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Definition of undefined nationalism!
जेएनयू के परिसर में सन् 2016 की सर्दियों में हुए राष्ट्रवाद पर भाषणों के संकलन, ‘What the nation really needs to know’ के बाद अभी हाल में अनामिका प्रकाशन से राष्ट्रवाद के बारे में लेखों का एक महत्वपूर्ण संकलन (An important compilation of articles about nationalism), “राष्ट्रवाद, देशभक्ति और देशद्रोह” आया है — सर्वश्री अरुण कुमार त्रिपाठी, प्रदीप कुमार सिंह और राम किशोर द्वारा संपादित संकलन। 364 पृष्ठों के इस संकलन की विशेषता है कि इसमें राष्ट्रवाद और उसके अनुषंगी इस विषय-त्रयी पर सिर्फ अभी के कुछ लेखकों-विचारकों के लेख ही शामिल नहीं हैं, बल्कि इसमें महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, भगत सिंह, प्रेमचंद, भीमराव अंबेडकर, दीनदयाल उपाध्याय, विनायक दामोदर सावरकर, राममनोहर लोहिया, आदि ऐसे इतिहास पुरुषों के लेख भी शामिल हैं, जो समग्र रूप से इस पूरे विषय को एक व्यापक शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में पेश करते हैं।
इसके अन्तरराष्ट्रीय संदर्भों की कमी को संपादक त्रय की एक लंबी प्रस्तावना में राष्ट्रवाद को गंभीर विवेचन का विषय बना कर लिखने वाले अनेक लेखकों-विचारकों के मंतव्यों के उद्धरणों से पूरा करने की कोशिश की गई है।
Nationalism is both visible and invisible
इस प्रकार, कुल मिला कर यह संकलन निश्चित तौर पर ‘राष्ट्रवाद’ को मानव सभ्यता की विकास यात्रा की एक ऐसी ऐतिहासिक परिघटना के रूप में पेश करता है जिसमें इतिहास में इसकी उपस्थिति किसी सर्वकालिक युगीन सत्य की तरह सामने आती है।
पर, जैसा कि संपादकों ने ही अपनी प्रस्तावना के प्रारंभ की पंक्तियों में यह माना है कि “राष्ट्रवाद दृश्य भी है और अदृश्य भी। वह जरूरी भी है और गैर-जरूरी भी। वह एक हद तक व्यापक है तो व्यापक रूप में संकीर्ण भी। वह युद्धों को रोके हुए हैं तो वही युद्धों का कारण है। वह नागरिकों को सुरक्षा देता है तो वही उसे सर्वाधिक प्रताड़ित भी करता है और असुरक्षा देता है। वह सुरक्षा के नाम पर आता है और असुरक्षा देकर जाता है। वह हमें बड़े-बड़े काम करने के लिए प्रेरित करता लेकिन वह हमें और हमारे समाज को बीमार भी बना देता है और उससे कई क्षुद्रताएँ कराता है जिन्हें देखकर मानवता शर्मसार हो जाती है।”
इसीलिए संपादकों का यह सही मानना है कि “राष्ट्रवाद को परिभाषित करना जितना कठिन है उतना ही कठिन है, अपरिभाषित राष्ट्रवाद के साथ रह पाना।’ अर्थात् कुल मिला कर यह कुछ ऐसा सत्य है जिसे छोड़ा भी नहीं जा सकता है और पूरी तरह से अपनाया भी नहीं जा सकता। इसकी मौजूदगी मानव इतिहास की एक आरोपित अपरिहार्यता की तरह है ; आपकी इच्छा-अनिच्छा से स्वतंत्र, एक आरोपित चयन (forced choice)। एक ऐसा चयन जिसके विकल्प के तौर पर वैश्विकता और अन्तर्राष्ट्रीयतावाद आज के संचार क्रांति के काल में भी किसी गहरी-अंधेरी खाई समान ही प्रतीत होते हैं, अर्थात् जैसे एक मृत्यु। यही वजह है कि राष्ट्रवाद स्वयं में जो है, और अपने जिन-जिन पहचानमूलक रूपों में लंबे काल से लगातार उपस्थित है, उन सबमें विश्व मानवता का एक भारी अभाव हमेशा बना रहता है, और यही अभाव इसकी संरचना में ही इसके उत्तरण का दबाव भी हमेशा कायम रहता है, कह सकते हैं, इसे गति प्रदान करता है। यह अमान्य हो कर भी मान्य तथा मान्य हो कर भी अमान्य बना हुआ है।
Solutions to problems arising from nationalism are not possible.
