विकास नहीं, भागीदारी को मिले तरजीह!

Guest writer
19 Jan 2022
विकास नहीं, भागीदारी को मिले तरजीह! विकास नहीं, भागीदारी को मिले तरजीह!

लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

ऑक्सफैम रिपोर्ट-2022 के आईने में विकास | Developments in the Mirror of Oxfam Report-2022

Oxfam Report: भारत में अरबपतियों की संख्या 39 फीसदी बढ़कर 142 पर पहुंची

विकास, विकास और विकास! विगत डेढ़ दशक से चुनाव दर चुनाव विकास का खूब शोर रहा है. विकास का वह चिरपरिचित शोर इस बार 5 राज्यों के चुनावों, खासकर देश के राजनीति की दिशा तय करनेवाले यूपी में फिर से उठने लगा है. स्वामी प्रसाद मौर्य (Swami Prasad Maurya) के भाजपा छोड़कर सपा में आने के बाद जिस तरह यूपी का चुनाव 80 बनाम 20 के मुकाबले 85 बनाम 15 पर केन्द्रित हुआ है; जिस तरह के यूपी के भावी सीएम अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) सत्ता में आने के बाद जनगणना कराकर सभी समाजों के संख्यानुपात में भागीदारी देने की घोषणा किये, उससे सोशल मीडिया में रातों रात सामाजिक न्याय का मुद्दा तुंग पर पहुंचने के स्पष्ट लक्षण दिखने लगे. ऐसा होते ही भाजपा से अपना भविष्य जोड़ चुकी सवर्णवादी मीडिया और बुद्धिजीवी विकास का मुद्दा उठाने लगे. जहाँ तक भाजपा का विकास से सम्बन्ध का सवाल है मुख्यतः हिन्दू- मुसलमान और राष्ट्रवाद के विभाजनकारी मुद्दे पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा मज़बूरी में पहली बार 2003 में दिग्विजय सिंह के खिलाफ विकास के मुद्दे के पर चुनाव में उतरी और मध्यप्रदेश में 230 में से 172 सीटें जीत कर आम जनता सहित राजनीति के पंडितों को भी हैरत में डाल दिया.

मध्य प्रदेश में विकास का मुद्दा हिट होने के बाद भाजपा, 2004 में शाइनिंग इंडिया के मार खाने के बावजूद,इससे पीछे नहीं हटी और चुनाव दर यह मुद्दा उठाकर सफलता की सीढियां चढ़ती गयी. विकास का शोर मोदीराज में कुछ ज्यादे ही मचा. पीएम बनाने के बाद उन्होंने यह लगातार सन्देश दिया कि आज़ाद भारत में पिछले 70 सालों में कोई विकास नहीं हुआ इसलिए वह विकास करने के लिए आये हैं. विकास का मुद्दा उनकी स्थिति पुख्ता करने में बेहद प्रभावी साबित हुआ. इस काम में गुजरात का कथित विकास मॉडल उनके लिए काफी सहायक हुआ. हालांकि भाजपा की चुनावी सफलता में विकास मात्र मुखौटा रहा, जिसकी आड़ में उसने ध्रुवीकरण का सफल गेम प्लान किया.किन्तु उसने सवर्णवादी मीडिया के सौजन्य से इस मुद्दे को इतना हवा दिया कि पिछले एक दशक से सारे के सारे चुनाव विकास पर केन्द्रित होते चले गए.

बहरहाल आज सवर्ण बुद्दिजीवी और मीडिया यूपी में उठती सामाजिक न्याय की लहर (Wave of social justice rising in UP) के मुकाबले जिस विकास को हवा देने जा रही है,उस विकास का मतलब प्रधानतः बिजली, सड़क और पानी की स्थिति में सुधार और चमकते शॉपिंग माल्स से है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ध्यान में रखकर डिजायन किया जाता रहा है एवं जिसका लाभ मुख्यतः देश के उस सुविधासंपन्न व विशेषाधिकारयुक्त तबके को मिला है, जिसका शक्ति के स्रोतों पर पहले से ही एकाधिकार रहा है.

इसका सबसे स्याह पक्ष यह है इसकी रोशनी से दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों प्रायः पूरी तरह ही वंचित रहे हैं.

सवर्णों को ध्यान में रखकर डिजायन किये गए विकास के कारण ही पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स सवर्ण मालिकों के ही हैं.

मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की हैं. चार से आठ-आठ, दस-दस लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाडियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल्स प्राय इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है.

विकास के इस असमान बंटवारे का कयास लगाकर डेढ़ दशक पूर्व ही देश के पीएम, राष्ट्रपति, अर्थशास्त्रियों ने गहरी चिंता जाहिर किया था.

वंचितों के जीवन में बदलाव लाने में इस विकास की व्यर्थता को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक दशक पूर्व कई बार अर्थशास्त्रियों से रचनात्मक सोच की अपील करते हुए कहा था कि विकास का लाभ दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों नहीं मिला है.(हिन्दुस्तान,16 दिसंबर,2007).

विकास की इन खामियों से निपटने के लिए पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बदलाव की एक नई क्रांति के आगाज का आह्वान कर डाला था. (पंजाब केशरी,18 दिसंबर,2007).

नोबल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा था, ’गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है. सामाजिक न्याय का लक्ष्य पाने और आर्थिक असमानता दूर करने के सरकार की भूमिका और बड़ी व कुशल करने की जरुरत है. (हिन्दुस्तान,19 दिसंबर,2007 ).

पंद्रह साल पहले सामाजिक न्याय व असमान विकास पर निरंकार सिंह ने ‘एक हिस्से का विकास ‘नामक आलेख में कहा था, ’हमारी समस्याएं जितनी गंभीर हैं, उसके सामने यह तरक्की बहुत छोटी है. हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि इस तरक्की के लाभ को अपनी बहुसंख्य आबादी तक कैसे पहुंचायें. (दैनिक जागरण,16 मई,2007).

’अब भी भयावह है गरीबी का चेहरा’ में आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ डॉ. जयंतीलाल भंडारी ने लिखा था, ’यह स्वीकार करना ही होगा कि विकास का मौजूदा रोडमैप लोगों के जीवन की पीड़ा नहीं मिटा पा रहा,इसमें संशोधन का समय आ गया है. यदि देश के गरीबों की व्यथा को नहीं सुना गया तो हमारे वर्तमान विकास के परिदृश्य में आर्थिक-सामाजिक खतरे और चुनौतियों का ढेर लग जायेगा’.(हिन्दुस्तान,26 मार्च,2007).

नई सदी के शुरुआत में विकास का नया दौर शुरू हुआ, उसके खतरों से निपटने के लिए डेढ़ दशक पूर्व देश के अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों ने जो अपील किया, उसकी अनदेखी मोदी की भाजपा सहित दूसरे दल भी करते गए. फलतः मोदीराज में पिछले छः-सात सालों में विषमता पर देश-विदेश की जितनी भी रपटें आई हैं, उनमें पाया गया कि भारत जैसी विषमता दुनिया में कहीं नहीं है. इस मामले में वैश्विक धन बंटवारे पर अक्तूबर 2015 में प्रकाशित क्रेडिट सुइसे की रिपोर्ट काफी चौंकाने वाली रही, जिसमें बताया गया था कि सामाजिक - आर्थिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद भारत में तेजी से आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ी है.

2000-15 के बीच जो कुल राष्ट्रीय धन पैदा हुआ, उसका 81 प्रतिशत हिस्सा टॉप की दस फ़ीसदी आबादी के पास गया है. जाहिर है शेष निचली 90 प्रतिशत आबादी के हिस्से में मात्र 19 प्रतिशत धन आया.

रिपोर्ट के मुताबिक़ 19 प्रतिशत धन की मालिक 90 प्रतिशत आबादी में भी नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास 4.1 प्रतिशत ही आया.’

क्रेडिट सुइसे की उस रिपोर्ट के बाद बहुत से अखबारों ने लिखा था, ’गैर-बराबरी अक्सर समाज में उथल-पुथल की वजह बनती है. सरकार और सियासी पार्टियों को इस समस्या की गंभीरता से लेना चाहिए. संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण बंटवारा अब प्राथमिक महत्त्व का हो गया है,’ इसी तरह 2018 के जनवरी में ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट में जो भयावह आर्थिक विषमता का चित्र उभरा, उस पर चिंता व्यक्त करते हुए ऑक्सफैम इंडिया की तत्कालीन सीइओ निशा अग्रवाल ने कहा था, ’अरबपतियों की बढ़ती संख्या अच्छी अर्थ व्यवस्था की नहीं है, खराब होती अर्थ व्यवस्था की संकेतक है. जो लोग कठिन परिश्रम करके देश के लिए भोजन उगा रहे हैं, इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण कर रहे हैं, फैक्टरियों में काम कर रहे हैं, उन्हें अपने बच्चों की फीस भरने,, दवा खरीदने और दो वक्त भोजन जुटाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. अमीर-गरीब की खाई देश को खोखला कर रही है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है.’ किन्तु 2015 में ‘ क्रेडिट सुइसे’ तथा 2018 ‘ऑक्सफैम इंडिया’ की रिपोर्टों में उभरी भीषण आर्थिक विषमता (भीषण आर्थिक विषमता) के मद्देनज़र देश- दुनिया के अर्थशास्त्रियों ने देश के हुक्मरानों और योजनाकारों को जो चेतावनी दिया, उसका कोई असर नहीं हुआ. सिर्फ और सिर्फ भीषण विषमताकारी भारत के विकास मॉडल का दुनिया भर में शोर मचाया जाता रहा.

अब फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 जनवरी, 2022 को विश्व आर्थिक मंच के दावोस एजेंडा में वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये ‘विश्व की वर्तमान स्थिति’ पर बोलते हुए विकास का ढोल पीटा है और कहा है, ‘भारत तेजी से विकास करेगा, लेकिन साथ ही वह पूरे समाज के लिए होगा’. लेकिन जिस तरह 17 जनवरी को विश्व आर्थिक मंच को संबोधित करने के दौरान टेलीप्रॉम्प्टर बंद होने से प्रधानमंत्री मोदी के ज्ञान और भाषणकला की पोल खुल गयी, उसी तरह उस दिन प्रकाशित ऑक्सफैम की रिपोर्ट ने उनके ‘सबका साथ-सबका विकास’ के दावों की कलई खोलकर रख दिया.

वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम 2022 के पहले दिन प्रकाशित ऑक्सफैम की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के टॉप-10 फीसदी अमीर लोगों, जिनके पास देश की 45 प्रतिशत दौलत है, पर अगर एक फीसदी एडिशनल टैक्स लगाया जाए तो उस पैसे से देश को 17.7 लाख एक्स्ट्रा ऑक्सीजन सिलिंडर मिल जाएंगे.

टॉप के दस दौलतमंद भारतीयों के पास इतनी दौलत हो गयी है कि वे आगामी 25 सालों तक देश के सभी स्कूल – कॉलेजों के लिए फंडिंग कर सकते हैं. सबका साथ – सबका विकास के शोर के मध्य पिछले एक साल में अरबपतियों की संख्या 39 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ अब 142 तक पहुँच गयी है. इनमें टॉप 10 के लोगों के पास इतनी दौलत जमा हो गयी है कि यदि वे रोजाना आधार पर एक मिलियन डॉलर अर्थात 7 करोड़ रोजाना खर्च करें, तब जाकर उनकी दौलत 84 सालों में ख़त्म होगी. सबसे अमीर 98 लोगों के पास उतनी दौलत है, जितनी 55. 5 करोड़ गरीब लोगों के पास है.

ऑक्सफैम 2022 की रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर आया है कि नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास गुजर-बसर करने के लिए सिर्फ 6 प्रतिशत दौलत है.  

ऑक्सफैम की ताजी रिपोर्ट से जाहिर है कि नई सदी में विकास की जो गंगा बही है; जिस विकास के नाम पर शोर मचाकर मोदी जैसे लोग सत्ता दखल करते रहे हैं, उसमें दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को नहीं के बराबर हिस्सेदारी मिली. इसलिए तेज विकास में बहुजनों की नगण्य भागीदारी आज सबसे बड़ा मुद्दा है, जिससे राजनीतिक दलों सहित मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग आँखे मूंदे हुए है. ऐसे में यूपी चुनाव में आज जिस विकास का शोर मचा रहे हैं, उसका बहिष्कार होना चाहिए. क्योंकि इस विकास में दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों से युक्त बहुजन समाज की बर्बादी का षड्यंत्र छिपा है.

बहुजनों के लिए विकास का वही एजेंडा स्वीकार्य होना चाहिए जिससे धनोपार्जन की समस्त गतिविधियों में उनकी संख्यानुपात में भागीदारी का रास्ता साफ़ होता हो. ऐसे में उन्हें ऐसे दल को चुनना चाहिए जिसकी नीति सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म –मीडिया इत्यादि सहित विकास की तमाम योजनाओं में सभी सामाजिक समूहों की भागीदारी के अनुकूल हो. इस लिहाज से वर्तमान में सपा से ही वंचित वर्गों का कुछ भला होने उम्मीद क्योंकि उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव बार-बार कहे जा रहे हैं कि सत्ता में आने पर जनगणना करा सभी समाजों के संख्यानुपात में भागीदारी सुलभ कराएँगे. ऐसे में विकास पर भागीदारी को तरजीह देना इतिहास की मांग है! 

एच एल दुसाध

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष है.)

अगला आर्टिकल