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दलितों के हिंदुत्वीकरण का कांशीराम का प्रोजेक्ट पूरा हुआ, अब बसपा की कोई जरूरत नहीं है

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Guest writer
26 Mar 2022
सीएए :  मोदी सरकार के समर्थन में मायावती (?) खुलकर मैदान में, विपक्ष पड़ा कमजोर

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यूपी चुनाव में बसपा की रणनीति पर चर्चा (Discussion on BSP's strategy in UP elections)

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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा की समूची राजनीति पर अगर हम नजर डालें तो पूरे चुनाव प्रचार के दौरान यह न केवल रंग मंच से ओझल थी, बल्कि इसका बचा खुचा प्रयास समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के खिलाफ हमला करने पर केंद्रित था। इस चुनाव में भाजपा पर कोई सियासी हमला करने से यह पार्टी लगातार बच रही थी।

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बसपा भाजपा की बी टीम है, जनता में बन चुकी थी धारणा

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वैसे भी, इस पूरे चुनाव प्रचार के दौरान जनता के बीच यह धारणा बेहद आम दिखी कि बसपा सियासी तौर पर भाजपा की एक विश्वस्त सहयोगी के तौर पर काम कर रही है। इस धारणा को तोड़ने के लिए बसपा ने कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया। ऐसा लगता था जैसे बसपा इतना थक गई है कि अब वह चुनाव लड़ने की इच्छा ही नहीं रखती है।

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यही नहीं, अमित शाह ने बसपा को लेकर जिस तरह से बयान दिया उससे भी यह धारणा मजबूत हुई कि बसपा को लेकर भाजपा नरम रुख रखती है और भविष्य में यह भाजपा से मिलकर सरकार बना सकती है। इस धारणा ने भी बसपा का नुकसान किया।

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What will be the future of Bahujan Samaj Party in this era of Hindutva and majoritarianism?

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हालांकि, अमित शाह चाहते थे कि बसपा भाजपा विरोधी वोट का कुछ हिस्सा अपनी तरफ जरूर खींच ले और इसमें कुछ हद तक यह कामयाब भी हुई।

लेकिन, अब जबकि विधानसभा के चुनाव खत्म हो चुके हैं- सवाल बहुत आम है कि आखिर हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद के इस दौर में बहुजन समाज पार्टी का भविष्य क्या होगा?

बसपा के भविष्य पर कोई विचार करने से पहले हमें इसके संस्थापक कांशीराम की पॉलिटिकल लाइन (Kanshi Ram's political line) पर बात कर लेना चाहिए। यह बसपा के भविष्य का सटीक आकलन करने में मदद करेगा।

दरअसल कांशी राम दलितों के बीच 'अंबेडकरवादी पॉलिटिक्स' के नाम पर सिर्फ हिंदुत्व को स्थापित करने और उनके बीच जातीय अस्मिता को मजबूत करके आगे बढ़ने की राजनीति किया करते थे।

दलित जातियों की अस्मिता को उभारना और उनके सहारे अवसरवादी राजनीति को मजबूत करना उनकी सियासत का मुख्य हिस्सा था।

वह किसी भी तरह से दलितों को राजनीति का हिस्सा बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने ही विचार की तिलांजलि दी और अपने सियासी आराध्य आंबेडकर के समूचे विचार को भी उल्टा करके जातिगत अस्मिता को न केवल मजबूत किया बल्कि अपने को जातिवादी कहलाने में गर्व का भाव पैदा करवाया।

एक तरह से यह संघ के नजदीक खड़ा होना था। और बाद में उन्होंने संघ से हाथ भी मिलाया। यह उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता का मुख्य प्रतिफल था।

बसपा हिंदुत्व के हाथ की कठपुतली कांशीराम के समय में ही बन गई थी और ऐसा किसी दुर्घटना के कारण नहीं हुआ था। यह कांशीराम की सोची समझी राजनीति का हिस्सा था। यह उनकी राजनीति का हिस्सा था कि दलित समुदाय भयानक रूप से हिंदू धर्म के नजदीक आया और अपने को कट्टर हिंदू समझने लगा।

दरसल, उनकी दलित भागीदारी की राजनीति मुख्य रूप से इस बात पर अटक गई कि ब्राह्मणवादी लोग या ब्राह्मणवाद तभी खराब है जब तक वह दलितों को अपने मंच पर स्थान नहीं दे। अन्यथा ब्राह्मणवाद बहुत अच्छी चीज है और हमें उसका नाश नहीं करना बल्कि उसमें जगह लेना है।

यह कितना हास्यास्पद है कि अपने सियासी लाभ के लिए जाति को मजबूत करने की राजनीति करने वाली बसपा भी आंबेडकर को अपना मार्गदर्शक मानती है- जिन्होंने पूरा जीवन जातियों को नष्ट करने में लगा दिया।

दलितों के बीच ब्राह्मणवादी विचार

हालांकि, अब जबकि दलितों के बीच बसपा ने मजबूत मिडिल क्लास पैदा किया है वह कांशीराम की लाइन पर आगे बढ़कर अपने लिए भाजपा को कोई खतरा नहीं मानता। वह दलितों के बीच ब्राह्मणवादी विचारों (brahminical ideas among dalits) का सबसे बड़ा वाहक होता है। संघ या भाजपा से उसे शिकायत तभी होती है जब वह भ्रष्टाचार करने या फ़िर उसमें समाहित होने का मौका नहीं पाता है। यह मिडिल क्लास दलित गरीब विरोधी भी होता है।

दरअसल बसपा ने अपने समर्थकों को कभी हिंदुत्व के खिलाफ लड़ना नहीं सिखाया। इसलिए बसपा समर्थक जब बसपा को कमजोर देखता है अगले ही पल वह भाजपा की गोद में बैठ जाता है। क्योंकि बसपा की समूची राजनीति संघ के बहुत निकट है और अवसरवाद से ओतप्रोत भी। इसके अलावा अब उसका कोई दीन ईमान नहीं है।

जाहिर सी बात है बसपा के कमजोर होने के बाद यह तबका बीजेपी या संघ के साथ चला जाएगा। यानी भाजपा का हिस्सा बन जाएगा। वह किसी सियासी विचारधारा के कारण बसपा के पुनः रिवाइवल के प्रयास में शामिल नहीं होगा। इस तरह से बसपा अब अपने अंतिम दिन गिन रही है।

कुल मिलाकरबसपा ने दलितों के हिंदुत्वीकरण का जो प्रोजेक्ट शुरू किया था वह पूरा हो गया है। अब बसपा की सियासी पटल पर कोई जरूरत नहीं है। इसलिए अब बसपा सरवाइव नहीं कर पाएगी।

हरे राम मिश्र

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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