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मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों (Anti-people policies of Modi government) के खिलाफ अवाम में जबरदस्त आक्रोश है, पर उसका प्रभावी बहिर्प्रकाश बहुत कम देखने को मिल रहा है. किन्तु हताशा के वर्तमान दौर में 31 मई को नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को वापस लेने की मांग (Demand to withdraw the new national education policy) को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर जो ‘छात्र संसद’ आयोजित हुई, वह लोगों की स्मृति में लम्बे समय तक रहेगी.
आइसा ने लगाई नई शिक्षा नीति के विरोध में छात्र संसद
वाम छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) द्वारा आयोजित छात्र संसद में 15 राज्यों के 25 विश्वविद्यालयों के सैकड़ों छात्रों ने तपती दोपहर में संसद से कुछ ही दूर अपनी ‘छात्र संसद’ लगाई.
इस संसद में छात्रों के साथ शिक्षक और राजनीतिक दलों के सदस्य भी शमिल हुए. इस संसद के माध्यम से छात्रों ने नई शिक्षा नीति (एनईपी) को छात्र विरोधी बताते हुए इसे तत्काल वापस लेने की मांग की। इसमें भाकपा-माले (लिबरेशन) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, राष्ट्रीय जनता दल से राज्यसभा सदस्य प्रो. मनोज झा, शिक्षाविद प्रोफेसर रतन लाल, प्रो. अपूर्वानन्द और जितेंद्र पृथ्वी मीणा और कई अन्य वक्ता एवं छात्र नेताओं ने विचार रखे.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के खिलाफ वक्ताओं के विचारों का विस्तृत प्रतिबिम्बन राजद के सांसद मनोज झा के संबोधन में हुआ.
मनोज झा ने छात्र संसद में अपनी बात रखते हुए कहा कि ये नीति सरकार द्वारा बिना किसी चर्चा और विमर्श के लाई गई और ऐसा लगता है कि वह ऐसे मुद्दे पर कोई संवाद नहीं चाहती है, जो भारत में शिक्षा के भाग्य का निर्धारण करेगा.
उन्होंने कहा, "मुझे कहना होगा कि जिस नीति का आप विरोध कर रहे हैं वह कभी संसद में पेश ही नहीं की गई. जब मैंने संसद के शून्यकाल में इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की, तो मुझे बताया गया कि यह एक नीतिगत निर्णय है और इस पर संसद में बहस नहीं हो सकती है. इसलिए, मैंने जाँच की कि क्या पिछले वर्षों में अन्य शिक्षा नीतियों के समय भी ऐसा ही था.
आपके आश्चर्य के लिए, यह पहली मिसाल थी कि इस (शिक्षा नीति ) पर बहस नहीं हो रही थी. 1966 में जब कोठारी आयोग ने अपनी सिफारिश रखी, तो उस पर विधिवत बहस हुई और उसे पारित कर दिया गया. इसी तरह जब राजीव गांधी के शासन में संशोधित शिक्षा नीति आई तो इस पर भी चर्चा हुई.
मैं अक्सर कहता हूं कि राजा अक्सर छाती की बात करता है. अगर उन्होंने तर्क को थोड़ा दिल दिया होता, तो परिणाम कुछ और होते. मैं मध्यम वर्ग को भी आगाह कर दूं कि उनके बच्चे भी हाशिये पर चले जाएंगे. यह वर्ग अक्सर बिना किसी समझ के उत्सव मनाता है.
कृपया आप मूर्खों के स्वर्ग में रहना बंद करें यदि आपको लगता है कि यह नीति आपके बच्चों को सशक्त बनाएगी. यह नहीं होगा. सब कुछ छोड़ दो, अगर आप यहां संविधान की प्रस्तावना के समक्ष भी एनईपी रखेंगे, तो आप पाएंगे कि यह संविधान संगत नहीं है.
एक नीति दस्तावेज जो प्रतीकात्मक रूप से सामाजिक न्याय की बात न करता हो, आप उससे क्या उम्मीद कर सकते हैं! इस नीति ने ऋण और अनुदान के बीच के अंतर को समाप्त कर दिया है.
