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Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved in human rights activities for the last three decades. He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD
हिन्दी में डॉ. राम पुनियानी का लेख- ज्ञानवापी मस्जिद - क्यों उखाड़े जा रहे हैं गड़े मुर्दे?
Dr. Ram Puniyani's article in Hindi - Gyanvapi Masjid: Why are the dead bodies being uprooted?
मीडिया में इन दिनों (मई 2022) ज्ञानवापी मस्जिद चर्चा में है. राखी सिंह और अन्यों ने एक अदालत में प्रकरण दायर कर मांग की है कि उन्हें मस्जिद में नियमित रूप से श्रृंगार गौरी, हनुमान और गणेश की पूजा और अन्य धार्मिक कर्मकांड करने की अनुमति दी जाए.
इस मस्जिद की बाहरी दीवार पर श्रृंगार गौरी नामक देवी की छवि उत्कीर्ण है. इस आराधना स्थल में रोजाना प्रवेश को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद सुरक्षा कारणों से प्रतिबंधित कर दिया गया था. मस्जिद के आसपास सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी और देवी की पूजा के लिए केवल चैत्र नवरात्रि का चौथा दिन निर्धारित कर दिया गया था.
इस मामले की सुनवाई करते हुए वाराणसी के सिविल जज रविकुमार दिवाकर ने अप्रैल 26, 2022 को एक आदेश जारी कर एडवोकेट कमिश्नर को काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद संकुल में स्थित श्रृंगार गौरी मंदिर व अन्य स्थानों की वीडियोग्राफी करने को कहा.
यह सर्वज्ञात है कि सन् 1991 में संसद ने एक कानून पारित किया था जिसके अनुसार बाबरी मस्जिद को छोड़कर अन्य सभी आराधना स्थलों को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बनाए रखा जाना था.
इसका अर्थ यह है कि ज्ञानवापी मस्जिद काम्पलेक्स में भी यथास्थिति बनी रहेगी. इस कानून के बाद भी न्यायाधीश ने वीडियोग्राफी करवाने का आदेश कैसे दे दिया यह समझ से बाहर है.
अदालत में एक और याचिका भी लंबित है जिसमें यह दावा किया गया है कि काशी (उत्तरप्रदेश में वाराणसी) में स्थित विश्वनाथ मंदिर का ज्योतिर्लिंग ज्ञानवापी संकुल में है.
याचिकाकर्ता का यह दावा भी है कि सन् 1669 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर के एक हिस्से को ध्वस्त कर उस स्थल पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण करवाया था.
याचिकाकर्ता ने अदालत से यह प्रार्थना की है कि वह इस आशय का आदेश जारी करे कि ज्ञानवापी मस्जिद पर मुसलमानों का कोई अधिकार नहीं है और उन्हें वहां प्रवेश करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए.
यह मुद्दा भी भारत के मध्यकालीन इतिहास के साम्प्रदायिकीकरण से जुड़ा हुआ है.
ऐसा बताया जाता है कि औरंगजेब एक धर्मांध शासक था जिसने देश भर में अनेक मंदिरों को ध्वस्त किया. जहां तक काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रश्न है, पट्टाभि सीतारमैया ने अपनी पुस्तक ‘फेदर्स एंड स्टोन्स‘ में यह दावा किया है कि औरंगजेब ने मंदिर को ढहाने का आदेश इसलिए दिया था क्योंकि मंदिर के अंदर कच्छ की रानी, जो औरंगजेब के लश्कर में थीं, की इज्ज्त से खिलवाड़ किया गया था. परंतु अनेक विद्वानों ने इस दावे की सच्चाई पर संदेह जाहिर किया है इसलिए हम पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि डॉ पट्टाभि सीतारमैया द्वारा बताया गया कारण सही है.
एक अन्य इतिहासकार के. एन. पणिक्कर के अनुसार मंदिर में विद्रोहियों के छुपने के कारण औरंगजेब ने उसे गिराने का आदेश दिया था.
डॉ पणिक्कर अपने इस दावे के समर्थन में किसी दस्तावेज का हवाला नहीं देते और ना ही यह बताते हैं कि उनकी जानकारी का स्रोत क्या है. इसलिए घटनाक्रम का यह विवरण भी संदेह के घेरे में है.
परंतु जो बात हम पक्के तौर पर जानते हैं वह यह है कि औरंगजेब ने अनेक हिन्दू मंदिरों, जिनमें कामाख्या (गुवाहाटी), महाकाल (उज्जैन) और वृंदावन का कृष्ण मंदिर शामिल है, को नकद राशि, सोने के आभूषण और जागीरें दान में दीं थीं.
हम यह भी जानते हैं कि औरंगजेब ने गोलकुंडा में एक मस्जिद को ढहाया था.
हमें यह भी पता है कि बादशाह के दरबार में मुसलमानों के साथ-साथ राजा जयसिंह और जसवंतसिंह जैसे कई हिन्दू भी थे. उस समय का सामाजिक-आर्थिक ढांचा इस प्रकार का था जिसमें गरीब किसानों का शोषण हिन्दू और मुसलमान जमींदार दोनों करते थे और सभी जमींदारों को बादशाह के प्रशासनिक तंत्र का सहयोग और समर्थन हासिल रहता था.
दरअसल यह दावा कि मुसलमानों ने केवल हिन्दू मंदिर नष्ट किए और यह कि केवल मुसलमानों ने हिन्दू मंदिर नष्ट किए, दोनों ही ऐतिहासिक साक्ष्यों के प्रकाश में झूठे सिद्ध होते हैं.
