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Debate on debate in parliament : CJI's concerns and Rahul's Twitter account
संसद में सिर्फ 15 मिनट की बहस के बाद रक्षा विधेयक सहित आठ विधेयक बिना बहस कराये ही पारित घोषित कर दिये गये। इस पर देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन.वी. रमना (Chief Justice of India Justice N.V. Ramana) ने संसद में उचित बहस न होने पर खेद जताते हुए संसद के कामकाज की कड़ी आलोचना (Strong criticism of the functioning of Parliament) की है।
मुख्य न्यायाधीश ने चिंता जताते हुए कहा कि कानून बनाने की प्रक्रिया का ठीक-ठीक पालन नहीं किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में जो कानून बनाये जा रहे हैं उनमें अस्पष्टता रहती है। इस कारण मुकदमों में वृद्धि और नागरिकों को असुविधा होती है।
संसद में उचित बहस न होना दुखद है- सीजेआई
देश के 75वें स्वतंत्रता दिवस पर सुप्रीम कोर्ट में आयोजित कार्यक्रम में देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन.वी रमना ने संसदीय व्यवधानों तथा सदन में कानूनों पर बहस के समय में कटौती पर चर्चा की। उन्होंने पहले के समय से आज की तुलना करते हुए कहा, "हमारे स्वतंत्रता सेनानियों में से कई कानूनी बिरादरी से भी थे। पहली लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य वकीलों के समुदाय से भरे हुए थे।"
उन्होंने आगे कहा, "अब हम सदनों में जो देख रहे हैं वह दुर्भाग्यपूर्ण है…। तब सदनों में बहस बहुत रचनात्मक थी। मैंने कई वित्तीय विधेयकों पर भी बहस देखी हैं, जब बहुत रचनात्मक बिंदु बनाये गये थे। तब कानूनों पर चर्चा की गई और गहन विचार-विमर्श किया गया था। तब बहस के बाद उस कानून पर हर किसी के पास स्पष्ट तस्वीर होती थी।"
मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा, "संसद में उचित बहस न होना दुखद है। एक मुख्य न्यायाधीश को रिटायरमेंट के बाद इनाम देना और एक मुख्य न्यायाधीश का यह कहना कि कानूनों की कोई स्पष्टता नहीं है। हम नहीं जानते कि कानून का उद्देश्य क्या है। यह जनता के लिए हानिकारक है। यह तब हो रहा है, जब सदनों में वकील और बुद्धिजीवी नहीं हैं।"
सीजेआई की टिप्पणी पर सरकार की प्रतिक्रिया
उनकी इस अत्यंत गंभीर टिप्पणी पर सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। अलबत्ता केंद्रीय मंत्रियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के उपाध्यक्ष एम. वेंकैया नायडू से मुलाकात कर विपक्ष के कुछ सदस्यों के खिलाफ राज्यसभा में किये गये उनके व्यवहार को आपत्तिजनक मानते हुए कार्रवाई की मांग की है।
सत्ता पक्ष के दोहरे मानक क्यों?—
यह बड़ी अजीब स्थिति है कि एक तरफ आज का सत्ताधारी वर्ग जब विपक्ष में था तो कहता था कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है लेकिन अब जब वे सत्तासीन हैं तो खुद यह उत्तरदायित्व नहीं निभा रहे हैं और उल्टा दोषी विपक्षियों को ठहरा रहे हैं। और, विपक्षियों का आरोप है कि विपक्षी सांसदों को बाहर से गुंडे बुलाकर उन्हें संसद के अंदर पिटवाया गया। ऐसा होना या आरोप लगाना दोनों ही स्थितियां अभूतपूर्व हैं।
शालीनता और मर्यादाओं से कभी का पल्ला झाड़ चुकी यह सरकार इस पर कोई प्रतिक्रिया तो दूर, उन विपक्षी सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रही है जो सदन में चर्चा की मांग करते हुए अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे।
इस तरह देखा जाये तो सरकार के खिलाफ 'पापड़ी चाट की तरह कानून बनाने' का विपक्षी आरोप सही है। इस तरह आनन-फानन मनमाने कानून लादने का नतीजा सामने है लेकिन सरकार की मोटी चमड़ी पर कोई असर नहीं है।
बिना पर्याप्त विचार-विमर्श तैयार किये गये सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66-A को सुप्रीम कोर्ट पहले ही रद्द चुका है क्योंकि इसके तहत पुलिसकर्मियों को अपने विवेक से 'आक्रामक' या 'खतरनाक' या 'असुविधाजनक' या 'बाधा' आदि को परिभाषित करने की छूट दी गई थी।
उधर बॉम्बे हाइकोर्ट ने सरकार द्वारा तैयार नये आइटी नियम 9 के क्रियान्वयन पर यह कहते हुए रोक लगा दी है—"हम प्रथम दृष्टया इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यह नियम 9 क़ानून के अनुरूप नहीं है, अर्थात् आइटी अधिनियम के साथ-साथ यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत दी गई गारंटी के मौलिक अधिकारों में घुसपैठ है।" हाइकोर्ट ने इस पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है।
मौजूदा कानूनों के अनुपालन में जब ट्विटर ने केंद्रीय मंत्री का ही अकाउंट बंद कर दिया तो सरकार ने उसे दुरुस्त करने की बजाय ट्विटर के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और फिर ऐसे आरोप में विपक्ष के नेताओं के ट्विटर अकाउंट बंद करा दिये जो वे पहले खुद करते रहे थे।
क्या यह मनमानी नहीं है? ऐसे दोहरे मानक क्यों? यह साधारण बात नहीं है!