जहां तक अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का प्रश्न है, वह भी किसी की इच्छा-अनिच्छा से स्वतंत्र मनुष्यों के आर्थिक एकीकरण के सत्य का अपरिहार्य क्षितिज है। कबीलों के विकास का तर्क ही वैश्विकता के विकास पर भी लागू होता है। इसीलिए किसी भी प्रकार की पश्चगामिता में राष्ट्रवाद से उत्पन्न समस्याओं का समाधान संभव नहीं है।
बहरहाल, ज्ञान की ऐसी किसी भी सर्वकालिक, पर ऐतिहासिक, युगीन श्रेणी पर विचार की हर कोशिश की यह विडंबना ही है कि वह कोशिश अंतत: हमेशा शिव के किसी संकुचित रूप तक में सीमित रहने की एक नितांत असंतोषजनक कोशिश साबित होती है। यह किसी सार्विक सत्य को ठोस रूप का जामा पहनाने से पैदा होने वाली क्षुद्रताओं की समस्या है। ऐसी श्रेणियों पर केंद्रित सभी प्रकार के अध्ययनों का समुच्चय-रूप भी सिर्फ इसलिए कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं बना सकता है क्योंकि इन सब विवेचनों को साथ रखने का मतलब होता है, अलग-अलग धारणाओं की परत-दर-परत, न जाने कितने आड़े-तिरछे तरल प्रतिच्छेदनों (intersections) की एक जटिल तस्वीर बनाना। सारा मामला अंधों के हाथ का हाथी वाला हो जाता है, जिसमें हर कोई हाथी के अलग-अलग अंगों का भी कुछ इस प्रकार बयान करता है कि उन सबकों मिलाने पर जो सामने आता है वह महज पहेलीनुमा कुछ ऐसा होता है जिस पहेली का समाधान उसके खुद के दायरे में असंभव होता है।
सचमुच, राष्ट्रवाद की तरह के एक सार्विक विषय को स्वतंत्र और समग्र रूप में विचार का विषय बनाने का सही मतलब कुछ इसी प्रकार का सिंपोजियम-नुमा संकलन हो सकता है, जैसा कि यह संकलन बना है।
इस पर यदि किसी प्रकार की ठोस, उपयोगी और ज़रूरी चर्चा करनी हो तो ज़रूरी है कि इसे ज्ञान की किसी सामान्य श्रेणी के बजाय बिल्कुल वर्गीकृत, विशेषीकृत श्रेणी के रूप में तब्दील किया जाए या इसका आयोजन कुछ ऐसा हो जिसमें विवेचन की प्रक्रिया के ज़रिये इसके कुछ खास आयामों पर ही केंद्रित करके उसके समाधान का रास्ता ढूंढा जाए। अर्थात् राष्ट्रवाद के दायरे में ही इसके समस्यामूलक अंगों का निदान किया जाए। अन्यथा, राष्ट्रवाद को स्वयं में एक स्वतंत्र और समग्र रूप में विवेचन का विषय बनाना, तमाम ऐतिहासिक संदर्भों में हमें असाध्य सा जान पड़ता है।
संयोग से इस संकलन में इस लेखक का भी एक लेख शामिल है — ‘अपने-अपने राष्ट्रवाद’। उस लेख में भी राष्ट्रवाद की कोटि के नाना रूपों के बीच से उत्पादन की आधुनिक प्रणालियों के युग में जनतंत्र के उत्तरित रूप समाजवादी जनतंत्र और उसके पतनशील रूप फासीवाद की श्रेणियों को विचार का विषय बनाया गया है। ‘एक देश में समाजवाद’ के संभावनामय काल में, राष्ट्रवाद इन तीनों अवस्थाओं में ही अक्षुण्ण बना रहता है।
इस संकलन में सर्वश्री आनंद कुमार, गिरीश्वर मिश्र, अरुण कुमार त्रिपाठी, राम किशोर, सुप्रिया पाठक, प्रभाकर सिन्हा, अप्रमेय मिश्र, राकेश दीवान, भगवान स्वरूप कटियार, प्रेम सिंह, धीररंजन मालवे, आलोक टंडन, शंभूनाथ शुक्ल, शंकर शरण, ईश्वर दोस्त, लाल्टू, सुरेन्द्र कुमार, राम नरेश राम, हितेंद्र पटेल, रोमिला थापर, दीपक गुप्ता, जयशंकर पांडेय, चिन्मय मिश्र, रघु ठाकुर, सुरेश खैरनार, धर्मेन्द्र कमरिया, अनिल चतुर्वेदी, प्रभात कुमार राय, कौशल्या वाजपेयी, कृपाशंकर चौबे, किशन पटनायक और सच्चिदानंद सिन्हा के लेख भी शामिल हैं।
अरुण माहेश्वरी
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