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देश में कोरोना के मामलों को बढ़ने से रोकने के लिए सरकार कई तरह के कदम उठा रही है। लॉकडाउन, रैपिड टेस्टिंग, सोशल डिस्टेंसिंग (Lockdown, rapid testing, social distancing) ऐसे शब्द अब सरकारी नियमावली में बार-बार सुनाई दे रहे हैं। सरकार अपने प्रयासों पर खुद की पीठ भी खूब थपथपा रही है। ऐसा नहीं कि केवल केंद्र सरकार ही ऐसा कर रही है, राज्य सरकारें भी इसमें पीछे नहीं हैं। भाजपा, कांग्रेस, टीएमसी, जदयू, शिवसेना ऐसी तमाम पार्टियां यही बताने में लगी हुई हैं कि वे कैसे अपने नागरिकों की रक्षा (Protecting their citizens) में लगी हैं। जो जहां सत्ता में है, वहां अपनी तारीफ कर रहा है और जो विपक्ष में है, वो सरकार की खिंचाई कर रहा है।
Are these political parties really doing well for the general public
लेकिन क्या सचमुच आम जनता का भला ये राजनीतिक दल कर पा रहे हैं। क्या आम जनता (Who is the general public) के दायरे में केवल सुविधाभोगी लोग ही आते हैं या जो गरीब हैं, उन्हें भी राजनेता इंसान मानते हैं। क्या ये गरीब केवल आंकड़ों में घट-बढ़ करने के लिए हैं या इनके वजूद से वाकई सरकार को कोई फर्क पड़ता है। अगर इनकी दुर्दशा से सरकारें जरा भी विचलित होती तो अपनी तारीफ करने से पहले दो बार सोचती।
अच्छा शासक कौन होता है | Who is a good ruler
अच्छा शासक तो वही होता है, जिसे गरीब जनता की तकलीफों (Suffering of poor people) की परवाह हो। लेकिन भारत में तो आलम ये है कि लॉकडाउन के कारण गरीबों की जान पर दोहरी मार (Poor life due to lockdown) पड़ रही है। अगर वे घर पर रहें तो भूख मार रही है, और बाहर निकलें तो कोरोना मारे न मारे पुलिस प्रशासन की निर्दयता मार रही है।
मध्यप्रदेश से एक ऐसा ही उदाहरण सामने आया है, जहां लॉकडाउन के दौरान पुलिस ने बंशी कुशवाह (Banshi Kushwaha) नाम के किसान की बेरहमी से उस समय पिटाई की, जब वह अपने खेत में बंधी गाय को चारा, पानी देकर लौट रहा था।
इस कथित आरोप के कारण फिलहाल छह पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया है, लेकिन इससे उसे किसान की जान तो वापस नहीं आएगी, न ही ऐसी घटनाओं पर आगे रोक लगने की कोई उम्मीद है, क्योंकि गरीब की तकलीफ समझने की जिस संवेदनशीलता की जरूरत है, वह हमारे प्रशासनतंत्र में लगभग शून्य नजर आती है। अगर सत्ता में जरा भी दया का भाव होता तो एक 12 साल की मासूम बच्ची को सौ किमी चलने पर मजबूर नहीं होना पड़ता।
लॉकडाउन की अनेक भयावह और मार्मिक तस्वीरों (Many frightening and touching pictures of lockdown) में से एक है जमलो मडकामी (Jamalo Madkami) की। 12 साल की जमलो मडकामी अपने मां-बाप और गांव के कुछ लोगों के साथ रोजगार की तलाश में आज से 2 महीने पहले मिर्ची तोड़ने तेलंगाना के पेरूर गांव गई हुई थी। लॉकडाउन-2 (Lockdown-2 live updates,) लगने के बाद 16 अप्रैल को तेलंगाना से वापस ये मासूम बच्ची 11 लोगों के साथ बीजापुर के लिए पैदल ही रवाना हुई।
करीब 100 किमी का सफर पैदल ही तय कर प्रवासी मजदूरों का यह दल 18 अप्रैल को बीजापुर के मोदकपाल तक किसी तरह पहुंच ही पाया था लेकिन घर से 14 किलोमीटर पहले ही बच्ची की मौत हो गई। बच्ची को अस्पताल तो नसीब हुआ, लेकिन मौत के बाद। उसका कोरोना टेस्ट नेगेटिव आया। लेकिन शायद तीन दिन पैदल चलने के कारण डिहाइड्रेशन की वजह से उसने दम तोड़ दिया।
इस घटना में अकेले बच्ची की मौत नहीं हुई, बल्कि सरकार की व्यवस्था, उसके दावों, मजदूरों के हितैषी होने की बातों, बालअधिकारों और मानवाधिकारों ने भी दम तोड़ दिया।