राहुल गांधी ने आरोप लगाया है कि उनका ट्विटर अकाउंट बंद करके देश की राजनीति को प्रभावित किया जा रहा है और मुख्य न्यायाधीश कहते हैं कि प्रभावित राजनीति जनहित में नहीं है।
कमाल तो यह कि राहुल गांधी पर जिस कानून के उल्लंघन का आरोप है उसके लिए सरकारी स्तर पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है। बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर करने का जो आरोप उन पर लगाया गया था, उससे पीड़ित परिवार सहमत नहीं है और परिवार को राहुल गांधी के ट्वीट पर कोई आपत्ति नहीं है। इससे स्पष्ट है कि कोई अपराध हुआ ही नहीं है और अगर हुआ भी माना जाये तो भी ट्विटर पर कार्रवाई का दबाव बनाने के अलावा सरकार ने कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की है।
'अपराध' का संज्ञान पुलिस-प्रशासन की बजाय विदेशी कंपनी ने लिया—
क्या देश का आइटी कानून ऐसा हो सकता है कि नागरिकों पर विदेशी कंपनियां तो ऐसे 'अपराध' के लिए कार्रवाई करें जिसके लिए पुलिस-प्रशासन ने कोई संज्ञान लेने की जरूरत ही नहीं समझी? कोई बतायेगा कि देश में इस तरह की मनमानी क्यों हो रही है? इससे तो साफ पता चलता है कि सत्ताधारी वर्ग विदेशी पूंजीपतियों से सांठगांठ करके कानून के समानान्तर वयवस्था लागू कर अपने नागरिकों के अधिकारों का हनन और उनका उत्पीड़न कर रहा है?
राहुल गांधी का ट्विटर अकाउंट बंद होना ऐसा ही मामला है। क्या यह आदर्श स्थिति हो सकती है? क्या ऐसा होना चाहिए? अगर राहुल गांधी का अकाउंट अकारण बंद हो सकता है तो आम आदमी की क्या बिसात? विपक्ष मांग कर रहा है कि संसद में पर्याप्त चर्चा हो लेकिन उन्हें संसद में पिटवाने और संसद का कार्यकाल समय से पहले खत्म कर दिए जाने का आरोप है।
सरकार इस पर कोई जवाब नहीं दे रही है और मंत्री मांग कर रहे हैं कि जनहित में संसद में बहस की मांग करने वालों के खिलाफ कार्रवाई हो! यह बड़ी विडंबना है लेकिन पूंजीपतियों का सरकार द्वारा संचालित मीडिया विपक्ष को ही दोषी साबित करने का नैरेटिव सैट करने में लगा है ताकि कार्रवाई होने पर जनता को गलत नहीं लगे। यह संघ-भाजपा की राजनीति है।
शायद भारत भी अफगानिस्तानी तालिबानियों की राह चल पड़ा है। जिसके देर-सबेर वैसे ही परिणाम सामने आयेंगे जैसे आज अफगानिस्तान की जनता को भोगने पड़ रहे हैं। आखिरकार अपना बोया तो काटना ही पड़ता है न !
श्याम सिंह रावत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।