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स्कूली पाठ्यक्रम में गीता : सरकारों की कथनी और करनी का अंतर

स्कूली पाठ्यक्रम में गीता : सरकारों की कथनी और करनी का अंतर

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गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की कवायद

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Efforts to include Geeta in the school curriculum | Gita in school curriculum: Difference between government's words and actions

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वर्ष 2018 की बात है, मोदी सरकार का चौथा साल चल रहा था। केंद्रीय और राज्य सरकारों को स्कूली शिक्षा के बारे में सलाह और सहायता देने के लिए बनी एनसीईआरटी ने एक मैन्युअल का प्रकाशन किया था। फोकस था कि अल्पसंख्यक छात्रों की जरूरतों के लिए स्कूलों को किस तरह अधिक संवेदनशील बनाया जाए (How to make schools more sensitive to the needs of minority students)। इसमें साफ़ बताया गया था कि किस तरह स्कूलों के परिसरों में देवी देवताओं की तस्वीरें लगाने से या स्कूल की असेम्ब्ली में प्रार्थनाओं को अंजाम देने से अल्पसंख्यक मतों, समुदायों के छात्रों को अलगाव का सामना करना पड़ सकता है, ऐसे समूहों के खिलाफ स्कूल के शिक्षकों, सहपाठियों आदि द्वारा किए जा रहे प्रगट / प्रच्छन्न भेदभावों से उनकी जिन्दगी किस तरह अधिक पीड़ादायी हो सकती है और स्कूल प्रबंधनों को इसके बारे में क्या कदम उठाने चाहिए?

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सरकारों की कथनी और करनी में कितना अंतर हो सकता है?

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हाल के समय में पहले गुजरात और बाद में कर्नाटक सरकार द्वारा गीता ( जो हिन्दुओं का धार्मिक ग्रंथ है ) को पाठ्यक्रम में शामिल करने के प्रस्तावों के आलोक में इस मैन्युअल को पलटते हुए यही बात अधिकाधिक स्पष्ट होती गई कि परिषद के सलाहों, सुझावों से हम कितने दूर चले आए हैं। सरकारों की अपनी कथनी और करनी में कितना अंतराल हो सकता है।

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इस बात को भी याद रखना चाहिए कि इन सरकारों का यह मनमाना निर्णय- जिसके लिए न किसी से पूछने की जहमत उठाई गई है, न किसी से सलाह मशविरा किया गया है- वह चुनिंदा स्मृतिलोप का अच्छा उदाहरण है।

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हिजाब विवाद पर धर्मनिरपेक्षता के चैंपियन हो गए थे हिन्दू राष्ट्र की हिमायत करने नेता

जाहिर है कि न ही भाजपा का नेतृत्व और न ही उसके केन्द्र एवं राज्य के अन्य अग्रणी इस मसले पर जुबां खोलना चाहते हैं कि कुछ ही समय पहले जब कर्नाटक के शिक्षा संस्थानों में हिजाब पाबंदी के राज्य सरकार के विवादास्पद निर्णय की आलोचना (Criticism of the controversial decision of the state government to ban hijab in educational institutions) हो रही थी तब अचानक भाजपा के ही कई अग्रणियों ने धर्म और शिक्षा के अलगीकरण की हिमायत (Separation of religion and education) की थी। ध्यान रहे ताउम्र हिन्दू राष्ट्र की हिमायत करने में जुटे रहे यह नेता किसी अलसुबह 'धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार' हो गए थे।

और आज जबकि स्कूली पाठयक्रम में हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथ को शामिल करने को लेकर बहस तेज हो रही है,- जो साफ-साफ धर्म एवं शिक्षा के घालमेल का उदाहरण है '- इन सभी अग्रणियों ने मौन ओढ़ लिया है।

शिक्षण संस्थान में धार्मिक शिक्षा देने पर क्या कहता है भारत का संविधान? (What does the Constitution of India say on giving religious education in educational institutions?)

