Advertisment

डॉ राम मनोहर लोहिया और वर्तमान किसान आंदोलन

author-image
Guest writer
12 Oct 2021
New Update
बेचैन दुनिया को नई संस्कृति, नए विचार देने वाले डॉक्टर लोहिया आज भी प्रासंगिक

Advertisment

Dr. Ram Manohar Lohia and the current farmers' movement : Vijay Shankar Singh

Advertisment

यदि आज डॉ लोहिया जीवित होते?

Advertisment

कल्पना कीजिए, यदि आज डॉ लोहिया जीवित रहते तो, साल भर से हो रहे किसान आंदोलन में, उनकी क्या भूमिका रहती। लोहिया को जानने वाले और उस कुजात गांधीवादी के लेखों, भाषणों का अध्ययन करने वाले एकमत से यही कहते कि, वे उस आंदोलन के साथ खड़े नजर आते। और यदि लोहिया या उनकी पार्टी सरकार में होती तो सरकार को इतना समय ही नहीं देते कि, वह इस आंदोलन की इतनी उपेक्षा करती, बल्कि या तो, वह अपनी सरकार को किसानों से संवाद करने के लिये बाध्य कर देते या किसानों की बात न माने जाने पर, वह अपनी ही सरकार गिरा देते। 'सुधरो या टूटो'। या तो सरकार, जनहित के मुद्दे पर चलाओ या फिर, दफा हो जाओ।

Advertisment

जनता सर्वोपरि है, जनहित सर्वोच्च है। जनता ही जनार्दन है, महज़ एक जुमला नहीं रहता, वह हकीकतन भी ज़मीन पर उतरता और राज्य का मुख्य दायित्व, कि वह लोककल्याणकारी पथ पर ही चले यह वे सुनिश्चित करते।

Advertisment

जब अपनी पार्टी की सरकार से ही समर्थन वापिस ले लिया था डॉ लोहिया ने

Advertisment

यह महज कल्पना नहीं है। ऐसा डॉ लोहिया ने किया भी है। उन्होंने एक बार, छात्रों के एक आंदोलन में, उन पर गोली चलाये जाने को लेकर, केरल की अपनी ही पार्टी के समर्थन से, चल रही थानुपिल्लै की सरकार से, अपना समर्थन वापस ले लिया था। सरकार भी गिरी और पार्टी भी दो फांक हो गयी। पर लोहिया ने इस सिद्धांत से समझौता नहीं किया कि, किसी भी जनांदोलन पर सरकार की पुलिस द्वारा गोली नहीं चलाई जानी चाहिए। अपनी ही जनता पर कोई सरकार भला गोली कैसे चला सकती है?

Advertisment

'ज़िंदा कौमें 5 साल इंतज़ार नहीं करतीं', ऐसा डॉ लोहिया ने हमें सिखाया

डॉ लोहिया भीड़ नियंत्रण के अन्य उपचार आजमाए जाने के पक्ष में थे, पर निहत्थे प्रदर्शकारियों पर, गोली चलाये जाने के पक्ष में तो डॉ लोहिया कदापि नहीं थे। किंतु डॉ लोहिया न तो आज जीवित हैं और न ही उनके सिद्धांत पर चलने का दावा करने वाली राजनीतिक पार्टियां उनके सिद्धांतों के प्रति सजग या सचेत हैं। पर जब-जब कोई बड़ा जन आंदोलन, जन सरोकारों को लेकर उभरता है तो, डॉ लोहिया के कथन बरबस लोगों की ज़ुबान पर आ जाते हैं, कि 'ज़िंदा क़ौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं हैं' और यदि 'सड़के सूनी हो जाय तो संसद आवारा हो जाती हैं।