शेष में उन्होंने कहा- ‘लेकिन क्या चारों ओर सब कुछ इतना दुखद है. मुझे लगता है कि देखने के लिए हमें अपने चारों ओर देखना चाहिए. जब संसद के माध्यम से कृषि कानूनों के माध्यम इस देश का गला घोंट दिया गया, मैं बहुत परेशान था. हमारे तर्क और प्रमाण कूड़ेदान में फेंक दिए गए. अगर राजा को लगता है कि यह लोगों के पक्ष में है, तो इसे लागू किया जाना चाहिए. लेकिन हमारी सड़के जाग गईं. किसानों ने उन्हें झुका दिया.
एक व्यक्ति जिसने कहा कि मैं अपने फैसले से कभी पीछे नहीं हटता, उसे कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा. मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि इस लड़ाई को छोटे शहरों में ले जाएं. हमें यह कहने में सक्षम होना चाहिए कि यह दस्तावेज़ हमारी गुलामी का दस्तावेज़ है. यह आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज है. इससे हानिकारक कुछ नहीं हो सकता!’
बहरहाल छात्र संसद में जुटे तमाम छात्र नेताओं, शिक्षकों, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के वापस लेने की पुरजोर मांग उठाई और मनोज झा ने कृषि कानून की वापसी का उद्धरण देकर लोगों का हौसला भी बढाया. पर, ध्यान रहें कृषि कानून के विरोध में जैसी एकजुटता दिखी, वैसी उम्मीद छात्रों से करनी कुछ ज्यादती होगी.
दूसरी बात मोदी सरकार दिन-ब-दिन विरोधियों की उपेक्षा करने की मानसिकता विकसित करती जा रही है. ऐसे में लगता नहीं कि वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति को वापस ले लेगी. चूँकि शिक्षा नीति की वापसी कठिन है ऐसे में शिक्षा नीति के वापसी की लड़ाई को छोटे शहरों में ले जाने के बजाय बेहतर होगा छात्र और गुरुजन राष्ट्रीय शिक्षा नीति– 2020 की जगह वैकल्पिक शिक्षा नीति का मुद्दा वंचित वर्गों मध्य ले जाएँ. क्योंकि मोदी सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति से हिन्दू राष्ट्र की जमीन पुख्ता और बहुसंख्य लोगों का भविष्य अन्धकारमय होना तय सा दिख रहा है. यह शिक्षा नीति संघ के हिन्दू राष्ट्र के सपने को ध्यान में रखकर डिजायन की गयी है.
मोदी राज में सितम्बर 2020 में पारित नयी शिक्षा नीति का पूरा ताना-बाना परोक्ष रूप से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को अंग्रेजो द्वारा लागू सार्वजनीन शिक्षा नीति के पूर्व युग में ले जाने के हिसाब से बुना गया है, जिसमें हिन्दू धर्मादेशों के जरिये शुद्रातिशूद्रों के लिए शिक्षा पूरी तरह निषिद्ध रही, शिक्षा का सम्पूर्ण अधिकार सिर्फ सवर्णों को रहा. किन्तु विश्वमय मानवाधिकारों के प्रसार के चलते हिंदुत्ववादियों के लिए वर्तमान में संभव नहीं कि वे गैर-सवर्णों को शिक्षा क्षेत्र से पूरी तरह बहिष्कृत कर दें. इसलिए नयी शिक्षा नीति में ऐसी व्यवस्था की गयी है, जिससे गुणवत्ती शिक्षा पर सवर्णों का एकाधिकार हो जाए और शुद्रातिशूद्रों इससे बाहर हो जाएँ.
महात्मा गांधी के शब्दों में वे अधिक से अधिक इतनी ही शिक्षा अर्जित करें, जिससे शुद्रत्व अर्थात गुलामों की भांति सेवा-कार्य बेहतर तरीके से संपन्न कर सकें.
नयी शिक्षा नीति के अध्याय–20 के पृष्ठ 357 से 372 तक वोकेशनल एजुकेशन का जो नक्शा तैयार किया गया गई, उसमें जाति आधारित पेशों को बढ़ावा दिया गया है.
मुमकिन है हिन्दू राष्ट्र में इसी को आधार बनाकर शुद्रातिशूद्रों को उन पेशों से जुड़ी शिक्षा लेने के लिए बाध्य कर दिया जायेगा, जो हिन्दू धर्माधारित वर्ण-व्यवस्था में इनके लिए निर्दिष्ट रहे. इसके दूरगामी परिणाम को देखते हुए बहुजन शिक्षाविदों की स्पष्ट राय है कि नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में घुमा-फिराकर दलित, आदिवासी, पिछड़ों व इनसे धर्मान्तरित तबकों को जाति आधारित पेशों से जोड़ने का ताना बना बुना गया है ताकि अघोषित रूप से वर्ण व्यवस्था फिर से लागू हो और संविधान आधारित समाज व्यवस्था स्वतः ध्वस्त हो जाय, जिसमें मनोज झा के शब्दों में वंचित वर्गों से भूरि-भूरि एकलव्य ही पैदा होंगे.
मोदी राज में हिन्दू राष्ट्र के सपनों को मूर्त रूप देने के लिए देश की लाभजनक कम्पनियों, रेल, हवाई अड्डों, अस्पताल इत्यादि को निजीकरण और विनिवेशीकरण के जरिये उन तबकों के हाथों में देने का बलिष्ठ प्रयास हो रहा है, जिनको हिन्दू धर्म में शक्ति के समस्त स्रोतों के भोग का दैविक अधिकार(डिवाइन राइट्स) है.
नयी शिक्षा नीति में सम्पूर्ण एजुकेशन सेक्टर इसी दैविक अधिकारी वर्ग अर्थात सवर्णों के हाथ में देने का सुपरिकल्पित डिजायन तैयार किया गया है. ऐसा लगता है हिन्दू राष्ट्र में सरकार शिक्षा का सम्पूर्ण दायित्व निजी क्षेत्र क्षेत्र वालों के हाथ में सौंप कर विश्वविद्यालयों को परीक्षा आयोजित करने व डिग्रियां बांटने तक महदूद रखना चाहती है. और शिक्षा जब भारत के वर्णवादी निजी क्षेत्र के स्वामियों के हाथ में चली जाएगी तो उसका दलित – आदिवासी और पिछड़ों पर क्या असर पड़ेगा, उसका अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा.
शिक्षा निजी सेक्टर के हाथ में जाने पर भविष्य में पूरी तरह विपन्न होने जा रहे वंचित वर्गों के लिए अपने बच्चों को निजी क्षेत्र की मंहगी शिक्षा सुलभ कराना आकाश कुसुम हो जायेगा और इन वर्गों के विद्यार्थियों के लिए डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनना प्राय: असंभव हो जायेगा.
आज बड़े-बड़े कई विश्वविद्यालय धार्मिक कर्मकांड का कोर्स कराने जा रहे हैं, नयी शिक्षा नीति परवान चढ़ने पर समस्त विश्वविद्यालयों में ही ऐसे कोर्स शुरू हो जायेंगे. इससे भारत में सभ्यता का पहिया बैक गियर में चला जायेगा और वैदिक युग जैसा समाज आकार लेने लगेगा.
नयी शिक्षा नीति में सरकारी स्कूलों में छात्र मातृभाषाओँ में जबकि प्राइवेट स्कूलों में अंग्रेजी भाषा में पढेंगे. इससे शिक्षा के क्षेत्र में विराट वैषम्य की सृष्टि होगी, जिससे सर्वाधिक प्रभावित होगा दलित–आदिवासी- पिछड़ा और इनसे धर्मान्तरित तबका.
नयी शिक्षा नीति में आम लोगों को जो सबसे सकारात्मक चीज दिख रही है, वह यह कि शिक्षा का बजट 3 से 6 प्रतिशत हो जायेगा. लेकिन जब यह तय सा दिख रहा कि संघवादी सरकार आदर्श हिन्दू राष्ट्र को ध्यान में रखकर शक्ति के समस्त स्रोत सवर्णों के हाथ में देने तथा शुद्रातिशूद्रों को बिलकुल सर्वस्वहारा और गुलाम बनाने पर आमादा है, क्या बढ़े बजट का लाभ उन वर्गों को मिल पायेगा, जिनके लिए शिक्षा ग्रहण करना हिन्दू धर्म में अधर्म है?
