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"श्रीमान हम आपको इस आलेख के कोई पैसे नहीं दे सकते।
सहयोग के लिए सम्पादक के धन्यवाद सहित
सादर।"
किसी स्वतंत्र पत्रकार के लिए उसके किसी आलेख पर यह जवाब अब आम हो चुका है।
स्वतंत्र पत्रकार ही नहीं किसी न किसी संस्थान से जुड़े बहुत से पत्रकार भी कोरोना के दौरान अपनी नौकरी खोने के बाद अब उस दिन को कोस रहे है जिस दिन उन्होंने पत्रकारिता को अपने पेशे के रूप में अपनाया था।
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है। यही स्तम्भ अब हिल रहा है पर शायद ही इसकी किसी को चिंता है।
पत्रकारों की इस दुर्दशा के लिए किसी मीडिया संस्थान को सीधे जिम्मेदार ठहराना भी ग़लत है।
भारतीय मिडिया अपने अस्तित्व के लिए विज्ञापन राजस्व पर निर्भर हैं। कोरोना में लॉकडाउन की वज़ह से पूरा भारत घर में बंद था, कम्पनियों के उत्पाद बिकने बंद हो गए थे तो उनका विज्ञापन करना भी बेकार हो गया था। विज्ञापन न मिलने की वज़ह से बड़े-बड़े समाचार पत्र भी पांच से दस पन्नों में सिमट गए थे। छोटे मीडिया संस्थान तो अपनी पत्रकारिता समेट दूसरे कामों में लग गए। इसमें बहुत से ऐतिहासिक समाचार परिवार भी शामिल थे।
वर्ष 2021 आते-आते बहुत से पत्रकार अपनी संस्था से निकाले जा चुके थे और जो पत्रकार किसी संस्थान से जुड़े भी थे उनके लिए उनमें टिके रहने की चुनौती सामने आने लगी।
कोरोना काल के दौरान अपनी जान गंवाने वाले पत्रकारों की संख्या भी कम नहीं है।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की रक्षा करने वाले पत्रकारों को सीमा पर अपनी जान देने वाले सिपाहियों की तरह शहीद का दर्जा कभी नहीं मिलता है। शहीद तो दूर की बात अब पत्रकारों को देश के नेताओं और अधिकारियों से गाली मिलनी भी शुरू हो गई हैं।
जेनेवा स्थित एनजीओ प्रेस एम्बलम कैम्पेन (पी.ई.सी) के अनुसार 72 देशों में कोरोना की वज़ह से 1अप्रैल 2021 तक 970 पत्रकारों की मौत हो गई है। जिसमें पेरू के सबसे अधिक 135 पत्रकारों की मौत हुई है और वहां कुल कोरोना संक्रमित मरीज़ों की संख्या 1.64 मिलियन है।
भारत में 13.4 मिलियन आबादी कोरोना संक्रमित होने के बाद यह संख्या 58 है तो अमरीका में 31.2 मिलियन आबादी के कोरोना संक्रमित होने के बाद 46 पत्रकार मौत की नींद सो गए।
केबल टीवी और डिजिटल मीडिया के आगमन के बाद से भारत में पत्रकारिता सोने के अंडे देने वाली चिड़िया बन गई। विश्व भर के बड़े-बड़े उद्योगपतियों ने भारतीय मीडिया जगत में अपना निवेश शुरू किया।
गांव के साथ बड़े-बड़े शहरों में दसवीं, बारहवीं पास युवाओं को इन समाचार घरानों ने कम वेतन पर अपने साथ जोड़ना शुरू किया। कम वेतन तो ठीक था अब अवैतनिक तौर पर भी ऐसे पत्रकारों की नियुक्ति होने लगी है जो अपने मीडिया कार्ड का उपयोग वसूली, रसूख बढ़ाने जैसे कार्यों में करने लगे हैं।
बहुत से पत्रकार अब भी विपरीत परिस्थितियों में काम करते हुए अपने पत्रकारिता धर्म का पालन कर रहे हैं। हाल ही में छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ कमांडो राकेश्वर सिंह को नक्सलियों के कब्जे से छुड़ाने में कुछ पत्रकारों ने अहम भूमिका निभाई थी।
आज़ादी के बाद भारत में पत्रकारिता के स्तर को बनाए रखने के लिए दो प्रेस आयोगों की स्थापना की गई। वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी के साथ अन्य बहुत से पत्रकार भी समय-समय पर तीसरे प्रेस आयोग की स्थापना की मांग उठाते आए हैं। भारतीय पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति की वज़ह से इस आयोग का गठन बहुत ही आवश्यक हो गया है।
भारतीय मीडिया का एक बहुत बड़ा धड़ा अब गोदी मीडिया बन गया है। गोदी मीडिया वह है जिसमें पत्रकार ईमानदार पत्रकारिता का अभ्यास करने के बजाए, फर्जी खबरें और भड़काऊ कहानियां चलाते हैं, जो कि प्रायः असत्य होती हैं और शासन करने वाली सरकार को लाभ पहुंचाती है। इसका प्रमुख कारण सम्पादकों पर मीडिया घरानों के मालिकों का बढ़ता हुआ दबाव है।
सुशांत केस पर भारतीय मीडिया की बहुत किरकिरी हुई। बॉम्बे हाई कोर्ट ने मीडिया घरानों को नसीहत दी कि आत्महत्या के मामलों की रिपोर्टिंग के दौरान संयम बरते। कोर्ट ने दो चैनलों की रिपोर्टिंग को मानहानिकारक बताते हुए कहा, ''मीडिया ट्रायल से न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप और बाधा उत्पन्न होती है।''
पुलवामा हमले और उसके मीडिया से सम्बन्धों पर भी उंगली उठी।
टीवी चैनलों में लाईव वाद-विवाद के दौरान कभी-कभी स्तर इतना गिरा दिया जाता है कि वह समाचार चैनल कम और दंगल का चैनल ज्यादा लगता है। दूरदर्शन के शांत समाचारों से इन समाचारों तक का सफ़र अब बहुत ही स्तरहीन बन गया है।
अमरीका में लोकतंत्र की मज़बूती का एक बहुत बड़ा कारण वहां की पत्रकारिता को दिए गए अधिकारों को माना जाता है।
मीडिया पर किए गए शोधों के साथ मीडिया से जुड़े शिक्षण संस्थानों की स्थापना में भी अमरीका हम से बहुत आगे रहा है।
वर्ष 2017 में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या ने बता दिया था कि भारतीय लोकतंत्र में अब पत्रकार सुरक्षित नहीं हैं। हाल ही में मीडिया सेंसरशिप बढ़ने के साथ ही किसान आंदोलन के दौरान भी बहुत से पत्रकारों को जेल में डालने की ख़बर आई।
तीसरे प्रेस आयोग में पत्रकारिता के स्तर को सुधारने के किए कार्य करने की आवश्यकता तो है ही साथ ही मीडियाकर्मियों के कैरियर और जानमाल की सुरक्षा पर भी ध्यान देना होगा।
हिमांशु जोशी, उत्तराखंड।
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