यदि 2014 के बाद से संसदीय व्यापार का अध्ययन करें तो आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि, इन सात सालों में संसद ने अपनी भूमिका का निर्वाह, बस सरकार की हां में हां मिलाने तक ही, सीमित कर रखा है। किसी भी महत्वपूर्ण विषय पर, चाहे वह नोटबंदी हो, या लॉकडाउन, या अनुच्छेद 370 के संशोधित करने का मामला, या नागरिकता संशोधन विधेयक या, श्रम कानूनों में तब्दीली या, बड़ी संख्या में हो रही सरकारी संपदा की बिक्री या, फिर हाल ही में पारित हुए, कृषि सुधार के नाम पर तीनों कृषि कानून, सांसदों ने खुल कर अपनी बात नहीं रखी। विपक्ष ने अपनी बात रखी भी तो, सदन के सभापति ने उनको हतोत्साहित किया और वे कुछ मौकों पर तो, निर्लज्जता के साथ सरकार की तरफ खड़े नजर आए। उदाहरण के लिये किसान कानूनों के राज्यसभा में बहस के दौरान, उपसभापति हरिवंश जी की भूमिका का आप स्मरण कर सकते है। विडंबना यह भी है कि हरिवंश जी लोहिया के ही शिष्य माने और जाने जाते हैं !

2014 के बाद राजनीति में जो सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बदलाव आया है, वह है विरोध की राजनीति या विपक्ष की भूमिका को, देशद्रोह के रूप में देखना। सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध, सरकार के प्रधानमंत्री का लोकतांत्रिक विरोध न मान कर उनके विरोध को ईशनिन्दात्मक स्वरूप से देखने की मनोवृत्ति 2014 के बाद जानबूझकर समाज में फैलाई गयी और यह सब यकायक नहीं हुआ, बल्कि यह सब सोच समझकर किया गया। यह इसीलिए किया गया कि लोग विपक्ष की भूमिका पर बहस (Debate on the role of the opposition) ही न करें और लोकतंत्र में उसका क्या स्थान है, और लोकतांत्रिक व्यवस्था, बिना विपक्ष के लोकतांत्रिक ही नहीं रह सकती, जैसी बातें अपने दिमाग मे न लाएं। जानबूझकर लोगों के दिमाग में यह भरा जाने लगा कि, देश की तरक़्क़ी में विपक्ष बाधक बन रहा है और पिछले सत्तर सालों में देश ने कोई प्रगति नहीं की है, और जब एक अठारह-अठारह घन्टे काम करने वाला प्रधानमंत्री, देश के विकास में जुटा है तो, विपक्ष अड़ंगेबाजी कर रहा है। पर जैसे ही यह सवाल सरकार और सरकार के समर्थकों से पूछा जाता है कि, इन सात सालों की क्या उपलब्धि रही है, तो बजाय उपलब्धियां गिनाने के वे विपक्ष को ही कठघरे में खड़ा करने लगते हैं।

यह प्रवृत्ति न तो लोकतांत्रिक है और न ही, भारत के स्वाधीनता-बाद के इतिहास में पहले कभी रही है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद और विपक्ष की क्या भूमिका होती है, इसे 1963 से लेकर 1967 तक की संसदीय बहसों पर संकलित 17 खंडों की किताब, लोकसभा में लोहिया पढ़ कर जाना जा सकता था। ऐसा भी नहीं था कि डॉ लोहिया इकलौते सांसद थे जो सरकार की धज्जियां उड़ा देते थे। विपक्ष के और दलों में भी श्रेष्ठ सांसद थे,  बल्कि ट्रेजरी बेंच पर भी बैठे कुछ सांसद सरकार के खिलाफ कुछ मुद्दों पर खुल कर बोलते थे या मुखर रहते थे। मक़सद था सदन में प्रस्तुत, मुद्दे पर जनता का पक्ष रखना और सरकार को पटरी से उतरने नहीं देना।

विपक्ष की भूमिका क्या होती है? What is the role of the opposition?

