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Delhi: Communal riot or massacre!
जिन्हें अब तब भी इसमें कोई संदेह रहा हो कि राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति ट्रम्प की यात्रा के दो दिन समेत, चार दिन तक जो खून-खराबा होता रहा, एक हिंदू-मुस्लिम दंगा (Hindu-Muslim riot) नहीं बल्कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ नरसंहार था, उनका संदेह इस हिंसा के कवरेज के लिए दो मलायलम समाचार चैनलों, एशिया नैट तथा मीडिया वन के खिलाफ मोदी सरकार की दंडात्मक कार्रवाई के बाद तो दूर हो ही जाना चाहिए। बेशक, इस कार्रवाई की नंगई इतनी ज्यादा थी कि उसके खिलाफ उठा चौतरफा शोर मोदी सरकार भी झेल नहीं पायी है और दोनों चैनलों के खिलाफ 48 घंटे की पाबंदी का एलान करने के कुछ घंटों में ही उसे यह रोक उठानी पड़ गयी।
Massacre of minorities instead of communal riots
बेशक, इस सांप्रदायिक हिंसा की खबरें (Reports of communal violence) देने के लिए इन सामाचार चैनलों पर रोक लगाया जाना अपने आप में भी असाधारण तो है ही, जो 2002 के गुजरात के नरसंहार के दौरान नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा समाचार चैनल एनडीटीवी पर लगायी गयी ऐसी ही रोक की याद दिलाता है, जो शायद भारत के समाचार चैनलों के इतिहास की इस तरह की पहली पाबंदी थी। लेकिन, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, इस रोक के लिए मोदी सरकार के सूचना व प्रसारण मंत्रालय द्वारा दिया गया कारण। कारण है चैनल की रिपोर्ट का कथित रूप से पूर्वाग्रहपूर्ण होना। और यह पूर्वाग्रह किसके खिलाफ है?
सरकार की शिकायत है कि ये रिपोर्टें नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) समर्थकों के खिलाफ पूर्वाग्रहपूर्ण हैं, जिन्हें इनमें हमलावर बतााय गया है। उसके ऊपर से ये रिपोर्टें आरएसएस पर भी सवाल उठाती हैं और दिल्ली पुलिस पर निष्क्रियता से लेकर मिलीभगत तक के अरोप लगाती हैं!
संबंधित खबरिया चैनलों पर अपनी कार्रवाई और उससे भी बढ़कर उस पर पक्षपात के इन आरोपों से, मोदी सरकार ने कम से कम इतना जरूर साबित कर दिया है कि हिंसा में वह किस के पक्ष मे है और किस के खिलाफ।
बेशक, मोदी सरकार की और इन उग्र भीड़ों तथा उनकी मददगार पुलिस की सचाई को दबाने की सारी कोशिशों के बावजूद, जिसमें पत्रकारों की पिटाई, उनके कैमरों व फोनों में तस्वीरें व वीडियो डिलीट करने, उन्हें घटनाओं की कवरेज करने से रोकने से लेकर, जगह-जगह लगे खुफिया कैमरे खोज-खोजकर नष्ट किए जाने तक शामिल था, देशी-विदेशी मीडिया व सोशल मीडिया के कवरेज से यह सचाई सामने तो पहले ही आ चुकी थी।
बहरहाल, मोदी सरकार इस कार्रवाई के जरिए औपचारिक रूप से इसका एलान कर दिया कि वह इस हिंसा में साफ तौर पर और जाहिर है कि पुलिस समेत पूरे सरकारी अमले के साथ, सीएए-विरोधियों के जवाब के नाम पर, जिसे आसानी से मुसलमानों के विरोध में बदल गया, सडक़ों पर उतारी गयी हिंदुत्ववादी भीड़ों के पाले में ही खड़ी हुई थी और अब भी खड़ी है। यही चीज है जो 23 से मुख्यत: 26 फरवरी तक, चार दिन तक देश की राजधानी दिल्ली के उत्तर-पूर्वी छोर पर हुई हिंसा का चरित्र, एक सांप्रदायिक दंगे के बजाए अल्पसंख्यकों के नरसंहार का बना देती है।
दंगों की परिभाषा, (Definition of riots)
याद रहे कि नरसंहार या अंग्रेजी में पोग्राम की, आक्सफोर्ड से लेकर वैबस्टर तक की डिक्शनरियों से लेकर एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका तक, सभी मानक परिभाषाओं में उसका स्वरूप बड़े पैमाने पर तथा बड़ी संख्या में लोगों द्वारा और खासतौर पर किसी अल्पसंख्यक समुदाय या समूह के खिलाफ हिंसा का होने को रेखांकित किया गया है और ये बातें सांप्रदायिक दंगे पर भी लागू होती हैं। लेकिन, इससे आगे इन्हीं परिभाषाओं के अनुसार, जो महत्वपूर्ण चीज नरसंहार को एक साधारण दंगे से अलग करती है, वह है अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर की जाने वाली इस हिंसा के पीछे, शासन का हाथ या उसका अनुमोदन होना। दंगे की रिपोर्टिंग के लिए दो चैनलों पर लगायी पाबंदी में जिस तरह से शीर्ष स्तर से और औपचारिक रूप से सरकार खुद, हिंसक सांप्रदायिक टकराव को रोकने वाली ताकत के बजाए, हमलावर बहुसंख्यकवाद के पाले में खड़ी नजर आयी है, वह उत्तर-पूर्वी दिल्ली की हिंसा के शासन समर्थित या अनुमोदित होने का ही सबूत है।
लेकिन, इस नरसंहार की एक नरसंहार की तरह रिपोर्टिंग के खिलाफ मोदी सरकार की मुहिम, दिल्ली के इस नरसंहार के शासन-समर्थित होने का महत्वपूर्ण साक्ष्य जरूर है लेकिन, इसका एकमात्र साक्ष्य नहीं है।
वास्तव में इसके अनेक और भी मुखर साक्ष्य, पहले ही मौजूद थे। इनमें एक साक्ष्य तो अपने उकसावेपूर्ण सार्वजनिक हस्तपेक्ष के जरिए, सीएएविरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ तथा व्यवहारत: मुसलमानों के खिलाफ भीड़ की हिंसा के लिए ट्रिगर मुहैया कराने वाले कपिल मिश्र जैसे भाजपा नेताओं को कानून के शिकंजे से बचाने के लिए, मोदी सरकार और उसके कानून विभाग का किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार होना ही है।
23 फरवरी को कपिल मिश्र द्वारा उकसाए जाने के बाद, उत्तेजित बहुसंख्यकवादी भीड़ के सीएएविरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा शुरू किए जाने तथा आगे चलकर बाकायदा हिंसक टकराव फूट पडऩे के बाद भी केंद्रीय गृहमंत्री, अमित शाह के नियंत्रण में काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने, कपिल मिश्र के खिलाफ एफआइआर दर्ज करने से इंकार कर दिया और इसका असर हमलावर बहुसंख्यक भीड़ों के पुलिस को अपने साथ मानकर तथा जानकर, पूरी बेफिक्री से हिंसा करने के रूप में सामने आया। इन्हीं हालात में कुछ मानवाधिकार ग्रुपों व सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रार्थना पर, दिल्ली हाई कोर्ट ने आधी रात को आपात सुनवाई आयोजित कर, पुलिस ने सीधे सवाल किया था कि प्रकटत: सांप्रदायिक उकसावे के ऐसे मामलों में, एफआइआर क्यों नहीं की गयी?
इस सुनवाई में केंद्र सरकार के सोलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने हाई कोर्ट के दो सदस्यीय पीठ के इस मुद्दे पर विचार करने का विरोध तो किया ही और इन मामलों में एफआइआर दर्ज करने के लिए यह सही समय न होने की दलील दी तथा इससे स्थिति बिगड़ सकने का परोक्ष डर भी दिखाया।
इसके बावजूद, जब हाई कोर्ट ने पुलिस से अगले दिन तक उक्त एफआइआर दर्ज न किए जाने पर जवाब मांगा, तो उक्त दो सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष, जस्टिस मुरलीधर का पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के लिए तबादला किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के कोलीजियम की पंद्रह दिन पुरानी सिफारिश को, हाथ के हाथ तबादले के आदेश में तब्दील कर यह सुनिश्चित किया गया कि जस्टिस मुरलीधर, अगले दिन की सुनवाई में हिस्सा नहीं ले सकें।
इसके बाद अगले दिन, हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली बैंच से पुलिस ने आराम से, एक महीने की मोहलत हासिल कर ली। इसके बाद भी, जब सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने सुप्रीम कोर्ट में एफआइआर में इसी देरी के खिलाफ याचिका दी, एक बार फिर सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कपिल मिश्र आदि के खिलाफ एफआइआर दर्ज न किए जाने का बचाव ही नहीं किया, पुलिस की ओर से सुप्रीम कोर्ट को ही भ्रमित कर याचिकाकर्ता के खिलाफ पूर्वाग्रहग्रसित करने और उसे खुद ही हिंसा के लिए उकसाने वाला बताने की कोशिश में, उसके एक भाषण को काट-छांटकर अदालत के सामने पेश कर दिया गया।
Death toll in Delhi's violence
इसी सचाई के एक और भी महत्वपूर्ण साक्ष्य में मोदी सरकार ने, दिल्ली की हिंसा में मौतों का आंकड़ा पचास से ऊपर निकल जाने और सैकड़ों के गंभीर रूप से घायल तथा हजारों लोगों के घर, दूकानें, रोजगार के साधन गंवा बैठने के बावजूद, संसद में इस पर चर्चा की इजाजत नहीं दी। कटे पर नमक छिडक़ने वाली दलील यह कि सरकार संसद में चर्चा के लिए तो तैयार थी, लेकिन सिर्फ होली के बाद चर्चा के लिए। होली से पहले चर्चा कराना उसे इसके बावजूद मंजूर नहीं हुआ कि विपक्ष के एक स्वर से इस चर्चा की मांग किए जाने और सरकार के इससे इंकार पर अड़े रहने के चलते, हफ्ते भर तक संसद के दोनों सदनों में कोई चर्चा तो नहीं ही हुई, उसके ऊपर से लोकसभा में सात विपक्षी सदस्यों को शेष सत्र के निलंबित किए जाने जैसी असामान्य स्थिति भी पैदा हो गयी।
यह इसलिए और भी शर्मनाक है कि संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर ब्रिटिश संसद तक में, दिल्ली की हिंसा पर चर्चा हो चुकी थी, लेकिन दिल्ली में ही बैठी देश की संसद में ही नहीं।
लेकिन, मोदी सरकार को भारत की इतनी जगहंसाई कराने में कोई हिचक नहीं है क्योंकि इस तरह वह अपने पक्के समर्थक समूह में, एक शासन के रूप में अपनी बहुसंख्यकवादी वचनबद्धता का संदेश देना ज्यादा जरूरी समझती है।
यह भी तय है कि मोदी सरकार, इस हिंसा में अल्पसंख्यकों के छांट-छांटकर निशाना बनाए जाने की सचाई को चाहे ढांप न पाए, पर न सिर्फ दोनों ओर से हिंसा तथा दोनों ओर के नुकसान की दलील से इसके नरसंहार होने को ही छुपाने की कोशिश करेगी बल्कि सीएए-विरोध को यानी मुसलमानों को ही टकराव की जड़ साबित करने में भी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ेगी। यह इसके बावजूद किया जा रहा होगा कि सारी दुनिया यह जानती है कि सीएए के खिलाफ पूरी तरह से शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को हिंसा से कुचलने की संघ-भाजपा की कोशिशों के हिस्से के तौर पर ही, हिंसा के लिए भीड़ों को उकसाने, संगठित करने तथा हथियारबंद करने और उनके हमले को पुलिस की सुरक्षा व सहायता मुहैया कराने के जरिए ही, दिल्ली में 1984 के बाद का यह सबसे भयानक नरसंहार कराया गया है।
इसीलिए, दिल्ली के इस नरसंहार का संबंध, 1984 के सिखविरोधी नरसंहार से और खुद मोदी के ही राज में गुजरात में 2002 के मुस्लिमविरोधी नरसंहार से जोड़ा जाना स्वाभाविक है। तीनों ही अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर और शासन के अनुमोदन से बड़े पैमाने पर खून-खराबे के अर्थ में, बेशक समान रूप से नरसंहार की श्रेणी में आते हैं। लेकिन, तीनों में कुछ महत्वपूर्ण भिन्नताएं भी हैं।
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अपनी सारी भयावहता के बावजूद, 1984 के सिखविरोधी नरसंहार के पीछे शासन को बहुसंख्यकवादी रंग में रंगने की शायद ही कोई योजना थी। इसीलिए, दलगत आधार पर दोषियों को बचाने के सिवा, शासन की ओर से उस नरसंहार का किसी भी रूप में शायद ही बचाव किया गया होगा। इससे भिन्न, 2002 के गुजरात के नरसंहार के पीछे, हिंदू राष्ट्र की एक संकल्पना थी और नरसंहार के बाद गुजरात में ‘‘हिंदू राष्ट्र में स्वागत’’ के बोर्ड भी लगाए गए थे। लेकिन, गुजरात का नरसंहार इस संकल्पना को एक राज्य में ही आगे बढ़ाता था, जबकि दिल्ली का नरसंहार इसे व्यापक राष्ट्रीय फलक पर ले आया है। अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी राज, खासतौर पर आम जनता के तेजी से होते मोहभंग से निपटने की कोशिश में भी, ताबड़तोड़ बहुसंख्यकवादी राज्य कायम करने के रास्ते पर दौड़ रहा है।
धारा-370 खत्म करना और अब सीएए-एनपीआर-एनआरसी, खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के जरिए, इसी के लिए हथियार गढ़ रहे हैं। अब सीएए-एनपीआर-एनआरसी के विरोध के खिलाफ संघ-भाजपा के शासन ने बाकायद युद्घ की जो घोषणा कर रखी है, बहुसंख्यकवादी राज्य की स्थापना की कोशिश का ही महत्वपूर्ण हथियार है और दिल्ली का नरसंहार, इसी युद्घ की आहुति। लेकिन, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए खून-खराबे के बीच से ही आयीं सांप्रदायिक भाईचारे के बने रहने की कहानियां और राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर, देश में ही नहीं विदेश तक, संघ-भाजपा के इस युद्घ का बहुत व्यापक विरोध, इसी के इशारे हैं कि भारत में बहुसंख्यकवादी राज्य के कायम होने को अभी भी रोका जा सकता है।
0 राजेंद्र शर्मा