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Despite the poor quality, in 13 years, not Punjab, but Madhya Pradesh bought the maximum wheat, why?
केंद्र सरकार ने मप्र को 80% तक कमजोर गेहूं खरीदने की छूट दी
13 सालों में मप्र में गेहूँ की सरकारी खरीदी लगभग 230 गुणा बढ़ी है!
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अगर एमएसपी का फायदा लेना किसान आंदोलन में सहभागी होने का मापदंड है, तो मध्य प्रदेश (मप्र) को इसमें सबसे आगे होना चाहिए. क्योंकि, पिछले एक दशक में उसने ना सिर्फ इसका सबसे ज्यादा फायदा लिया बल्कि इस साल तो उसका गेहूँ एकदम घटिया क्वालिटी का होने के बावजूद केंद्र की दया से उसने सबसे ज्यादा गेहूं खरीदा.
जब से किसानों ने तीनों कृषि बिलों को रद्द करने को लेकर दिल्ली में डेरा डाला है, तब से उन पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि इसमें सिर्फ हरियाणा और पंजाब के किसान है, क्योंकि केंद्र सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदी योजना का सबसे ज्यादा फायदा यह दो राज्य ले रहे हैं.
Government procurement of wheat in MP
भले ही मप्र में किसान आंदोलन (Farmer movement in MP) उतना सशक्त ना हो, लेकिन उसका कारण एमएसपी का फायदा लेना नहीं होकर राजनीतिक है, क्योंकि सच्चाई यह है कि पिछले 13 सालों में, मप्र में गेहूँ की सरकारी खरीदी लगभग 230 गुणा बढ़ी है: 2007-08 में, यह मात्र 57 हजार करोड़ टन थी. (https://dfpd.gov.in/writereaddata/Portal/Magazine/june-2012.pdf) जो इस साल, खरीफ खरीदी वर्ष 2020-21, में बढ़कर लगभग 130 लाख टन हो गई. यह सब हुआ केंद्र सरकार की मेहरबानी से।
केन्द्र सरकार ने मप्र को 80% घटिया चमक वाला तक गेहूँ खरीदी करने की विशेष छूट दी (http://fci.gov.in/app/webroot/upload/qc/MP%20as%20on%2004.05.2020.pdf ),
मप्र में अक्टूबर- नवम्बर माह में 28 विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव थे, शायद इसलिए केंद्र द्वारा यह विशेष मेहरबानी की गई. इस विशेष छूट के चलते, इस साल गेहूँ खरीदी में उसने पंजाब और हरियाणा को भी पीछे छोड़ दिया. देश में समर्थन मूल्य पर खरीदे गए कुल लगभग 390 लाख मैट्रिक टन (389.92) में से 129.42 लाख मैट्रिक टन गेहूं की खरीदी मप्र से हुई है, यह कुल खरीदी का 33% है. मप्र ने 15 लाख किसानों से 22 हजार करोड़ लागत का यह गेहूँ खरीदा जहाँ पंजाब में यह आंकड़ा 127.14 लाख मैट्रिक टन है, वही हरियाणा में 74 लाख मैट्रिक टन ही है.
Special exemption granted to MP by Central Government
अब हम जरा केन्द्र सरकार द्वारा मप्र को दी गई विशेष छूट के बारे में देख ले: केन्द्र सरकार के उपभोक्ता मामले, खाद्ध और सार्वजानिक वितरण मंत्रालय ने पहले 22.04.20 को मध्य प्रदेश सरकार के उपभोक्ता मामले के मुख्य सचिव को लिखे पत्र में 4 से 6% टुकड़े वाले और सिर्फ 10 से 20% तक कम चमक वाले गेहूँ खरीदी प्रति क्विंटल 4.81 रुपए की कटौती पर खरीदने की इजाजत दी थी.
