो. आज़म खां साहब को निशाने पर रख कर और गायों के कत्ल से उन्हें जोड़कर ऐसी नफरत फैलाई कि सपा से उसका समर्थक हिन्दूवादी वोट भी कटा। दूसरी तरफ सपा के जनप्रतिनिधियों की ज्यादतियों का बहुत बड़ा नुकसान सपा को हुआ। जिनके टिकट बदले जाने बहुत जरूरी थे उनको ही फिर मैदान में सपा ने उतार कर हाराकीरी कर ली।
भूमि पर कब्जा, गैरकानूनी तरीके से असामाजिक लोगों को संरक्षण, रेत खनन माफियाओं के वर्चस्व, दबंग ठेकेदारों की चोरी और सीनाजोरी। इन सब चीज़ों ने सपा का परसेप्शन खराब किया।
भाजपा विकल्प थी जनता ने उसे चुन लिया। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में भी यूपी में मुझे नहीं दिखता कि जमीन पर जनता के बीच में कोई भी राजनीतिक दल 2022 के लिये भाजपा का विकल्प बन रहा है।
पीयूष रंजन यादव
लेखक कांग्रेस के भीमनगर (यूपी) के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं।