Advertisment

लोकमान्य तिलक की दृष्टि में हिंदी एवं वर्तमान हिंदी अनुसंधान कार्य की दिशा

author-image
Guest writer
15 Dec 2021
New Update

Advertisment

Direction of Hindi and current Hindi research work in the opinion of Lokmanya Tilak

Advertisment

किसी भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया की सबसे कमज़ोर कड़ी उसके वर्तमान द्वारा अतीत की उपेक्षा होती है. राष्ट्र – निर्माण की वैचारिकी के संदर्भ में इस समस्या को गहराई के साथ समझा जा सकता है. अतीत के विचारकों के संदर्भ में यदि इस समस्या पर विस्तार से विचार किया जाए तो हम देखते हैं कि लोकमान्य तिलक और भगत सिंह के राष्ट्र निर्माण संबंधी विचार लगभग उपेक्षित रहे हैं. जबकि यह साफ़ स्पष्ट है कि लोकमान्य तिलक के विचारों का स्वरूपगत अध्ययन वर्तमान भारतीय सामाजिक समस्याओं के समक्ष एक विचारणीय समाधान का स्वरूप मुहैया कराता है.

Advertisment

आज जब हम वर्तमान हिंदी अनुसंधान की दिशा और दशा पर अध्ययन करते हैं तब हम पाते हैं कि एक खास रणनीति के तहत भाषा और साहित्य के बीच संरचनात्मक अंतर को अलगाववादी दृष्टि से दर्शाया जाता है. जबकि स्वरूपगत अंतर के बावजूद भाषा और साहित्य एक दूसरे के पूरक होते हैं, खासकर भाषा संबंधी आंदोलन के संदर्भ में. लोकमान्य तिलक हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करने के क्रम में भाषा और साहित्य के बीच इस अंतर का स्पष्ट खंडन करते हैं.

Advertisment

साहित्य और भाषा के संदर्भ में ऐतिहासिक परिघटनाओं का अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि 19 वीं सदी में इन समस्याओं पर भारत समेत अन्य राष्ट्रों में भी इस विषय पर गहराई से विचार किया जा रहा था.

Advertisment

अमेरिका के कला और विज्ञान अकादमी के सदस्य वाल्टर चेनिंग ने कहा था कि – “राष्ट्रीय साहित्य या यूँ कहें कि सच्चा राष्ट्रीय साहित्य राष्ट्रभाषा से उत्पन्न होता है. साहित्यिक विशिष्टताएँ भाषा की विशिष्टताओं से अंश मात्र ही भिन्न होती हैं और साहित्यिक मौलिकता मस्तिष्क की उस स्वतंत्र क्रिया का फल है जिसमें अन्य भाषा की दास्ता आवश्यक रूप से बाधा डालती है.”

Advertisment

कहने की आवश्यकता नहीं कि अपनी भाषा को अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों से बचाने के क्रम में वाल्टर चेनिंग भाषा और साहित्य के अलगाव को स्पष्ट रूप में ख़ारिज करते हुए उसे एकरूप में विचार करने पर ज़ोर देते हैं. किसी भी राष्ट्र के निर्माण और उसके एकीकरण के लिए भाषा और साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है.

Advertisment

साहित्यिक विशिष्टतों और भाषा की विशिष्टताओं के बीच गहरे संबंध को लोकमान्य तिलक बखूबी समझते हैं. उनकी दृष्टि में भाषा का महत्व राष्ट्र की सांगठनिक एकता के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है.

लोकमान्य तिलक कहते हैं कि – “राष्ट्र के संगठन के लिए आज एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे सर्वत्र समझा जा सके. लोगों में अपने विचारों का अच्छी तरह प्रचार करने के लिए बुद्ध ने भी एक भाषा को प्रधानता देकर कार्य किया था.”

यहाँ यह ध्यान रखना जरुरी है कि आज जिस रूप में हम अपने ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत से कटने के क्रम में तिलक जैसे विचारकों को भूलने की प्रक्रिया से ग्रस्त हैं, वहीं तिलक स्वयं इस समस्या से मुक्त हैं और यही कारण है कि भाषा पर विचार और उसकी सांस्कृतिक चेतना की शक्ति को पहचानते हुए वे बुद्ध तक का सफ़र करने से परहेज नहीं करते हैं.

लोकमान्य तिलक के विचारों के आलोक में वर्तमान भाषाई समस्याओं की शिनाख्त भी जरुरी है. इस क्रम में विचार करें तो पूर्व में हिंदी भाषा की स्वीकार्यता पर यह कहते हुए प्रश्न उठाया गया कि संविधान में अंग्रेजी की जरुरत को दक्षिण भारतीयों की मांग पर रखा गया है. हिंदी की स्वीकार्यता पर सिर्फ़ प्रान्तीय भाषाओं को आधार ही नहीं बनाया गया बल्कि प्रान्तीय भाषाओं की आड़ में अंग्रेजी को स्थापित करने का षड्यंत्र भी किया गया. प्रान्तीय भाषाओं के आधार को लोकमान्य तिलक के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है.

तिलक कहते हैं कि – “नि:संदेह हिंदी दूसरे कार्यों के लिए प्रान्तीय भाषाओं की जगह तो ले ही नहीं सकती. सब प्रान्तीय कार्यों के लिए प्रान्तीय भाषाएँ ही पहले की तरह काम में आती रहेंगी. प्रान्तीय शिक्षा और साहित्य का विकास प्रान्तीय भाषाओं के द्वारा ही होगा; लेकिन एक प्रान्त दूसरे प्रान्त से मिले, तो पारस्परिक विचार विनिमय का माध्यम हिंदी ही होनी चाहिए ; क्योंकि हिंदी अब भी अधिकांश प्रान्तों में समझ ली जाती है और बोलने तथा चिट्ठी लिखने लायक हिंदी थोड़े ही समय में सीख ली जाती है. इस विषय में कोई भी प्रान्तीय भाषा हिंदी का स्थान नहीं ले सकती.”

लोकमान्य तिलक के इन विचारों को कई स्तर पर समझा जा सकता है.

जिन अध्ययनकर्ताओं का संबंध भाषा संबंधी विचारों से है वे बखूबी समझते हैं कि भाषा पर किए गए विचारों में थोड़ी सी भी लापरवाही उसे सांप्रदायिक बना देता है. इस आधार पर देखें तो तिलक प्रान्तीय भाषाओं की अस्मिता के वजूद को स्वीकारते हुए हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारने की बात करते हैं. उनकी भारतीयता के प्रति किया गया यह चिंतन स्पष्ट कर देता है कि राष्ट्र निर्माण के प्रति वे कितने सचेत हैं. उनके इस चेतन को इस प्रसंग से भी समझा जा सकता है कि मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा जब हिंदी जाति की अवधारणा पर बात करते हुए मैथिली भाषा पर आलेख में अपने विचार को व्यक्त करते हैं तब बाबा नागार्जुन उन्हें भाषाई सांप्रदायिकता के आधार पर रेखांकित करते हैं. लेकिन लोकमान्य तिलक के विचार सांप्रदायिकता की पहुँच से कोसों दूर लक्षित होते हैं. तिलक के विचारों के आधार पर एक और मूल्यांकन सामने आता है.

तिलक हिंदी को प्रान्तीय पारस्परिक विचार विनिमय के रूप में देखते हैं जबकि दूसरी तरफ अंग्रेजी को दक्षिण भारतीयों की मांग पर रखने की बात कही जाती है.

अब प्रश्न यह उठता है कि तिलक की दृष्टि में प्रान्तीय पारस्परिक संबंधों के क्या मायने थे?

इस प्रश्न के आलोक में गहराई से शोध करने पर हम पाते हैं कि दक्षिण भारत के शंकरराव कम्पिकेरी, एम. वेंकटेश्वरन, नागप्पा, आय.पांडुरंग, सात्यिकी, वेणुगोपाल, टी.एल. नारायण, श्री गो. परमशिवन जैसे सैंकड़ों दक्षिण भारतीय विचारकों ने तथा सैंकड़ों दक्षिण पत्र पत्रिकाओं ने साफ़ तौर पर हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाने की सिर्फ़ सहमति ही नहीं दी बल्कि उसी प्रान्तीय पारस्परिक संबंधों के आधार पर हिंदी को स्वीकारने की बात की, जिसकी चर्चा पूर्व में लोकमान्य तिलक स्पष्ट रूप में कर चुके थे. ये लोकमान्य तिलक की दूरदर्शिता का सबसे सटीक उदाहरण साबित होता है. अगर हमने इस दूरदर्शिता का सकारात्मक उपयोग किया होता तो अंग्रेजी के संदर्भ में बनाए गए प्रोपगेंडा से हम कबका निजात पा चुके होते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इसका परिणाम बेहद खतरनाक निकला. आज इंजीनियरिंग और एम्स जैसे प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेजों में हिंदी माध्यम से पढ़कर आने वाले छात्र आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं.

आज जब यह साबित हो चुका है कि अपनी भाषाई प्रक्रिया में प्राप्त किया गया ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है बावजूद इसके हम अनुवाद की प्रक्रिया से ज्ञान हासिल करने के लिए श्रापित हैं. फिर बरबस यह सवाल भी उठता रहता है कि आज हम चरक, शुश्रुत, बुद्ध, महावीर, पाणिनी, आर्यभट्ट, पतंजलि, कौटिल्य क्यों नहीं तैयार कर पाते हैं?

गांधी ने कहा था कि – “यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा का दिया जाना बंद कर देता. सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषा अपनाने को मजबूर कर देता. जो आना कानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता. मैं पाठ्य पुस्तकों को तैयार किए जाने का इंतजार नहीं करता.”  

गाँधी का संपूर्ण जीवन और सारा संघर्ष अहिंसा के प्रति समर्पित रहा लेकिन यहाँ भाषा के संदर्भ में वे तानाशाह होने तक की परिकल्पना से चूकते नहीं. इससे समझा जा सकता है कि अपनी भाषा का क्या महत्व होता है?

गाँधी से पूर्व ही तिलक पाठ्य पुस्तकों और विद्यालयों के संदर्भ में कहते हैं कि – “राष्ट्रभाषा की बहुत जरुरत है. विद्यालयों में हिंदी की पुस्तकों का प्रचार होना चाहिए. इस प्रकार यह कुछ ही वर्षों में राष्ट्रभाषा बन सकती है.”

इस संदर्भ में पहले तिलक ने विचार किया या गाँधी ने, यह मसला महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि इन विचारों का हमारे भविष्य के साथ कैसा संबंध स्थापित होता है? क्योंकि जब तक हम इन सभी स्थितियों पर गहराई से विचार नहीं कर लेते हैं तब तक हिंदी में अनुसंधान कार्य की दिशा और दशा पर ठीक से बात नहीं कर पाएंगे. इस विषय पर बात करने से पूर्व हमें यह भी ध्यान रहे कि अतीत पर बात करना अतीतजीवी होना नहीं है और न तो ऋग्वेद पर बात करना पुरोहितवाद का समर्थक होना है.

ऐसी व्याख्याएं कमजोर मार्क्सवादियों की मुख्य समस्याएं रही हैं. यही कारण है कि वे अपने खेमे के प्रबल मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा को परंपरावादी सिर्फ़ इसलिए घोषित करते रहे क्योंकि उन्होंने अपनी संस्कृति को जानने समझने के लिए ऋग्वेद तक की यात्रा की थी. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस क्रम में जहाँ उन्हें रुढ़ि विरोधी होना था वहां वे अपने फ़तवों के कारण संस्कृति विरोधी होते चले गए.....

डॉ. संजीव कुमार

(रूसी-भारतीय मैत्री संघ दिशा, मास्को, रूस द्वारा आयोजित कार्यक्रम में डॉ. संजीव कुमार द्वारा दिये गये भाषण का पहला अंश)

(आलेख के अगले हिस्से में वक्तव्य का दूसरा अंश प्रकाशित किया जाएगा).....    

Advertisment
सदस्यता लें