कश्मीर के 11वीं सदी के शासक राजा हर्षदेव सहित अनेक हिन्दू राजाओं ने संपत्ति के लिए मंदिरों को लूटा और नष्ट किया. मराठा सेनाओं ने टीपू सुल्तान को नीचा दिखाने के लिए मैसूर के श्रीरंगपट्टनम मंदिर को ध्वस्त किया.
यह मानना एकदम गलत है कि मुसलमान शासकों ने केवल धार्मिक कारणों से मंदिर ढहाए.
सन् 1992 के 6 दिसंबर को हमारा देश बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के भयावह अपराध का गवाह बना. राम मंदिर आंदोलन इस प्रचार पर आधारित था कि सन् 1949 में बाबरी मस्जिद में चमत्कारिक रूप से रामलला की मूर्तियां प्रकट हुईं थीं. वहां ये मूर्तियां किसने रखीं थीं यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है. बाबरी मस्जिद में मूर्तियों की स्थापना को उच्चतम न्यायालय ने अपराध बताया था. राममंदिर आंदोलन इस दावे पर आधारित था कि बाबर ने भगवान राम की जन्मभूमि पर स्थित मंदिर को ढहाकर उसके स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया था.
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद थी वहां पहले कोई मंदिर था इसका कोई साक्ष्य नहीं है.
न्यायालय के अनुसार इस बात का भी कोई सुबूत नहीं है कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था.
अदालतों ने चाहे जो कहा हो परंतु इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि राममंदिर अभियान ने भाजपा व आरएसएस को आशातीत लाभ पहुंचाया. इस आंदोलन के चलते उनके सामाजिक और राजनैतिक रूतबे में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई.
ऐतिहासिक घटनाओं के पीछे अनेक कारक होते हैं. शासकों का मुख्य लक्ष्य अपनी सत्ता को मजबूत करना होता है, अपने धर्म को बढ़ावा देना नहीं.
सभी राजा हर धर्म के गरीब किसानों पर करों का भारी बोझ लादते रहे हैं. इतिहास के साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से पुनर्लेखन (Rewriting History from a Communal Perspective) से ऐसी धारणा बन गई है मानो भारत का मध्यकालीन इतिहास (Medieval History of India) हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अनवरत संघर्ष का इतिहास था. पाकिस्तान में जो इतिहास पढ़ाया जाता है वह यह दावा करता है कि भारत में हिन्दू पूरी तरह से मुस्लिम राजाओं के अधीन थे.
इसके विपरीत, ‘हिन्द स्वराज‘ में महात्मा गांधी लिखते हैं ‘‘मुस्लिम राजाओं के शासनकाल में हिन्दू फूले-फले और हिन्दू राजाओं के राज में मुसलमान. दोनों ही पक्षों को यह अच्छे से पता था कि आपस में लड़ना आत्मघाती होगा और यह भी कि दोनों में से किसी को भी हथियारों के दम पर अपने धर्म का त्याग करने पर मजबूर नहीं किया जा सकता. और इसलिए दोनों ने शांतिपूर्वक एकसाथ रहने का निर्णय लिया. उनके शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में अंग्रेजों ने विघ्न डाला और उन्हें एक-दूसरे से लड़वाना शुरू कर दिया."
इसी तरह जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज' में कहा है कि विभिन्न समुदायों के परस्पर संपर्क में आने से भारत की सांझा संस्कृति का विकास हुआ जिसे वे गंगा-जमुनी तहजीब कहते हैं.
Gyanvapi Masjid issue for communal polarization
भारत की राष्ट्रवादी विचारधारा के विपरीत, साम्प्रदायिक विचारधारा मुसलमानों को विदेशी, मंदिरों को नष्ट करने वाले और तलवार की नोंक पर इस्लाम का प्रसार करने वाले बताती है. साम्प्रदायिक ताकतों का एक निश्चित फार्मूला है. किसी भी भावनात्मक मुददे को उठाओ, उसका उपयोग नफरत फैलाने के लिए करो और फिर प्रायोजित साम्प्रदायिक हिंसा करवाओ. इससे जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता है उसका लाभ इन ताकतों को चुनावों में मिलता है. ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा भी इसी उद्धेश्य से उठाया जा रहा है.
मुस्लिम शासकों द्वारा सैकड़ों वर्ष पूर्व जो किया गया था उसके लिए अत्यंत धूर्तता से आज के मुसलमानों को दोषी ठहराया जा रहा है. साम्प्रदायिक ताकतें जिन मंदिरों को राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में ले आई हैं वे उन मंदिरों से कितने अलग हैं जिनकी परिकल्पना जवाहरलाल नेहरू ने की थी. भाखड़ा नंगल बांध का उद्घाटन करते हुए नेहरू ने उसे आधुनिक भारत का मंदिर बताया था. इसी सोच के चलते भारत में शैक्षणिक व शोध संस्थानों, उद्योगों और अस्पतालों की स्थापना की गई. हमें आज ऐसे ही मंदिरों की जरूरत है.
बरसों पहले राजाओं और नवाबों ने सत्ता की अपनी लिप्सा को पूरा करने के लिए क्या किया था और क्या नहीं किया था, उससे हमें आज क्या और क्यों फर्क पड़ता है?
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिय)
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्माेनी एवार्ड से सम्मानित हैं)