बच्ची नाबालिग थी, इस नाते उसका हक था कि वो शिक्षा का अधिकार (Right to Education) पाती, भोजन का अधिकार (Right to food) पाती और वो तमाम हक उसे मिलते जो संयुक्त राष्ट्र संघ ने और भारत सरकार ने बच्चों के लिए निर्धारित किए हैं। लेकिन इनमें से कोई हक बच्ची को नहीं मिला। अब शायद उसके मां-बाप को मुआवजे आदि की घोषणा हो जाए, लेकिन क्या इनसे वो तकलीफें कम हो पाएंगी, जो बच्ची ने मौत के पहले सही होंगी।
गर्मी में जब संपन्न घरों में बड़े और बच्चे एसी में बैठकर लॉकडाउन में टाइम पास करने के तरीके ढूंढ रहे हैं, ये बच्ची ऑनलाइन कक्षाओं की दुनिया से बहुत दूर अपने मां-बाप के साथ तपती सड़क पर पैदल चल रही थी, अपनी भूख-प्यास को दबाती हुई, जंगल से होते हुए घर का रास्ता नाप रही थी।
लेकिन मौत ने उसे घर पहुंचने से पहले ही विश्राम दे दिया।
जब देश में पहला लॉकडाउन लगा था, तब भी दिल्ली से मध्यप्रदेश जाते हुए रणवीर सिंह नाम के शख्स की इस तरह मौत हो गई थी। रणवीर सिंह दिल्ली में एक डिलीवरी मैन के रूप में काम किया करते थे और अपने घर के इकलौते कमाऊ सदस्य थे। लॉकडाउन होने के बाद दिल्ली में खाने-पीने और रहने से जुड़ी दिक्कतें सामने आने के बाद उन्होंने अपने गांव जाने का फैसला किया था, लेकिन रास्ते में ही उनकी मौत हो गई।
प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन के दौरान पेश आ रही दिक्कतों के कारण माफी तो मांगी है, लेकिन जो पीड़ित हैं वो ऐसी माफी का क्या करें। इससे न उन्हें भोजन मिल रहा है, न रोजगार, न कोई रियायत।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तो 29 मार्च को एक आदेश जारी कर कहा था कि मकान मालिक लॉकडाउन के दौरान एक महीने तक छात्रों, कामगारों और प्रवासी मजदूरों से किराया न मांगें, बावजूद इसके अनेक मकान मालिक छात्रों और मजदूरों से पूरा किराया देने को कह रहे हैं और ऐसा न करने पर मकान से निकालने की धमकी दे रहे हैं। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर उन मकान मालिकों के खिलाफ कार्रवाई करने का आग्रह किया गया है जो लॉकडाउन के दौरान सरकार के आदेश के विपरीत छात्रों और कामगारों पर किराया देने का दबाव बना रहे हैं।
अदालत इस याचिका पर क्या फैसला सुनाती है और उस फैसले का कितना असर गरीबों पर पड़ता है, ये तो वक्त बताएगा। फिलहाल यह नजर आ रहा है कि कोरोना केवल हमारे शरीर को ही नहीं देश को भी जर्जर करने लगा है।
यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी (यूएनयू) के एक रिसर्च के अनुसार महामारी और लॉकडाउन बढ़ने से देश के आर्थिक हालात पर विपरीत असर पड़ेगा और गरीबों की संख्या बढ़कर 91.5 करोड़ हो जाएगी। यह कुल आबादी का 68 फीसदी हिस्सा होगा।
There are about 81.2 million people living below the poverty line in India at present.
भारत में फिलहाल करीब 81.2 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। यह देश की कुल आबादी का 60 फीसदी हैं। देश में ये बढ़ती गरीबी अपने साथ और कितने तरह की समस्याएं, तकलीफें लाएगी, इस बारे में सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए। अब हर कदम तात्कालिक लाभ या वाहवाही के लिए नहीं बल्कि यह सोचकर उठाना होगा कि देश में खुशहाली केवल 2 प्रतिशत अमीर लोगों की बढ़ती संपत्ति से नहीं आएगी, बल्कि तब आएगी जब अधिक से अधिक लोगों को गरीबी रेखा से निकाला जाएगा। जब किसी जमलो को अकाल मौत न मरना पड़े, तब मानिए कि देश में वाकई सब कुछ चंगा सी।
(देशबन्धु का संपादकीय)