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पत्रकारिता की दयनीय हालत के लिए पत्रकार भी कम दोषी नहीं

जानिए स्वाधीनता संघर्ष में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका क्या है

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गोदी मीडिया और पप्पू मीडिया की हरकतों को देखते हुए पत्रकारिता की गिरती हालत पर रोज चर्चा (Discussion on the deteriorating condition of journalism) होती है। लेकिन यह गिरावट एक दिन में नहीं आ गई है न एक दिन में पत्रकारिता की मौत हुई है। पत्रकारिता की गिरावट के कारणों की समीक्षा (A review of the reasons for the decline of journalism) कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार पलाश विश्वास...

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पत्रकारिता की इस हालत के लिए पत्रकार भी कम दोषी नहीं। जैसे सरकारी प्रतिष्ठानों के निजीकरण के लिए सरकार से ज्यादा दोषी अफसर और ट्रेड यूनियनें हैं।

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चालीस साल तक मैंने रोज अखबार निकाले। 25 साल तो जनसत्ता में बीता दिए। हमने पत्रकारों और गैर पत्रकारों में कभी भेदभाव नहीं किया।

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मालिकान और मैनेजमेंट को मुझसे हमेशा यही शिकायत रहती थी कि मैं गैर-पत्रकारों की आवाज क्यों उठाता रहा हूँ।

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कल उपकार प्रेस में जाकर बहुत दिनों बाद गैर पत्रकारों के साथ काम करते हुए पुरानी यादें सिलसिवार लौट आईं।

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अखबारों के आधुनिकीकरण और ऑटोमेशन ने समूचा परिदृश्य बदल दिया

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नब्वे के दशक में शुरू हुए अखबारों के आधुनिकीकरण (modernization of newspapers), तकनीकी क्रांति और ऑटोमेशन (Technological revolution and automation) से पहले अखबारों में पत्रकारों की तुलना में गैर पत्रकारों की संख्या ज्यादा थी।

मीडिया बन गया सत्ता का भोंपू

जब अक्टूबर 1991 में कोलकाता से जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ, तो पेज बनाने के लिए कोलकाता आर्ट कालेज के पोस्ट ग्रेजुएट आर्टिस्ट थे। सम्पादकीय के बराबर कम्पोजिंग विभाग था। कैमरा और प्रोसेसिंग के विभाग अलग थे। 5 प्रूफ रीडर थे। स्ट्रिंगर 350 थे। सम्पादकीय में 60 लोग थे। प्रेस और सर्कुलेशन में लोग मार्केटिंग और विज्ञापन विभाग से ज्यादा थे।

अब सम्पादकीय में कही कोई स्थायी सम्पादक नहीं है और मीडिया सत्ता का भोंपू बन गया।

छंटनी और वीआरएस शुरू हुआ तो तमाम विभाग बन्द होने लगे। सम्पादकों को कम्प्यूटर दे दिया गया कि वे खुद पेज बनायें, कम्पोजिंग करें और विज्ञापन सेट करें। इस पर मेरा मैनेजमेंट से तू-तू मैं-मैँ हो गयी। हमारा कहना था कि हम सम्पादक हैं तो गैर पत्रकारों के काम हम क्यों करें?

उस वक्त पत्रकारों के वेतन बढ़ रहे थे और गैर पत्रकार निकाले जा रहे थे। पत्रकारों ने कोई विरोध नहीं किया। पत्रकार यूनियनें भी तमाशा देखती रहीं।

कोलकाता में तो प्रेस क्लब में सिर्फ रिपोर्टर होते थे, सम्पादकीय डेस्क के लोग नहीं। यूनियनों पर भी रिपोर्टरों का वर्चस्व था। हम कहते रह गए कि अब गैर पत्रकार निकाले जा रहे हैं, फिर पत्रकारों की बारी है।

राजनीतिक सम्पर्कों के कारण मैनेजमेंट रिपोर्टरों को सम्पादकों की तुलना में ज्यादा भाव देने लगा। बाद में वे ही पहले सम्पादक और फिर राजनेता बन गए। जिनमें कई तो अरबपति बन गए।

हुआ भी यही, गैर पत्रकारों की छंटनी के बाद प्रेस की कर्मचारी संख्या कम हो गयी, ऑटोमेशन के नाम पर पत्रकारों की छँटनी शुरू हो गयी।

अलग-अलग संस्करणों के लिए अलग-अलग वेतन। शुरुआत में हमें प्रोफेसरों से ज्यादा वन ए का वेतनमान मिलता रहा जो घटकर चतुर्थ श्रेणी का रह गया। एक-एक करके पत्रकार भी विदा किये जाने लगे।

सबसे पहले स्ट्रिंगरों की छुट्टी हो गयी। फिर अलग-अलग स्टेशनों के पत्रकारों की। आखिर में डेस्क के लोगों की, उनकी भी जो मैनेजमेंट के पिट्ठू थे।

आपको याद होगा कि जब दिल्ली इंडियन एक्सप्रेस में हड़ताल हुई तो किस तरह सम्पदकीय के हमारे साथियों ने, क्रांतिकारी लेखकों और कवियों ने मैनेजमेंट का साथ देकर हड़ताल तोड़ी और पुरस्कृत भी हुए।

सरकारी प्रतिष्ठानों में भी यही हुआ। अफसरों के वेतन, सुविधाओं में निजीकरण से पहले बेतहाशा वृद्धि हुई।

ट्रेड यूनियन के नेताओं को काम न करने की छूट दे दी गयी और उन्हें परिवार के साथ विदेश यात्रा पर भेज दिया जाता रहा।

हड़ताल होती थी और नेता अंदर जाकर समझौते पर दस्तखत करके विदेश यात्रा पर निकल जाते थे।

कर्मचारियों की संख्या घटाने के बाद इन सभी संस्थाओं में बिना प्रतिरोध विनिवेश और निजीकरण, ऑटोमेशन सम्पन्न हो गया तो अफसरों और नेताओं की भी शामत आ गयी।

यह कुदरत का करिश्मा रहा कि मैनेजमेंट को हमें निकालने का कोई मौका नहीं मिला और न हमने दिया।

अगर अखबारों में ग़ैर-पत्रकार बने रहते तो संविदा पत्रकारिता, मैनेजमेंट का राज, सम्पादकीय का खात्मा और पत्रकारीता की रीढ़ तोड़ना उतना आसान भी न होता।

अब लिखने का कोई फायदा नहीं है। लेकिन हमारे पुराने क्रांतिकारी साथी थोड़ी आत्मालोचना कर लें तो बेहतर। इसीलिए लिख रहा हूँ।

आनंद स्वरूप वर्मा दिल्ली जर्नलिस्ट यूनियन के नेता थे और आदरणीय लोगों कि भूमिका पर उन्होंने लगातार लिखा भी है। उनका पुराने लेखों को पढ़ लें। ऑपरेशन ब्लू स्टार की पत्रकारिता से शुरू करें तो इस ग्रेट फॉल का अंदाज़ा लग जायेगा।

पलाश विश्वास

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