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दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों (Delhi Assembly Election Results) ने देश भर में एक उत्साह का संचार किया है। ये चुनाव असाधारण परिस्थितियों में हुये थे जब तानाशाही प्रवृत्ति के साम्प्रदायिक दकियानूसी संगठन संचालित दल से देश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील लोग असंगठित रूप से मुकाबला कर रहे थे। केन्द्र में सत्तारूढ होने के कारण सुरक्षा बलों का नियंत्रण भी इसी दल के पास था जिसका प्रयोग हो रहा था, व इनका पितृ संगठन हजारों हिन्दू युवाओं को खुद भी शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण नियमित रूप से देता है।
Movement against citizenship amendment act
इसी क्रम में देश भर में एक बड़ा जन आन्दोलन चल रहा था जो नागरिकता संशोधन कानून की ओट में एक साम्प्रदायिक एजेंडा लादने के खिलाफ था। इस आन्दोलन को छात्रों, युवाओं, बुद्धिजीवियों, अल्पसंख्यकों, दलितों, और विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त था, और विरोध में सत्तारूढ दल दुष्प्रचार, झूठ, और दमन का सहारा ले रहा था। जिस विषय पर आन्दोलन था, उससे सत्तारूढ दल के गठबन्धन-सहयोगी दलों के बीच भी सहमति नहीं थी।
Constant repression against students in universities of the capital
इस दौर में दिल्ली राज्य पर एक विचारधाराहीन दल का शासन था जो प्रशासनिक सुधार की राहत देने के नारे पर सत्तारूढ़ हुआ था और उससे अर्जित लोकप्रियता पर ही वोट मांग रहा था। यह दल ना तो अपनी राजनीति प्रकट करता है और ना ही सक्रिय राजनीति से जुड़े जन आन्दोलनों में भागीदारी करता है। उसके पास ऐसा कोई संगठन भी नहीं है जो देश की राजधानी जैसे संवेदनशील स्थल पर त्वरित कार्यवाही के लिए लोगों को एकजुट कर सके। यही कारण रहा कि राजधानी के विश्वविद्यालयों में छात्रों के खिलाफ लगातार हुये दमन के विरोध में यह दल सक्रिय नहीं दिखा। स्वयं इस दल के प्रमुख अरविन्द केजरीवाल पर भी कई बार हमले हुये और अभी हाल ही में एक जीते हुए विधायक के साथी पर गोली चला कर मार डाला गया, किंतु इस हिंसा का मुकाबला कहीं नजर नहीं आया।
दिल्ली एक आधा अधूरा राज्य है जिसके पास ना तो अपनी पुलिस है, ना ही नगर निगम उसके अंतर्गत आते हैं, किसी भी काम के लिए भूमि आवंटन का अधिकार भी उसके पास नहीं है। ऐसी स्थिति में पराजय से फनफनाते केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ एक संगठन विहीन दल द्वारा सरकार चलाना चुनौती भरा काम रहा है और आगे भी रहेगा। न केवल लेफ्टीनेंट गवर्नर अपितु आईएएस अधिकारियों के संगठन भी दिल्ली की आप सरकार के खिलाफ रहे हैं। अतिरिक्त कमाई की आदी प्रशासनिक मशीनरी का एक हिस्सा भी कमाई बन्द या कम हो जाने से असंतुष्ट चलती है।
सच तो यह है कि देश में चल रहे जन आन्दोलनों और अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा महसूस किये गये खतरे के कारण ही दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणाम भिन्न आये हैं।
कुटिल उपायों से बचने के लिए केजरीवाल को धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल में भी प्रतियोगिता करना पड़ी। इन परिणामों में एक सीमा से अधिक उम्मीद करना ठीक नहीं होगा। जो इसमें राष्ट्रीय दल की सम्भावनाएं देखने लगे हैं, वे या तो भ्रमित हैं, या भ्रमित कर रहे हैं।
Why is the election system becoming more mysterious than being more transparent
इस जीत के बीच यह महत्वपूर्ण सवाल ही विलोपित हो गया कि उच्च स्तरीय संचार के इस युग में कुल सत्तर विधानसभा क्षेत्र में हुये चुनावों के वोटिंग प्रतिशत की जानकारी मिलने में इतनी देर क्यों लगी, और प्रारम्भिक सूचनाओं से अचानक पाँच प्रतिशत की वृद्धि क्यों नजर आने लगी।
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चुनावों के दौरान जो धन और शराब आदि पकड़ी गयी उसमें किस दल से जुड़े व्यक्ति शामिल थे यह बात गोपनीय क्यों रखी जाती है। विजेता और पराजित दोनों ही दलों का चरित्र प्रकट क्यों नहीं होने दिया जाता है ताकि विभिन्न चुनावों के बाद बार बार किये जाने वाले बहुमत के दावे की असलियत को जनता जान सके। उल्लेखनीय है कि दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा की सीटें दोगुना हो गयी हैं और उसे पिछले विधानसभा चुनावों से पाँच प्रतिशत वोट अधिक मिले हैं। ये वोट भले ही उसे लोकसभा चुनावों में मिले वोटों से बहुत कम हैं तो सवाल यह भी उठता है कि यह विचलन क्यों और कैसे हुआ। क्या लोकसभा चुनावों के दौरान ईवीएम मशीनों में छेड़छाड़ के जो आरोप लगे थे वे सही थे या दिल्ली की जनता इतनी चेतन हो गयी है जो लोकसभा के लिए एक तरह के लोगों को जिता दे और विधानसभा के लिए बिल्कुल ही भिन्न तरह के लोगों को चुन ले। चुनाव प्रणाली अधिक पारदर्शी होने की जगह क्यों अधिक रहस्यमयी होती जा रही है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में जीते हुए विधायकों में 74% के करोड़पति होने व दागी विधायकों की संख्या का दोगुना होना क्या चिंता का विषय नहीं है! ईमानदारी केवल सरकार में ही नहीं अपितु सरकार में पहुँचने के चुनावी तरीकों में भी दिखना चाहिए।
एक सच यह भी है कि विजेता दल का नाम और सरकार में आने वाले सदस्यों का नाम कुछ भी हो किंतु जनता ने जिस भावना पर अपना मत दिया है उसमें संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता की रक्षा भी प्रमुख है और चुनावों से अलग जो पत्रकार, लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी साम्प्रदायिकता के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ते रहते हैं, उनकी भी जीत है। जो गलत आर्थिक नीतियों के खिलाफ केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं वे अर्थशास्त्री भी इस जीत के हिस्सेदार हैं। जिन छात्रों ने शिक्षा जगत पर हो रहे हमलों के खिलाफ संघर्ष कर के केन्द्र सरकार का चरित्र उजागर किया वे भी इस जीत के पीछे हैं। ये उनकी भी जीत है।
मेरे पिता बताते थे कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद देश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एक गीत गाते थे-
ओ विप्लव के थके साथियो, विजय मिली विश्राम न समझो !
इन पंक्तियों को दुहराने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन