मोदी सरकार के हिन्दी प्रेम के खतरे और सीमाएं

मोदी सरकार के हिन्दी प्रेम के खतरे और सीमाएं मोदी सरकार के हिन्दी प्रेम के खतरे और सीमाएं

Dangers and limitations of Modi government's Hindi love

हिंदी दिवस पर विशेष - Special on Hindi Diwas

लेखकों-बुद्धिजीवियों में एक बड़ा तबका है जो हिन्दी के नाम पर सरकारी मलाई खाता रहा है। इनमें वे लोग भी हैं जो कहने को वाम हैं, इनमें वे भी हैं जो सोशलिस्ट हैं, ये सब मोदी के हिन्दीप्रेम के बहाने सरकारी मलाई के आनंद-विनोद में' मोदी ही हिन्दी है और हिन्दी ही मोदी है', कहकर मोदी के हिन्दीराग में शामिल होने जा रहे हैं।

Modi has no love for Hindi. The Sangh also has nothing to do with Hindi.

सब जानते हैं कि मोदी को हिन्दी से कोई लगाव नहीं है। संघ को भी हिन्दी से कोई खास लेना-देना नहीं है। अधिकांश समर्थ संघियों के बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। संघ और उनके नेताओं के लिए हिन्दी का जनता के सामने प्रतीकात्मक महत्व है। हिन्दी उनके हिन्दू राष्ट्रवाद के पैकेज का हिस्सा है। अब इस राष्ट्रवाद को विकास के नाम से बेचा जा रहा है।

यहां सोवियत अनुभव को समझने की जरूरत है।

सोवियत संघ आज अनेक देशों में विभाजित हो चुका है। इस विभाजन के अनेक कारणों की चर्चा हुई है, लेकिन एक कारण की ओर कम ध्यान गया है। सोवियत संघ में स्टालिन के जमाने में समूचे देश में रूसी भाषा को अन्य जातियों पर थोपा गया और अन्य जातीय भाषाओं की उपेक्षा की गयी। इसके कारण अंदर ही अंदर भाषायी तनाव बना रहा। हमारे बहुत सारे विचारक यह मान रहे थे कि सोवियत संघ में जातीय समस्या हल कर ली गयी। लेकिन असल में रुसीभाषा को सभी जातीयताओं पर थोपकर जो क्षति अन्य भाषाओं की हुई उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया।

भारत में आजादी मिलने के बाद यह समस्या सामने आई कि देश किस भाषा में काम करे और केन्द्र किस भाषा में काम करे। इसका समाधान त्रिभाषा फार्मूले के आधार पर निकाला गया। मोदी सरकार यदि त्रिभाषा फार्मूले को नहीं मानती है तो उसे पहले संसद में जाकर त्रिभाषा फार्मूले का विकल्प पेश करके पास कराके लाना चाहिए।

नए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने दफ्तर के सभी काम हिन्दी में करने का फैसला लिया है। यह हिंदीप्रेमी के नाते स्वागतयोग्य कदम है। लेकिन इसके राजनीतिक परिणामों पर भी हमें नजर रखनी होगी। रूसी भाषा के दुष्परिणामों को सोवियत संघ भोग चुका है और कई देशों में विभाजित हो चुका है। प्रधानमंत्री कार्यालय के कामकाज की हिन्दी यदि मुख्यभाषा होगी तो फिर देश की अन्य भाषाओं का क्या होगा ? उन गैर हिंदीभाषाओं का क्या होगा जिनके लोगों ने भाजपा और उनके सहयोगियों को वोट दिया है?

Working in Hindi in the Prime Minister's Office

सवाल यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में हिन्दी में कामकाज पर मुख्यबल देने के पीछे राजनीतिक मकसद क्या है ?

प्रधानमंत्री कार्यालय कोई व्यक्तिगत दफ्तर नहीं है। यह मोदीजी का निजी दफ्तर भी नहीं है। यह प्रधानमंत्री कार्यालय है। किस भाषा में काम होगा या होना चाहिए यह प्रचार की नहीं व्यवहार की चीज है। नीति की चीज है। यदि हिन्दी में काम होता है तो यह जरूरी है कि गैर हिन्दीभाषी राज्यों के साथ प्रधानमंत्री का पत्राचार उनकी भाषा में ही हो। सिर्फ हिंदी में नहीं।

