देश के खिलाफ षड्यंत्र है सीएए/एनआरसी/एनपीआर

hastakshep
11 Jan 2020
देश के खिलाफ षड्यंत्र है सीएए/एनआरसी/एनपीआर

चंद्रशेखर जयन्ती पर विमर्श का आयोजन

discussion on 'Interrelationships and its impact' of NPR, NRC and CAA

पटना, 11 जनवरी। 'केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान' की ओर से प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता कॉमरेड चंद्रशेखर जयन्ती के अवसर पर 'एनपीआर, एनआरसी और सीएए के अंतर्संबंधों और उसके प्रभाव' विषय पर विमर्श का आयोजन जनशक्ति परिसर स्थित 'केदार भवन' में किया गया। सवर्प्रथम कॉमरेड चंद्रशेखर की तस्वीर ओर माल्यार्पण किया गया।

आगत अतिथियों का स्वागत करते हुए केदासदास संस्थान के सचिव व एटक के राज्य अध्यक्ष अजय कुमार ने कहा”बिहार के कम्युनिस्ट आंदोलन में चंद्रशेखर सिंह किसानों-मज़दूरों के महत्वपूर्ण नेता थे। बिहार सरकार में मंत्री रहते हुए उन्होंने कई गरीब पक्षधर काम किये। आज हम उनकी याद में भारत को परेशान करने वाली प्रमुख समस्या है नागरिकता कानून संशोधन।”

संस्थान के महासचिव नवीनचंद्र ने अपने सीएए, एनआरसी और   के आपसी रिश्तों पर प्रकाश डालते हुए कहा”एनपीआर , एनआरसी का पहला कदम है क्योंकि पहले चरण में ही संदिग्ध लोग चिन्हित कर लिए जाएंगे ।उन्हें डाउटफुल मार्क कर दिया जाएगा। ऐसे लोगों को कहा जायेगा कि तुम साबित करो कि तुम भारत के नागरिक हो। क्रिमिनल कानून में भी आरोप लगाने वाले को अपराध साबित करना पड़ता है। ऐसा नहीं होता है कि अपराधी को ही ये साबित करना पड़े कि उसने अपराध नहीं किया है। ऐसा नहीं होता है।10 प्रतिशत से अधिक लोग उस बात को नहीं साबित कर पाएंगे कि उनके पिता का जन्म कहां हुआ था।"

'असोसिएशन फॉर स्टडी एंड एक्शन' के सचिव अनिल कुमार राय ने नागरिकता कानून में आये संशोधन पर अपनी राय प्रकट करते हुए कहा

”ये आज के भारत के सबसे दहकता हुआ सवाल है। आप देखिए शाहीन बाग की उन महिलाओं को याद करिए जो बिना किसी राजनीतिक संरक्षण के उतरी हैं। जब तक हम इसके रेशे रेशे को नहीं समझेंगे उसके पीछे के गहरे षड्यंत्र को नहीं समझ पाएंगे। एनआरसी वैसे तो बना तो 1951 में था जिसे अद्यतन किया गया 1955 में। आज जिसकी चर्चा हो रही है उसकी शुरुआत 1971 में हुई। चूंकि पूर्वी पाकिस्तान से सटा हुआ क्षेत्र था। उस समय चूंकि भारत ने बंग्लादेश को बनने में सहायता दी थी तो भारत की नैतिक जिम्मेवारी थी कि वहां से आने वाले लोगों को शरण दे। असम में 1979 से 1985 तक आंदोलन चला। पूरी तरह अराजकता का माहौल था। उसी वक्त राजीव गांधी की सरकार ने समझौता किया था कि 25 मार्च 1971 के पहले आये लोगों को नागरिकता देंगे उसके बाद के लोगों को नहीं। लेकिन बाद में इसके पहले की किसी सरकार ने निर्णय लिया। मोदी सरकार ने हिन्दू वोटों के चक्कर में इस एजेंडे को आगे बढाया लेकिन भाजपा और मोदी सरकार के अनुमान के विपरीत एनआरसी के बाहर के 19 लाख में 12-13 लाख हिन्दू ही निकल गए। इस पूरी प्रक्रिया में लगभग 1600 करोड़ खर्च हुए जिसकी जनसंख्या मात्र साढ़े तीन करोड़ है। कल्पना करिए यदि डेढ़ अरब की आबादी ओर इसे लागू किया गया तो कितना खर्च आएगा। और इसके साथ जो परेशानी होगी वो अलग। अभी भी असम के छह जिलों में डिटेंशन सेंटर है जिसमें 1045 लोग रह रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री इससे इनकार कर रहे हैं।”