लेकिन इसके बाद 04.05.2020 को मप्र सरकार को 10 से 80% कम चमक वाला गेहूँ खरीदी की छूट इसी प्रति क्विंटल 4.81 रुपए की कटौती के साथ दे दी. इसका विवरण इस प्रकार है: दमोह, खंडवा, बुरहानपुर सहित 19 जिलों में 10% कम चमक वाले; अशोक नगर सहित 10 जिलों में 10 से 20% कम चमक वाले; टीकमगढ़, ग्वालियर सहित 8 जिलों में 20 से 30% कम चमक वाले; शिवपुरी, देवास सहित 5 जिलों में 30 से 40% कम चमक वाले; तो सिवनी सहित 3 जिलों में यह सीमा 40 से 50% कर दी; तो होशंगाबाद सागर सहित तीन जिलों में यह सीमा 50 से 60%; शहडोल और बैतूल में यह सीमा 60 से 70% और सीहोर, विदिशा भोपाल में यह सीमा अपने चरम पर 70 से 80% तक पहुँच गई. http://fci.gov.in/app/webroot/upload/qc/MP%20as%20on%2004.05.2020.pdf
वहीं पंजाब को सिर्फ 10 से 30% कम चमक वाला ही गेहूं खरीदी की इजाजत दी गई. तो हरियाणा के कुछ ही जिलों में 50% कम चमक वाले गेहूँ खरीदी की इजाजत दी गई; उसी तरह, राजस्थान के भी सिर्फ तीन जिलों में 50% कम चमक वाले गेहूँ खरीदी की इजाजत दी और इन राज्यों बाकी जिलों में यह सीमा इससे नीचे ही रखी गई. https://fci.gov.in/qualities.php?view=17
असल में, अगर देखा जाए तो मप्र की शिवराज सरकार ने पिछले एक दशक में इस गेहूँ खरीदी के जरिए ही ग्रामीण इलाके में अपनी पकड़ बनाई. वर्ष 2006-07 और 2007-08 में देश में गेहूँ का उत्पादन काफी कम हुआ और लगभग 55 लाख टन गेहूँ का आयात करना पड़ा. और, मप्र में गेहूँ का काफी उत्पादन होने के बावजूद उसकी सरकारी खरीदी काफी कम थी और वो पीडीएस योजना के तहत गेहूँ वितरण के लिए केंद्र पर निर्भर था. इसका फायदा उठाते हुए, शिवराज सिंह सरकार ने 2008-09 में ही अपनी सरकारी खरीदी 57 हजार टन से बढ़कर 24.10 लाख टन कर ली, पहले ही साल 42 गुने की बढ़ोतरी और शायद इसने भाजपा को सत्ता में दुबारा आने में मदद की. इतना ही नहीं, 2012-13 तक इसे बढ़ाकर 84.93 लाख टन कर लिया; यानी लगभग 150 गुना की बढ़ोतरी. इसने उन्हें 2013 के विधानसभा चुनाव में तीसरी बार चुनाव जितवाने में कुछ तो मदद जरूर की होगी. और, उन्होंने यह सब सहकारी खरीदी केन्द्रों के तहत किया. इससे सहकारी संस्थाओं के जरिए ना सिर्फ नीचे तक उनकी पार्टी का एक राजनीतिक ढांचा खड़ा हुआ, बल्कि जिला प्रशासन के माध्यम से सीधे सरकारी खरीदी के जरिए वो किसानों को उसकी फसल की उचित कीमत देकर अपना एक बड़ा वोट बैंक भी साध पाए. कहीं ना कहीं इसमें शिवराज सिंह के 15 साल तक सत्ता में बने रहने का कारण छिपा है.
अगर यह तीनों कृषि बिल लागू हुए और मप्र सरकार ने धीरे-धीरे एमएसपी पर गेहूँ की खरीदी से अपना हाथ खींचना शुरू किया, तो उसका खामियाजा सबसे ज्यादा वहां के किसानों को भुगतना होगा, क्योंकि, अगर इसी साल सरकारी खरीदी नहीं होती किसानों का 50 से 80% तक कम चमक का गेहूँ निजी व्यापारी तो औने-पौने दाम पर ही खरीदता.
अनुराग मोदी
सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्त्ता, समाजवादी जन परिषद