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देशबन्धु में संपादकीय आज | Editorial in Deshbandhu today
छत्तीसगढ़ एक बार फिर बड़ी नक्सली हिंसा का शिकार हुआ है। शुक्रवार को सुकमा और बीजापुर के अलग-अलग इलाक़ों से सीआरपीएफ़, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड, स्पेशल टॉस्क फ़ोर्स और कोबरा बटालियन के 2059 जवान नक्सल ऑपरेशन के लिए निकले थे। शनिवार को जवानों की वापसी के दौरान तर्रेम थाना के सिगलेर से लगे जोन्नागुंड़ा के जंगल में नक्सलियों ने सुरक्षाबलों पर हमला बोल दिया (Naxalites attacked security forces) था। नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच करीब साढ़े चार घंटे मुठभेड़ चली, जिसमें 22 जवान शहीद हो गए और कई घायल हैं।
इस मुठभेड़ में बड़ी संख्या में नक्सली भी खत्म हुए हैं। | A large number of Naxalites have also ended in this encounter.
पिछले कुछ बरसों में छत्तीसगढ़ में यह सबसे बड़ा माओवादी हमला माना जा रहा है। इससे पहले 2019 में दंतेवाड़ा के लोकसभा चुनाव में मतदान से ठीक पहले नक्सलियों ने चुनाव प्रचार के लिए जा रहे भाजपा विधायक भीमा मंडावी की कार पर हमला किया था, जिसमें भीमा मंडावी के साथ उनके चार सुरक्षाकर्मी शहीद हुए थे। 24 अप्रैल 2017 को सुकमा ज़िले के दोरनापाल के पास नक्सलियों के हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 25 जवान शहीद हुए थे। 25 मई 2013 को बस्तर के दरभा घाटी में हुए नक्सली हमले में तो कांग्रेस नेताओं की एक पूरी पंक्ति ही खत्म हो गई थी। पूर्व मंत्री, आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा, कांग्रेस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष नंद कुमार पटेल, पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 लोग इस हमले में मारे गए थे। इस घटना ने भाजपा शासन की नक्सल नीति (Naxal policy of BJP rule) पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया था।
आज एक बार फिर वैसी ही स्थिति आ खड़ी हुई है। तब केंद्र में कांग्रेसनीत यूपीए की और राज्य में भाजपा की सरकार थी। अब केंद्र में भाजपा और राज्य में कांग्रेस की सरकार है। सत्ता परिवर्तन हुआ है, लेकिन नक्सल समस्या जस की तस बनी हुई है।
बीजापुर की ताजा घटना के बाद राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बात की और जवानों की मौत पर गहरा दुख जताया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी शहीद जवानों के परिवारों से संवेदना व्यक्त करते हुए कहा कि उनकी शहादत बेकार नहीं जाएगी। सवाल यही है कि जब सत्ता में बैठे लोग इस तरह की बातें कहते हैं तो उसका अर्थ क्या होता है।
जवानों की शहादत बेकार नहीं जाने का अर्थ है कि जिस कारण से उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी, उस कारण को दूर किया जाएगा। तो यहां सरकारों को जवाब देना चाहिए कि वे आखिर ऐसा क्या करने वाले हैं, या कर रहे हैं, या कर चुके हैं, जिससे नक्सल समस्या का हल निकलेगा और आइंदा ऐसी हिंसा नहीं होगी।
अभी पिछले महीने 23 मार्च को नक्सलियों ने नारायणपुर जिले में जवानों को ले जा रही बस में विस्फोट कर दिया था, जिसमें 5 जवान शहीद हो गए थे। जबकि इससे पहले मार्च के मध्य में एक पत्र के जरिए नक्सलियों ने सरकार से बातचीत करने की पेशकश की थी। बताया जा रहा है कि उन्होंने यह पहल सिविल सोसाइटी के शांति मार्च के जवाब में की थी।
नक्सलियों ने विज्ञप्ति जारी कर कहा था कि वे जनता की भलाई के लिए छत्तीसगढ़ सरकार से बातचीत के लिए तैयार हैं। उन्होंने बातचीत के लिए तीन शर्तें भी रखी थीं। इनमें सशस्त्र बलों को हटाने, माओवादी संगठनों पर लगे प्रतिबंध हटाने और जेल में बंद उनके नेताओं की बिना शर्त रिहाई शामिल थीं। पुलिस के कई आला अधिकारी इस तरह के प्रस्ताव को गुमराह करने वाला मान रहे थे। हालांकि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा था कि उनसे बात करने में सरकार को कोई संकोच नहीं है। पहले वे सीजफायर का ऐलान करें तब बातचीत का माहौल बनेगा। लेकिन नक्सलियों ने शांति वार्ता की सशर्त पहल के चंद दिनों बाद ही हिंसा और रक्तपात शुरु कर दिया। इस तरह से तो विश्वास बहाली नहीं हो सकती।
Naxalites are running Tactical Counter Offensive Campaign (TCOC) these days.
दरअसल नक्सली इन दिनों टेक्टिकल काउंटर अफेंसिव कैंपेन (टीसीओसी) चला रहे हैं। टीसीओसी नक्सलियों की सैन्य रणनीति का हिस्सा है। टीसीओसी के तहत साल के कुछ महीने नक्सली संगठित होकर सुरक्षाबलों पर पलटवार करते हैं। आमतौर पर फरवरी से जून के बीच टीसीओसी चलाया जाता है। इस दौरान जंगल में पतझड़ का मौसम होता है, जिससे दूर तक देखना आसान होता है। साथ ही नदी-नाले सूखने से एक जगह से दूसरी जगह जाना भी आसान होता है।
नक्सलियों की इस हिंसा के जवाब में मुमकिन है, सरकार कोई त्वरित कार्रवाई करे। सर्च आपरेशन चला कर कुछ लोगों को गिरफ्तार किया जा सकता है। सत्तारूढ़ और विपक्षी नेता एक-दूसरे पर स्थिति बिगाड़ने का आरोप लगा सकते हैं। शहीद जवानों के लिए कुछ मुआवजे की घोषणा हो सकती है। इसके बाद वही ढाक के तीन पात दिखने के आसार होंगे। राजनैतिक दल अगले चुनावों की तैयारियों में लग जाएंगे। आम जनता अपने जीवन की उलझनों में खो जाएगी। पीछे रह जाएंगे शहीद जवानों के परिवार, जिन्हें जीवन भर का दुख झेलना है और रह जाएंगे बस्तर के ग्रामीण, जो नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच बरसों से घुन की तरह पिसते रहे हैं। उनके मानवाधिकार हनन की ढेरों कथाएं बस्तर के जंगलों में बिखरी पड़ी हैं। उनके हक में आवाज उठाने वालों को नक्सल समर्थक कहकर हिकारत की नजर से देखने वालों का तबका भी समाज में बढ़ चुका है। एक अनसुलझे चक्रव्यूह में नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ घिर चुका है, जिससे बाहर निकलने के रास्ते निरंतर तलाशे जाने की जरूरत है। सख्ती और बातचीत दोनों पहलुओं पर विचार करते हुए आगे बढ़ा जाए, तभी शायद कोई निकासी द्वार दिखे।