/hastakshep-prod/media/post_banners/vPRI116ig5PQRSAtG3dO.jpg)
देशबन्धु में संपादकीय आज | Editorial in Deshbandhu today
विधानसभा चुनावों के पहले कांग्रेस की अंतर्कलह (Congress conscience) एक बार फिर सामने आ गई है। या कहना चाहिए कि कांग्रेस में रह कर कांग्रेस को खत्म करने की कोशिशों में लगे लोग एक बार फिर पार्टी को कमजोर करने में जुट गए हैं। जिस तरह बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Elections) के ऐन पहले 23 नेताओं के हस्ताक्षर वाली चिट्ठी सोनिया गांधी को भेजी गई थी, कि कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष होना चाहिए और चुनाव होने चाहिए, वैसे ही अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों (Assembly elections of five states) से पहले जी-23 कहलाने वाले नेता फिर एकजुट हुए।
नेकनीयती के पीछे छिपी बदनीयती की पोल खुली
अगस्त में सोनिया गांधी को भेजी गई चिट्ठी में पार्टी को मजबूत करने की जो तथाकथित नेकनीयती दिखलाई गई थी, उसकी पोल तभी खुल गई, जब वह चिट्ठी पार्टी का आंतरिक मसला न होकर सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गई। इस चिट्ठी से परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस को भला-बुरा कहने वालों को आलोचना के नए मौके मिले, हालांकि परिवारवाद आज हर दल का कड़वा सच है। भाजपा भी अब परिवारवाद को बढ़ाने में किसी से पीछे नहीं है।
जी 23 के नेताओं से पूछने का वक्त कि वे किस तरह कांग्रेस के साथ हैं ?
बहरहाल, जी 23 के नेताओं ने इस बार भी कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति को लेकर चिंता जतलाई, लेकिन यह चिंता पार्टी की किसी बैठक में न दिखलाकर सार्वजनिक मंच पर दिखलाई गई। जी 23 के आठ नेताओं ने जम्मू में गांधी ग्लोबल के शांति सम्मेलन (Gandhi Global Peace Conference in Jammu) में कहा कि पार्टी के मौजूदा हालात उन्हें मंजूर नहीं हैं। हालांकि ये भी कहा कि वे कांग्रेस के साथ हैं।
कादर खान ने अपनी किसी फिल्म में इस तरह का एक हास्य दृश्य किया है, जिसमें इशारा किसी और की ओर होता है, लेकिन सामने वाला कहता है कि मैं आपके साथ हूं। इस पर कादर खान पूछते हैं कि ये कैसा साथ है। इस वक्त आजाद एंड कंपनी के लोगों यानी जी 23 के नेताओं से यही पूछने की जरूरत है कि वे किस तरह कांग्रेस के साथ हैं, जबकि उनके सारे दांव भाजपा को लाभ दे रहे हैं।
बेशक कांग्रेस में इस वक्त एक पूर्णकालिक निर्वाचित अध्यक्ष की सख्त जरूरत है। यह भी कड़वी सच्चाई है कि कांग्रेस की स्थिति 2014 के आम चुनावों से अधिक 2019 में बुरी हुई है। लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि इसके लिए केवल गांधी परिवार को दोषी ठहराकर बाकी वरिष्ठ कांग्रेस नेता अपनी जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते। खासकर वे नेता, जिन्होंने सालों साल कांग्रेस की मजबूत स्थिति का फायदा अपने राजनैतिक करियर को बनाने में लगाया है। कांग्रेस के घटते जनाधार का एक बड़ा कारण ये नेता ही रहे हैं, जिन्होंने सत्ता के गुमान में आम जनता से दूरी बनाई और इस खाली जगह को भरने का मौका अपने विरोधियों को दिया। इस तरह कांग्रेस में होकर उन्होंने विरोधियों के लाभ के लिए काम किया।
कांग्रेस के कितने तथाकथित बड़े नेता आज राहुल प्रियंका की तरह काम कर रहे हैं?
एक कड़वा सच ये भी है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को भले राजनीति का नौसिखिया साबित करने की कोशिशें की जाती रही हों, लेकिन कांग्रेस के बुरे से बुरे समय में भी इन दोनों ने लगातार पार्टी के लिए काम किया, लोगों के बीच जाते रहे। कांग्रेस के कितने तथाकथित बड़े नेता आज ये काम कर रहे हैं?
अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में जब कांग्रेस हाशिए पर चली गई थी, तब सोनिया गांधी ने अनिच्छा से ही सही, लेकिन पार्टी को संभाला और लगातार दो बार सरकार उनके नेतृत्व में बनी। जब आनंद शर्मा जम्मू में कहते हैं कि हम बता सकते हैं कांग्रेस क्या है, हम बनाएंगे कांग्रेस को और इसे मजबूत करेंगे। तब ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या खुलेआम अपनी नाराजगी जाहिर कर वे कांग्रेस को मजबूत करेंगे या कोई अलग कांग्रेस बनाएंगे?
इसी तरह कपिल सिब्बल ने कहा कि मुझे यह नहीं समझ आया कि कांग्रेस आजाद के अनुभव को इस्तेमाल क्यों नहीं कर रही है। वे राज्यसभा से आजाद की विदाई पर भी दुखी हैं।
क्या श्री सिब्बल का यही मानना है कि किसी पद या सदन में रहने पर ही किसी के अनुभवों का लाभ लिया जा सकता है?
इंदिरा गांधी के वक्त से गुलाम नबी आजाद कांग्रेस में सक्रिय हैं और केंद्र की राजनीति का लंबा अनुभव और सुख उन्होंने लिया है। क्या अब वे महज वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने के नाते पार्टी को अपनी सेवाएं नहीं दे सकते?
A question is also related to Ghulam Nabi Azad
एक सवाल गुलाम नबी आजाद से भी है। जम्मू में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर उन्होंने कहा कि वे अपनी असलियत छिपाते नहीं हैं। उन्होंने अपने अतीत को कभी नहीं छिपाया। यानी चाय वाला कहकर मोदीजी ने 2014 से देश में खुद को गरीब और फकीर बताने का जो प्रचार अभियान छेड़ा था, आज उसमें आजाद साहब भी शामिल हो गए।
मोदीजी ने अपने चाय बेचने वाले बचपन को जिस तरह प्रचारित किया, क्या उसके राजनैतिक निहितार्थ आजाद नहीं समझते हैं? या दशकों की राजनीति के बाद भी वे इसकी रणनीतियों से नावाकिफ हैं? पिछले साल मार्च में ज्योतिरादित्य सिंधिया में अचानक जनसेवा का जज्बा जगा था और इसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व और भाजपा का मंच उन्हें सर्वाधिक मुनासिब लगा था। क्या आजाद को भी ऐसा ही कोई आत्मज्ञान हुआ है? इस सवाल का जवाब भी शायद जल्द मिल जाए।
आज का देशबन्धु का संपादकीय (Today’s Deshbandhu editorial) का संपादित रूप साभार