संविधान की धारा 28 (1) { Article 28(1) of the Constitution} इस बात का खुलेआम ऐलान करती है कि 'राज्य निधि से पोषित किसी शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।'

निश्चित ही भाजपा सरकारों का स्मृतिलोप विभिन्न उच्च अदालतों द्वारा हाल में दिए उन फैसलों तक भी विस्तारित है, जिनमें धर्म और शिक्षा के अलगाव को बार-बार रेखांकित किया है।

इतना ही नहीं इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत उस याचिका पर शुरू होनी बाकी है, जिसका फोकस देश के केंद्रीय विद्यालयों में प्रार्थना सभा में सरस्वती वंदना को पढ़ने को लेकर है, जिसमें कहा गया है कि यह प्रार्थना किस तरह संवैधानिक प्रावधानों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करती है।

यह कहा जा रहा है कि गीता को मुख्य पाठ्यक्रम में नहीं बल्कि नैतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है।

शिक्षा का मकसद क्या है? (What is the purpose of education?)

मालूम हो नैतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में गीता को लागू करना (Application of Gita in Moral Science Curriculum) एक अन्य बुनियादी प्रश्न को उठाता है, जिसका ताल्लुक शिक्षा के उद्देश्य से है और इस पड़ताल से है कि पाठयक्रम में गीता को लाने से कहीं शिक्षा के उन उद्देश्यों पर कुठाराघात तो नहीं हो रहा है। बकौल रवींद्रनाथ टैगोर शिक्षा का मकसद है 'अज्ञान को दूर करना और ज्ञान की रोशनी में प्रवेश करना।'

जानकारों के मुताबिक शिक्षा दरअसल सीखने की प्रक्रिया को और 'ज्ञान, सूचना, मूल्य, मान्यताओं, आदतों, कुशलताओं ' को हासिल करने को सुगम करती हैं।

शिक्षा का अंतिम लक्ष्य क्या है? (What is the ultimate goal of education?)

इसमें भी कहीं दो राय नहीं कि सीखने की प्रक्रिया शैशवावस्था से ही शुरू होती है, जहां शिशु अपने अनुभव से सीखने लगता है, और वयस्क इस प्रक्रिया को किस तरह सुगम करते हैं, वह एक तरह से शिक्षा की दिशा में उसका पहला कदम होता है, जो बाद में औपचारिक रूप धारण करता है। शिक्षा पाने के इस गतिविज्ञान पर वस्तुनिष्ठ ढंग से निगाह डालें तो पता चलेगा कि शिक्षा एक तरह से मन को आजाद करने, खोलने और अपनी सृजनात्मकता को उन्मुक्त करने का जरिया है। स्पष्ट है कि इसका कोई अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता, क्या अज्ञान को दूर करने का कोई अंतिम लक्ष्य हो भी सकता है भला।

अपने दौर के महान वैज्ञानिक एवं गणितज्ञ न्यूटन का वह कथन गौरतलब है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अभी तक जो ज्ञान मैंने हासिल किया है, वह समुद्र किनारे फैली बालू का एक कण मात्र है, जबकि अभी किनारे फैली विशाल बालू की पड़ताल बाकी है। ज्ञान हासिल करने की यह असीमितता ही एक तरह से धर्म के खिलाफ पड़ती है।

जहां शिक्षा किसी को अपनी आंखें खोलने के लिए प्रेरित करती है, अपने मन पर पड़ी बंदिशों को दूर करने के लिए सहायता पहुंचाती हैं और बिना किसी से डरे सोचने के लिए उत्साहित करती है, इसके बरअक्स धर्म और धार्मिक शिक्षाएं (Religion and Religious Teachings) हमें 'अंतिम सत्य के बारे में, ईश्वर की वरीयता जहां आप महज अपनी आंखें बंद करके, बिना किसी किस्म का सवाल उठाए महज दंडवत कर सकते हैं और जब आप किसी पाठयक्रम में धार्मिक ग्रंथ का पढ़ना अनिवार्य कर देते हैं, तब आप एक तरह से शिक्षा के बुनियादी उद्देश्य को ही नकारते हैं।

यहां एक बात को स्पष्ट करना जरूरी है कि एक धर्मनिरपेक्ष बल्कि बहुधर्मीय समाज में विशिष्ट धार्मिक ग्रंथ को - भले ही नैतिक विज्ञान के नाम पर पढ़ाया जाने लगे- तो इस प्रक्रिया को हम उस दूसरी प्रक्रिया के समानान्तर नहीं रख सकते, जहां विभिन्न धर्मों की शिक्षाओं, उनके विकास को इतिहास या समाजविज्ञान के विषय में पढ़ाया जाने लगे।

अगर कोई यह कहने लगे कि हम किसी भी सूरत में धार्मिक ग्रंथों को शिक्षा संस्थानों में पहुंचने नहीं देंगे, तो यह एक किस्म का अतिवादी रूख होगा और जिसका नतीजा बाल मन पर बेहद विपरीत भी हो सकता है क्योंकि वह धर्म जैसी सामाजिक परिघटना के उदय तथा उसके संस्थागत होते जाने और ईश्वर की बदलती अवधारणा के बारे में कभी भी जान नहीं सकेगा और इस बात का एहसास भी नहीं कर सकेगा कि किस तरह आधुनिकता के आगमन ने - जिसके तहत एक स्वायत्त, स्वयंभू व्यक्ति का उदय हुआ, जो तर्कशीलता से लैस था - किस तरह धर्म की जड़ पर ही प्रहार किया, और 21वीं सदी की तीसरी दहाई में अब धर्म अधिकाधिक लोगों का निजी मामला बनता गया है और किसी भी बाहरी एजेंसी को व्यक्ति विशेष के चयन में कोई सलाह नहीं देनी चाहिए।

आस्थावानों के विशाल बहुमत में ईश्वर को न मानने वालों अर्थात नास्तिकों को संदेह की निगाह से देखा जाता है, जिनके बारे में यह समझा जाता है कि न उन्हें ईश्वर का डर रहता है और न ही पुनर्जन्म आदि की चिंता रहती है, जो उन्हें इस ऐहिक जीवन में सत्य एवं नैतिक आचरण के लिए प्रेरित करें या उन्हें 'राह दिखाए।'

किसी व्यक्ति विशेष का नैतिक आचरण एक तरह से उसे क्या अच्छा, स्वीकार्य और क्या बुरा या अस्वीकार्य लगता है, इससे ताल्लुक रखता है। और नैतिकता की यह समझ समय और स्थान के साथ बदलती भी रहती है।

एक जमाने में किसी अन्यधर्मीय या अन्य संप्रदाय से घृणा करना नैतिकता में शुमार किया जाता हो, लेकिन आधुनिक समय में वह चीज़ बदलती दिखती है।

वैसे विभिन्न धर्मों के यह आस्थावान जो धर्म के नैतिक बनाने की हिमायत करते हैं, इस बात को आसानी से भूल जाते हैं कि प्राचीन समयों से ही धर्म और आस्था के नाम पर बड़े-बड़े जनसंहार (Massacres in the name of religion and faith) होते आए हैं, धर्मविशेष की मान्यताओं से असहमति रखने वालों को सरेआम जिन्दा जलाया जाता रहा है, 'अन्य' समझे जाने वाले इन लोगों का 'नस्लीय शुद्धिकरणों' के जरिए सफाया किया जाता रहा है। आधुनिक समय में भी धार्मिक / सांप्रदायिक दंगों /हिंसाचारों में कोई खास कमी नहीं आई है, अलग-अलग रूपों में आज भी वह जारी है।

शिक्षा संस्थानों के पाठयक्रमों में विद्यार्थियों को 'नैतिक' बनाने की दुहाई देते हुए धार्मिक ग्रंथों को शामिल करने के बेहद विपरीत परिणाम भी सामने आ सकते हैं।

कल्पना करें कि उपरोक्त धार्मिक ग्रंथ खास किस्म के उच्चनीच अनुक्रम को, अन्य के खिलाफ हिंसा को वैधता प्रदान करता है - जैसी बात हर धर्मग्रंथ में किसी न किसी रूप में मिलती है - तो क्या वह विद्यार्थियों के मनमस्तिष्क को न केवल कलुषित करेंगी बल्कि धर्म को आलोचनात्मक नज़रिये से देखने के बजाय, वह भी उस अंतिम सत्य मान कर ग्रहण करते रहेंगे।

क्या हम ऐसे ही भावी नागरिकों की फसल पैदा करना चाहेंगे, जो न केवल कूढमगज़ हो, प्रश्न न करें, सिर्फ अन्य के खिलाफ प्रचंड गुस्से से भरे बड़े होते जाएं।

सुभाष गाताड़े

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