सरकार स्वभावतः अधिकार के मद में रहती है, चाहे जो भी सरकार हो, किसी भी दल की सरकार हो। अधिकार सुख, बड़ा मादक होता भी है। विपक्ष की भूमिका इस मदमस्त सत्ता पर अंकुश लगाने की होती है ताकि सरकार जिन वादों पर चुनकर सत्ता में आयी है, उसे पूरा करे अन्यथा, उसे वादाखिलाफी करने की सज़ा मिले। विरोध, संसद में भी हो और जब बात बहुत बिगड़ जाय तो विरोध, सड़क पर भी हो। शांतिपूर्ण धरना, प्रदर्शन, सिविल नाफरमानी, जेल भरो आदि जन अभिव्यक्ति के माध्यम हैं, और इन सबके लिये हमारा संविधान भी अनुमति देता है।

आखिर क्या काऱण है कि, भारत जैसे,  लोकतांत्रिक देश में, 11 महीने से किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर हैं, उन्हें, सरकार के समर्थक, कभी अलगाववादी, तो कभी खालिस्तानी और कभी देशद्रोही, कभी डकैत, कभी एसी में आराम फरमाने वाले, कभी आढ़तियों के दलाल कह कर लांछित कर रहे हैं, और सरकार अपने समर्थकों का यह सारा कृत्य देख रही है, पर सिवाय यह कहने के कि, यह कानून कृषि सुधार के लिये लाये गए हैं, कुछ नहीं कर रही है। आज तक वह, किसानों को, यह समझा भी नहीं पा रही है कि, आखिर इन कानूनों से कौन सा कृषि सुधार होगा ?

यह कानून फिलहाल सरकार ने स्थगित कर रखे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इन पर रोक लगा रखी है। 11 दौर की वार्ता भी, सरकार के साथ किसानों की हो चुकी है। पर सरकार हर वार्ता में यही स्टैंड लेती है कि, कानून वापस नहीं होगा, और कोई कमी हो तो बताया जाए। ऐसा लगता है कि यदि कानून, सरकार ने वापस ले लिया तो, उसकी शामत आ जायेगी और वह किसी बाहरी दबाव की नाराजगी मोल लेने की स्थिति में नहीं है। वह कौन है जिसका सरकार पर इतना तगड़ा शिकंजा है कि, सरकार 1947 के बाद अब तक के सबसे बड़े शांतिपूर्ण जन आंदोलन को नजरअंदाज कर रही है ?

क्रोनी कैपिटलिज्म क्या है? What is crony capitalism?

सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर न केवल किसान विरोधी कानून ही बनाये हैं, बल्कि लम्बे समय से चले आ रहे प्रगतिशील श्रम कानूनों को भी बदला है। उन्हें भी सुधार का ही नाम दिया गया। पर कृषि सुधार हो या श्रम सुधार, इन पर बनाये जा रहे कानून आखिर, सुधार किसका करने जा रहे हैं, यह बात भी सरकार को बतानी चाहिए और जनता द्वारा सरकार से पूछा जाना चाहिए। 2014 के बाद बनने वाले किसी भी कानून को, जनता या उस कानून से प्रभावित होने वाले समूह ने न तो सरकार से मुखर होकर कोई सवाल पूछा और न ही वे सड़को पर उतरे।

मीडिया तो सरकार के प्रोपेगैंडा और गोएबलिज़्म का विस्तार (extension of goebbelism) है ही, तो वह सरकार से यह सवाल पूछने से रही। थोड़ी बहुत सुगबुगाहट सोशल मीडिया पर दिखी तो, आईटी सेल के झुठबोलवा गिरोह को उनके पीछे ट्रोल करने के लिये लगा दिया गया। न तो संसद में कोई हंगामा हुआ, और न ही सड़कों पर ही कोई बहुत विरोध हुआ। जनता की इस चुप्पी ने लोकतांत्रिक कलेवर में छुपे सरकार के फासिस्ट चेहरे को और विद्रूप बना दिया। सरकार निश्चिंत थी कि वह एक के बाद एक जनविरोधी कानून बनाती जाएगी, अपने चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाती जाएगी, अभिव्यक्ति के अधिकार (right of expression) पर, कानूनों का दुरूपयोग कर के बंदिशें लगाती जाएगी, जो विरोध करेगा, उसे पाकिस्तानी, खालिस्तानी, तालिबानी आदि शब्दों से हतोत्साहित करती जाएगी, और अंततः वह एक ऐसा डरा हुआ समाज और जनमानस बना देगी कि जनता न तो उठने का और न ही सवाल करने का साहस कर सकेगी। फिर जो शातिर गठजोड़ होगा, वह सत्ता में भी बैठे कुछ खास लोगों का कुछ खास पूंजीपतियों का होगा, जिसे अर्थशास्त्र में क्रोनी कैपिटलिज़्म या गिरोहबंद पूंजीवाद के नाम से जाना जाता है। इसे सरल भाषा मे आप, 'हम दो हमारे दो' कह सकते हैं !

जनचेतना को जानबूझकर कर कुंद करना, धर्मांधता की अफीम चटा कर समाज को उसके पिनक में मदहोश किये रहना, सरकार के विरोध और व्यवस्था के लोकतांत्रिक प्रतिरोध को देशविरोधी कृत्य कह कर के लांछित करते रहना, जनांदोलनों के समृद्ध इतिहास के बजाय इतिहास के उन मुद्दों को बार बार, सन्दर्भ से अलग हट कर उद्धरित करना और जनता की आवाज़ को अराजकता के रूप में प्रचारित करना, यह सरकार, सत्तारूढ़ दल और इनके थिंकटैंक आरएसएस का सोचा समझा एजेंडा है, जिसे 2014 से वे, लागू कर रहे हैं। इसका उद्देश्य तो वे, हिंदू स्वाभिमान को जाग्रत करना बताते हैं, पर असल मुद्दा है एक बर्बर गिरोही पूंजीवादी निज़ाम की स्थापना, और प्रतिरोध के सभी स्वरों का गला घोंट कर एक यूरोपियन फासिस्ट मॉडल के राज्य की स्थापना करना है।

आप संघ का इतिहास पढ़ें, उसका आदर्श ही बीसवीं सदी के यूरोपीय फासिस्ट देश और नेता रहे हैं। आरएसएस के किसी भी विचारक या प्रचारक को आप कभी भी मुसोलिनी, हिटलर और उसके तंत्र के खिलाफ लिखते पढ़ते बोलते नहीं पाइयेगा। वे हिटलर के नस्ली श्रेष्ठतावाद के सिद्धांत के आज़ादी के पहले भी पैरोकार थे, अब भी हैं। पर मुलम्मा वे धर्म और नीति का चढ़ाए रखते हैं। ज़रा सा कुरेदियेगा तो मुखौटा उतर जाएगा। अटल बिहारी वाजपेयी के, कुछ उदारवादी कदमों को, कभी, यूं ही मुखौटा नहीं कहा गया था।

जब संगठित श्रमिक वर्ग, द ग्रेट मिडिल क्लास, और बेरोजगारों की बढ़ती फौज, यह सब या तो देख रही थी, या यदा कदा संगठित होकर एकजुट कहीं कहीं हो रही थी, और 2016 की नोटबन्दी के बाद, घटते रोजगार, ढहती अर्थव्यवस्था, दिन प्रति दिन बढ़ती महंगाई, कोढ़ में खाज की तरह आने वाली महामारी जन्य विपत्तियों से परेशान थी, लेकिन सरकार अपने चहेते पूंजीपतियों के हक़ में कानून पर कानून बनाये जा रही थी। बैंकों के एनपीए बढ़ रहे थे, बैंक डूबने लगे, एक एक कर के सारी सम्पदा बिकने लगी, पेट्रोल और डीजल की कीमतें अतार्किक रूप से बढ़ने लगीं, पर न सरकार ने इनका उत्तर दिया और न ही जनता सड़को पर उतरी। जब कहीं विरोध नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं तो सरकार और उसका थिंकटैंक अपने एजेंडे पर निर्द्वंद पशु की तरह चलने लगा। हम एक ऐसे समाज में शनैः-शनैः रूपांतरित होने लगे तो डरा, सहमा और चुप्पा समाज बन गया। ऐसे समाज में लोकतंत्र लंबे समय तक जीवित नहीं रहता है। उसे भी जीवित रहने के लिये जनचेतना, तार्किक और अपने अधिकारों के लिये सजग, सतर्क तथा सचेत समाज चाहिए।

