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Do not play with the army, do not Hinduize the army
फ़ौज से मत खेलिए। फ़ौज का हिन्दुत्वकरण (Hinduisation of Army) मत कीजिये। इसके क्या नतीजे हो सकते हैं, दूर जाने की जरूरत नहीं है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के इतिहास को देख लीजिये।
चीखी कौआ ब्रिगेड फौज के राजनीतिक इस्तेमाल और हिन्दुत्वकरण का महिमामंडन राष्ट्र प्रेम के नाम पर कर रहा है। ये वे ही लोग हैं जो देश को सेना के हवाले करने के पक्ष में हैं, जनता के सैन्य दमन (Military repression of the public) का खुलकर समर्थन करते हैं। विकास के लिए आदिवासियों का सफाया जरूरी मानते हैं। कश्मीर और उत्तरपूर्व में सैन्य दमन का समर्थन करते हैं।
ये वे ही लोग हैं जो चीख-चीख कर ऑपरेशन ब्लू स्टार (Operation Blue Star) का समर्थन कर रहे थे। ये लोग मार्शल लॉ के भी समर्थक हो सकतें हैं।
ध्यान दें कि बांग्लादेश की फ़ौजी हुकूमतें बांग्लादेश को इस्लामी राष्ट्र बनाने की कोशिशें करती रहीं और वहां लोकतांत्रिक ताकतों ने हजारों कुर्बानियों के बदले लोकतन्त्र को बहाल रखा है।
पाकिस्तान में कहने को लोकतंत्र है, लेकिन वहां हमेशा राजकाज सेना का रहा है और पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र है। म्यांमार में सैन्य शासन और बौद्ध राष्ट्र है, जिसका गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म से कोई नाता नहीं है।
तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद भारत एक लोकतांत्रिक देश है। इसीलिए हर संकट का हमने सामना किया है और इसके लिए सेना के हस्तक्षेप या राजनोति के लिए सेना के इस्तेमाल या सेना के हिन्दुत्वकरण से परहेज किया है।
दूसरे चरण के लॉकडाउन के बाद लॉकडाउन से कोमा में गये देश को सामान्य हालात में लाने के लिए पूरा देश अपने नेता के दिशा निर्देश का इंतज़ार कर रहा था।
सेनाध्यक्षों की अभूतपूर्व प्रेस कांफ्रेंस के साथ हमें गृह मंत्रालय का गाइड लाइन मिला।
बांग्लादेश का युद्ध हो या आपरेशन ब्लू स्टार, 1962 और 1965 की लड़ाइयां हों या बाबरी विध्वंस, उत्तर पूर्व का उग्रवाद हो या आपातकाल, या फिर श्रीलंका में सैन्य हस्तक्षेप,1962 से भारत के इतिहास की हर घटना पर मेरी नजर रही है। हमने कभी सेनाध्यक्षों को प्रेस को सम्बोधित करते नहीं देखा। आपने देखा है?
संविधान के मुताबिक तीनों सेनाओं का सुप्रीम कमांडर भारत के राष्ट्रपति हैं और सेनाएं संसद के प्रति जवाबदेह है। सेना फैसला नहीं करती, संसदीय नेतृत्व फैसला करता है।
इतिहास,परम्परा, लोकतंत्र और संविधान के विपरीत इस कोरोना महामारी के बीच सबसे ज्यादा प्रभावित मुंबई के अरब सागर में नौ सेना के युद्धक पोतों में दीवाली का यह अश्लील नज़ारा कोरोना योद्धाओं का समर्थन है या अरबसागर से वाया टीवी पर नौसेना का राष्ट्रीय फ्लैग मार्च, जनता के समक्ष सैन्य शक्ति का प्रदर्शन, वायु सेना की पुष्पवृष्टि है या यह जतलाना कि आसमान से जनता को काबू में रखा जा सकता है। या शोर के लिए मना असपतालों मे सेना का बैंडबाजा जनविद्रोह के खिलाफ युद्ध घोषणा है।
आप इन सवालों पर चिंतन मन्थन किसी राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं, भारतीय सम्प्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य के एक स्वतन्त्र नागरिक की तरह टीवी को साइलेंट मोड में रखकर करें।
यकीन मानिए, हालात बेहद खराब हैं।
भारत ही नहीं, दुनिया के सभी देशों, समूची मनुष्यता, सभी धर्मों, सभी सभ्यताओं के लिये हालात बहुत खराब है। अमेरिका की खोज के बाद पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में इनका और माया सभ्यताओं के विनाश और अश्वेतों के कत्लेआम के लिए चेचक और हैजा फैलाकर मनुष्यता, धर्मों और सभ्यताओं, संस्कृतियों, इतिहास और भूगोल के खिलाफ जिस निरन्तर महायद्ध की शुरुआत करके तकनीक और विज्ञान के पंखों का युद्धक इसतेमाल करते हुए मनुष्यता, पृथ्वी और सभ्यताओं को उपनिवेश बनाने का ग्लोबल विध्वंस शुरू किया, आज वह महाप्रलय बनकर उपस्थित है।
यह क्रान्तिकाल है। दुनिया सिरे से बदलेगी या दुनिया खत्म हो जाएगी। मुक्तबाजार का तिलिस्म टूटेगा। असमानता और अन्याय के खिलाफ निर्णायक युद्ध होगा। मुक्त बाजार की विश्व व्यवस्था, असमानता, अस्पृश्यता और अन्याय के बदले मनुष्यता और सभ्यता, संस्कृतियो की बराबरी की इंसानी व्यवस्था बदलेगी।
जनरल रावत को सुमन की पाती, सब्जी विक्रेताओं के ऊपर पुष्प वर्षा कराएं क्योंकि
इस परिवर्तन को रोकने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नस्ली विश्वव्यवस्था के उपनिवेशों के तमाम हुक्मरान अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम करोड़ों गरीबों, किसानों, मजदूरों, अश्वेतों, गैर नस्ली लोगों, दलितों, पिछड़ों के योजनाबद्ध नरसंहार के लिए सेना का इस्तेमाल कर रहे हैं।
भारत के वस्तुवादी विश्लेषण शायद धार्मिक राजनीतिक पूर्वाग्रहों के कारण असम्भव है, इसलिए पहले खाड़ी युद्ध से अब तक मैं लगातार अमेरिका का आईना सामने रख रहा हूँ, अमेरिका से सावधान कह रहा हूँ ताकि हम अपने को अमेरिका होने से बचा सकें।
फौजी हुकूमत के सिवाय कहीं भी सेना प्रेस को सम्बोधित नहीं करती। अमेरिका के किसी राष्ट्रपति ने इसकी नौबत आने नहीं दी। रूस, चीन और तमाम कम्युनिस्ट देशों में भी ऐसा नहीं हुआ। इसलिए इस अजूबे पर सोचने की जरूरत है।
पलाश विश्वास,
कार्यकारी संपादक प्रेरणा अंशु
दिनेशपुर।
बसंतीपुर में घर से।