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कुल मिलाकर हिन्दू राष्ट्र को ध्यान में रखते हुए नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिन्दू धर्म के शिक्षा-निषिद्ध तबकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से दूर रखने की एक सुपरिकल्पित व्यवस्था की गयी है, जिसकी काट ढूंढनी जरूरी है. यदि काट नहीं ढूंढी गयी तो वंचित समुदायों की नस्लें उस शिक्षा से महरूम हो जाएँगी, जिसके जोर से ही दिन ब दिन बढ़ते प्रतियोगिता के दौड़ में कोई समाज अपना वजूद बचा सकता है. और इसकी एकमेव काट है-एजुकेशन डाइवर्सिटी !
वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भेदभाव ख़त्म करने तथा वंचितों को उनका प्राप्य दिलाने के लिए एजुकेशन डाइवर्सिटी से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता. एजुकेशन डाइवर्सिटी का मतलब शिक्षण संस्थानों में छात्रों के प्रवेश, अध्यापन में शिक्षकों की नियुक्ति व संचालन में विभिन्न सामाजिक समूहों का संख्यानुपात में प्रतिनिधित्व.
एजुकेशन डाइवर्सिटी के जरिये ही दुनिया के लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देशों में शिक्षा पर समूह विशेष के वर्चस्व को शेष कर सभी सामाजिक समूहों को अध्ययन-अध्यापन का न्यायोचित अवसर सुलभ कराया गया है.
एजुकेशन डाइवर्सिटी अर्थात शिक्षा में विविधता नीति के जरिये ही तमाम सभ्यतर देशों में शिक्षा का प्रजातान्त्रिकरण मुमकिन हो पाया है. अमेरिका में भूरि-भूरि नोबेल विजेता देने वाले हार्वर्ड विश्वविद्यालय से लेकर नासा जैसे सर्वाधिक हाई प्रोफाइल संस्थान तक सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू कर वहां के तमाम वंचित समूहों और महिलाओं को अध्ययन-अध्यापन इत्यादि का न्यायोचित अवसर मुहैया कराते रहते है. ऐसे में छात्र- शिक्षक सहित विपक्ष के यदि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के खतरे से सचमुच चिंतित है तो उन्हें एजुकेशन डाइवर्सिटी लागू करवाने की मांग जनता के बीच ले जानी होगी। इसके समर्थन में विशाल जनमत बनाना होगा.
शिक्षा क्षेत्र में सवर्णों के एकाधिकार को ध्वस्त कर देगी एजुकेशन डाइवर्सिटी पॉलिसी
एजुकेशन डाइवर्सिटी पॉलिसी (Education Diversity Policy) शिक्षा क्षेत्र में सवर्णों के एकाधिकार (Monopoly of the upper castes in the education sector) को ध्वस्त कर देगी. इसके फलस्वरूप डीयू- बीएचयू, आईआईटीज, एम्स से लगाये समस्त मेडिकल कॉलेजों इत्यादि में सवर्ण छात्र और गुरुजन, प्रिंसिपल और वीसी मात्र 15 प्रतिशत तक सिमटने के लिए बाध्य होंगे. शिक्षण संस्थानों में एडमिशन, शिक्षकों की नियुक्ति और मैनेजमेंट में सवर्णों के हिस्से का बचा हुआ अतिरिक्त 60-70 प्रतिशत अवसर दलित, आदवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यक स्त्री-पुरुषों के मध्य बंटने के रास्ते खुल जायेगा. इससे भारत में हिन्दू राष्ट्र की जगह एक ऐसे समाज निर्माण की जमीन तैयार हो जाएगी जहाँ सवर्ण, ओबीसी, एससी/ एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के स्त्री-पुरुषों को शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक और धार्मिक) के भोग का समान अवसर होगा तथा भारत का लोकतंत्र विश्व के लिए एक मॉडल बनेगा! ऐसे में जो लोग भावी हिन्दू राष्ट्र के खतरे से खौफजदा हैं उन्हें सर्वशक्ति से एजुकेशन डाइवर्सिटी के लिए सामने आना चाहिए. क्योंकि हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना (concept of hindu nation) को ध्वस्त करने का सर्वाधिक सामर्थ्य एजुकेशन डाइवर्सिटी में ही है!
एच.एल. दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.
Web title : Education Diversity is the right choice of National Education Policy 2020