नैराश्य के इस वातावरण में 27 नवम्बर 2020 से किसानों का एक आंदोलन शुरू हुआ जिसने शुरू में तो अनेक आशंकाएं जगाईं पर धीरे-धीरे वह मज़बूत और वयापक होता चला गया। इस आंदोलन को भी लांछित किया गया, इसे भी विदेशी षडयंत्र का परिणाम बताया गया, पर तमाम आक्षेप के बावजूद भी आज तक सरकार और उसके समर्थक इस बात का उत्तर नहीं दे पाए कि किसानों को उनकी उपज की कीमत क्यों नहीं मिलती हैं, गन्ने के बकाया दाम समय पर क्यों नहीं मिलते हैं, हर रोज़ देश में कहीं न कहीं से किसानों की आत्महत्या की खबरें क्यों आती हैं, पूंजीपतियों के अरबो रुपये के ऋण बैंक सरकार के इशारे पर एनपीए कर देते हैं, वही बैंक, किसानों के ऋण पर निर्मम शायलाक क्यों बन जाते हैं, ₹ 2000 किसान सम्मान निधि की सहायता किसानों का सम्मान और सरकार की उपलब्धि क्यों है, जब सरकार का एक करीबी पूंजीपति 100 अरब डॉलर के क्लब में शामिल हो जश्न मनाता है और दूसरा ₹1002 हज़ार रोज कमाता है तो 80 करोड़ आबादी मोदी छाप झोले में 5 किलो राशन लिए क्यों भटक रही है ? क्या यह सवाल सरकार, भाजपा और इन सबकी नकेल अपने हाथों में रखने वाली संस्था आरएसएस से नहीं पूछा जाना चाहिए ? इस पर भी सोचियेगा।

What is privatization or disinvestment?

डॉ लोहिया ही नहीं, आज की स्थिति में सन 60, 70, 80 के विपक्षी नेता भी होते तो वे किसानों के साथ खड़े नजर आते। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि द ग्रेट मीडिल क्लास जो बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से सबसे अधिक परेशान है, वह भी पूंजीपतियों की बढ़ती पूंजी के जश्न में शामिल है, जबकि सबसे अधिक उसे ही, इस बढ़ रही सामाजिक और आर्थिक विषमता का नुकसान उठाना पड़ रहा है और भविष्य में भी पड़ेगा। किसानों का यह आंदोलन अब जनआंदोलन बन चुका है। इसका मुख्य मुद्दा भले ही तीन कृषि कानूनों का निरस्तीकरण और एमएसपी पर कानून बनाने तक ही सीमित हो, पर यह आंदोलन इस अंधेरे में एक राह की तरह सामने आया है। सरकार की कोई भी आर्थिक नीति नहीं है। बस एक ही नीति है, सब बेच दो। हड़बड़ाहट में बेचो और शायद, बेचबाच कर, भाग जाओ। इसे डिस्ट्रेस सेल कह सकते हैं। निजीकरण या विनिवेशीकरण है क्या, इसका क्या लाभ जनता को मिलेगा, इसकी कोई स्पष्ट नीति न तो सरकार के पास है और न ही नीति आयोग के पास। उनके पास बस एक सूची तैयार है कि कब कब, क्या क्या, बेचना है। और इसे प्रचारित करने और 'थैंक यू मोदी' कहने के लिये मूर्खोx की फौज तो है ही।

अक्सर यह कहा जाता है कि, अमुक बात पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। मेरा स्पष्ट मत है कि शासन सत्ता की हर नीति पर राजनीति की जानी चाहिए। 700 किसान मर गए, 11 महीने से शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहा है, किसानों में रोष है, तो इस पर राजनीति क्यों नहीं होनी चाहिए ? जो कानून सरकार बना रही है, संसद से पास हो रहा है, कानून का ड्राफ्ट राजनीतिक विचारधारा के आधार पर बनी हुयी पार्टी तैयार कर रही है, संसद में बहस हो रही है, क्या यह सब राजनीतिक व्यापार नहीं है ?