मसलन् प्रधानमंत्री की कोई चिट्ठी आंध्र या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को भेजी जानी है तो वह संबंधित मुख्यमंत्रियों की भाषा में जाए तब तो भाषाओं के बीच में समानता पैदा होगी। लेकिन यदि पत्र हिंदी में जाएगा तो तनाव पैदा होगा। देश में विभाजन के स्वर मुखर होंगे।

फिलहाल मीडिया में जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय की कामकाजी भाषा हिंदी किए जाने की खबरें जारी की गयी हैं उसमें बहुसंख्यकवाद के भाषायी मॉडल के लक्षण अभिव्यंजित हो रहे हैं। ब

हुसंख्यकवाद और हिंदी एक-दूसरे के सहज ही जुडवां भाई भी बन जाते हैं और वह सहज ही अपने आप में विभाजनकारी दिशा ग्रहण कर सकते हैं।

मोदी सरकार त्रिभाषा फार्मूले को मानती है या नहीं | Whether the Modi government accepts the Three-language formula

हम चाहते हैं कि मोदी सरकार पहले यह तय करे कि वह त्रिभाषा फार्मूले को मानती है या नहीं, भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में इस बावत कुछ भी साफ नहीं है। मोदी सरकार यदि त्रिभाषानीति को नहीं मानती तो नया विकल्प सुझाए देश में आम राय बनाए।

मोदीभक्त प्रतीकों और उन्मादी तर्कों के जरिए हिंदी भाषा को लेकर सतही बहसों को उछाल रहे हैं। हिन्दी पर बातें विद्वानों के आप्तवचनों के जरिए न करके व्यवहार में देखकर करें। मोदीभक्त नेट पर भाषा के सवाल को नेता की अभिव्यक्ति की भाषा का सवाल बनाकर पेश कर रहे हैं।

भाषा कैसे समृद्ध होती है? How does language prosper?

भाषा का सवाल नेता की अभिव्यक्ति का सवाल नहीं है। भाषा हमारे सामाजिक जीवन की प्राणवायु है। ने ता किस भाषा में बोलते हैं, आईएएस किस भाषा में बोलते हैं, इससे भाषा समृद्ध नहीं होती। भाषा समृद्ध होती है तब जब उसकी शिक्षा लेते हैं। हिन्दी की दशा सबसे ज्यादा हिन्दीभाषी राज्यों में खराब है। सबसे खराब ढांचा है शिक्षा-दीक्षा का।

देश को कौन चला रहा है ? व्यापारी या बाजार की शक्तियां चला रही हैं या केन्द्र सरकार ? कमाल के तर्कशास्त्री हैं हिंदी में। वे मोदी से हिंदी के उत्थान की उम्मीद कर रहे हैं।

मित्रो ! पहले देश के व्यापारियों को खासकर हिन्दी व्यापारियों को हिन्दी में व्यापार के खाते-बही लिखने के लिए राजी कर लो। इन व्यापारियों में बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा का लंबे समय से वोटर भी है।

Hindi is not the language to create a nation mania.

हिन्दी राष्ट्रोन्माद पैदा करने की भाषा नहीं है। यह दैनंदिन जीवन की भाषा है। लेकिन हिन्दीभाषी व्यापारी लंबे समय से हिन्दी में काम करना बंद कर चुके हैं। कब से उन लोगों ने हिन्दी में काम करना बंद किया यह पता करें। क्यों बंद किया यह भी पता करें। हिंदी का सबसे पहले बाजार की शक्तियों के बीच में व्यवहार होना चाहिए। व्यापारी के कामकाज में व्यवहार होना चाहिए। पता करें जिस दुकान से सामान खरीद रहे हैं उसका बिल किस भाषा में है ?

सवाल यह है व्यापारियों ने अपनी भाषा में काम करना क्यों बंद कर दिया? कारपोरेट घराने नौकरी के लिए देशजभाषाओं की उपेक्षा क्यों करते हैं ? क्या यहां पर देशभक्ति की मांग करना नाजायज है?

ध्यान रहे पूंजीवाद भाषाओं का शत्रु है। पूंजीपति वर्ग का देशज भाषाओं के साथ बैर है। ऐसे में कारपोरेट घरानों के नुमाइंदे चाहे मोदी हों या मनमोहन हों, इनसे देशज भाषाओं की रक्षा की उम्मीद करना बेमानी है। भाषा उनके लिए प्रतीकात्मक कम्युनिकेशन से ज्यादा महत्व नहीं रखती।

प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी

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