अनिल राय ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा

”कहाँ तो तय था कि घुसपैठियों को निकालने की बात थी लेकिन अब तो सीएए में ऐसे लोगों को नागरिकता देने की बात हो रही है। इसमें तीन देशों के पांच संप्रदायों को नागरिकता देने की बात है। तर्क दे रहे हैं कि चूंकि वे धार्मिक रूप से उत्पीड़ित हैं इसलिए नागरिकता दे रहे हैं। पहले के ग्यारह वर्षों के बदले पांच सालों तक रहने वाले लोगों को अब नागरिकता देने की बात है। अब कट ऑफ डेट 31 दिसम्बर 2014 कर दिया गया है।"

पूर्व प्रशासनिक पदाधिकारी मनोज श्रीवास्तव ने अपने सम्बोधन फॉरेनर्स एक्ट और पासपोर्ट एक्ट का उदाहरण देते हुए कहा

”इन दोनों एक्ट में परिवर्तन 2015 और 2016 में ही कर दिया गया है। सीएए को मिलाकर देखना होगा। ऐसा लगता है कि कुछ खास समूहों को टारगेट किया गया है। लेकिन साथ ही ये भी देखना होगा कि डेढ़ अरब की आबादी जिसमें हिन्दू आबादी बहुतायत में है। क्या ये सम्भव है कि हिंदुओं में संदिग्ध साबित नहीं होंगे? हिन्दू आबादी भी क्या स्वीकार कर लेगी? और जनता परेशानी देखकर विद्रोह नहीं करने लगेगी ? हमें इन तमाम तकनीकी पहलुओं का ख्याल रखकर अपना ठोस आधार तैयार करना होगा।"

सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता अरविंद सिन्हा ने सीएए/ एनआरसी/ एनपीआर को राजनीतिक मसला बताते हुए कहा

”इन तीनों के मामले में सरकार की इच्छा सिर्फ ये है कि हिन्दू-मुसलमान के नाम और कैसे ध्रुवीकरण किया जाए। उनके बीच कैसे दरार बढ़ाया जाए ये उनकी मंशा है। हमें उत्तरप्रदेश में भाजपा की सरकार के साम्प्रदायिक मंसूबो को देखा जाए। दरअसल ये सरकार जीवन से जुड़े मुद्दों मसलन बेरोजगारी, मजदूर कानून में किये जा रहे परिवर्तनों से ध्यान भटकाने के लिए ये सब मुद्दे उठाए रहे हैं ताकि विकास के काम पर ध्यान न देना पड़े। जिस देश का प्रधान मंत्री और गृहमन्त्री दोनों झूठ बोलता हो, जो गोयबल्स के इस सिद्धान्त ओर भरोसा करता हो कि एक झूठ सौ दफा दुहराओ तो वो सच बन जाता है। ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है। अब उम्मीद देश के नए संघर्ष करने वाले छात्रों से है जो आज हमें रास्ता दिखा रहे हैं। जे.एन. यू के वामपंथी छात्रों और नकाबोपोश गुंडों ने हमला किया और देखिये की उन्हीं छात्रों पर एफ.आई.आर भी कर दिया गया है।"

पटना विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त प्रोफ़ेसर एस. के गांगुली ने अपने सम्बोधन में कहा

”पूरी दुनिया में भारत की बदनामी हो रही है। भारत जो एक सेक्यूलर देश रहा है, लोकतंत्र रहा है इसी के कारण यहां का इतना विकास हुआ लेकिन उन सबको आज तबाह किया जा रहा है। सीएए के माध्यम से जनसँख्या के अनुपात को ये बदलकर चुनावी लाभ लेना चाहते हैं। बहुत सारे रिटार्यड ब्यूरोक्रेट ने कहा कि सीएए के बदले लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य दो। ये तो आज सावरकर और जिन्ना के दो राष्ट्रवाद के सिद्धांत को आगे बढ़ाना चाहते हैं।"

विचार विमर्श को नूर हसन, संजय श्याम, अरुण सिंह, नारायण पूर्वे, एटक के उमहासचिव ग़ज़नफर नवाब , मोहन प्रसाद ने भी सम्बोधित किया।

सभा की अध्यक्षता वयोवृद्ध मजदूर नेता चक्रधर प्रसाद सिंह ने की।

सभा में शहर के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता आदि उपस्थित थे। प्रमुख लोगों में राजकुमार शाही, प्राच्य प्रभा के सम्पादक विजय कुमार सिंह, इंद्रदेव, सुमन्त शरण, हरदेव ठाकुर, रमाकांत, अनीश अंकुर, कपिलदेव वर्मा, डी. पी यादव, अक्षय कुमार, आशीष रंजन, कुलभूषण गोपाल, विजयकांत सिन्हा , अंकित,  पुष्पेंद्र शुक्ला, आनंद कुमार, तारकेश्वर ओझा आदि मौजूद थे।

विचार विमर्श का संचालन युवा रंगकर्मी जयप्रकाश ने किया।

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