जब यह सब राजनीति के अंग हैं तो,  इनके विरोध में राजनीति और राजनीतिक दलों को क्यों दूर रहना चाहिए। विपक्ष के राजनीतिक दलों ने अपना मुख्य काम जनजागरण और सरकार के जनविरोधी रवैय्ये पर सड़कों पर उतर कर, बोलना छोड़ दिया है और यह मान लिया है कि जिसका मुद्दा हो वह बोले, या सड़को पर उतरे। फिर वे किस जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की बात करते हैं?

सरकार भी, सड़क पर उतरने से ही असहज होती है और उसकी असहजता साफ दिखती भी है। वह पिटीशन, खुले पत्रों, ट्विटर और सोशल मीडिया के हंगामे से नहीं घबराती है। लेकिन पर बैठी हुयी भीड़, उसे कुछ सोचने के लिए बाध्य कर देती है। ब्रिटिश राज भी तभी असहज होना शुरू हुआ जब, गांधी के जनआंदोलन होने शुरू हुए। नहीं तो पिटीशन आदि तो पहले भी दिए जा रहे थे। किसानों ने गांधी जी के इसी मंत्र को अपनाया है और एक ऐसा आंदोलन खड़ा कर दिया है जो आज़ादी के बाद, अब तक इतनी लंबी अवधि तक, कभी चला भी नहीं था।

आज 12 अक्टूबर है, और आज ही के दिन 1967 में डॉ राम मनोहर लोहिया का निधन (Dr Ram Manohar Lohia passes away), दिल्ली के वेलिंगटन नर्सिंग होम, जो अब डॉ राम मनोहर लोहिया अस्पताल है में, 57 वर्ष की आयु में हुआ था।

डॉ लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव आदि के साथ 1937 में कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन (Formation of Congress Socialist Party) किया था। इन सबमे वे आयु में सबसे कम उम्र के थे। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के नायकों में से एक थे। समय के साथ आचार्य नरेन्द्र देव, एकेडमिक जगत में चले गए, जेपी सर्वोदय आंदोलन के साथ जुड़ गए, और डॉ लोहिया, मुख्यधारा की राजनीति (mainstream politics) में रहे। वे जनता के साथ रहे। बकौल डॉ लोहिया, वे गांधीवादी तो थे, पर कुजात गांधीवादी। उनके अनुसार, जेपी विनोवा आदि मठी और सरकार में बैठे गांधी के शिष्य सरकारी गांधीवादी थे !

हालांकि उनका संसदीय जीवन कम था, बस सन 1963 से 67, लेकिन वे सांसद बनने के पहले ही देश के अग्रणी विपक्षी नेताओं में अपना स्थान बना चुके थे। 1967 में जब डॉ लोहिया का अवसान हुआ तो वह देश के सबसे बड़े और जुझारू विपक्षी नेताओं में से एक थे। आज जब देश मेx एक जबरदस्त औऱ व्यापक जनांदोलन चल रहा है तो, उनके द्वारा कहे गए वाक्य, 'ज़िंदा क़ौमे पांच साल इंतज़ार नहीं  करती हैं' और जब सड़कें सूनी हो जाती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है' और भी प्रासंगिक होकर उभरे हैं। संसद का आवारा यानी, दिशाहीन, हो जाना लोकतंत्र की एक गम्भीर त्रासदी है। जनता के मुद्दे पर, न सिर्फ एकजुट होना ज़रूरी है बल्कि सड़क पर उतर कर शांतिपूर्ण प्रतिरोध जताना भी ज़रूरी है। आज किसानों का आंदोलन और भी व्यापक हो रहा है।

आन्दोलनजीविता का परिहास उड़ाने वाले लोग, स्वाधीनता संग्राम में भी जनआंदोलनों के विरुद्ध थे, और वे तत्व आज भी ऐसे जन आंदोलनों को हेय दृष्टि से देखते हैं।

डॉ राम मनोहर लोहिया की पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

विजय शंकर सिंह

लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।

जिलाधीश का पद समाप्त कर देना चाहते ते लोहिया

© विजय शंकर सिंह

Advertisment
सदस्यता लें