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Jagadishwar Chaturvedi जगदीश्वर चतुर्वेदी। लेखक कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर व जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।
'End of history' from Francis Fukuyama's perspective
यह भविष्यवादी चिंतकों का युग है। ये ऐसे विचारक हैं जो कभी भी कुछ भी कह सकते हैं। कभी भी अपनी धारणाओं को बगैर कोई कारण बताए बदल सकते हैं। किसी भी अवधारणा को मनमाने ढ़ंग अर्थ दे सकते हैं। समय, देष-काल, स्थान, उत्पादक शक्तियां, शोषक वर्ग, प्रतिरोध, समग्रता, ऐतिहासिकता आदि का इनके लिए कोई अर्थ नहीं है। ये सर्वतंत्र-स्वतंत्र हैं। इनके विचार आलू की तरह हैं। जैसे किसी भी सब्जी में आलू मिलाया जा सकता है, वैसे ही इनके विचारों को कहीं पर भी मिला सकते हैं। इनके किसी भी विचार के छपते ही बहुराष्ट्रीय जनमाध्यमों से इनके विचारों का तेज गति से बगैर किसी सोच-विचार के प्रक्षेपण होता है। अंधानुकरण होता है। वह प्रभुत्वशालीवर्ग की विचारहीनता और वैचारिक दरिद्रता का आदर्श उदाहरण है।
हिन्दी में कूपमंडूक लोग इन विचारकों के विचारों को जाने बगैर इनके बारे में अपने आत्मज्ञान के आधार पर जगह-जगह शेखचिल्ली की तरह बोलते रहते हैं। इस समूची प्रक्रिया का दुष्परिणाम यह हुआ है कि वाद-विवाद का आधार कृति और कृतिकार न होकर नारे या शीर्षक हो गए हैं। इन वाक् विलासी विचारकों से हमारी पत्रिकाएं भरी पड़ी हैं। इन लोगों के हिसाब से आज किसी भी विचार को जानने की बजाय उसके नारे या शीर्षक को जान लेना ही समीचीन है। इसके बाद मूल्यांकन का सिलसिला चल निकलता है।
मजेदार बात यह है कि इन आलोचकों ने यह आभास दिया है कि किसी भी विषय पर बोला जा सकता है। कभी भी बोला जा सकता है। इन्हें वास्तव ज्ञान की जरूरत नहीं है। वे कॉमनसेंस के आधार पर कपोल कल्पनाएं करते रहते हैं।
संक्षेप में सिर्फ यही कहना है कि भविष्यवादी चिंतकों का प्रत्युत्तर सिर्फ शब्दजाल के जरिए संभव नहीं है। इस दौर में कुछ विचारक ऐसे भी हैं जो समाजवादी व्यवस्था के पराभव (the collapse of the socialist system) के बाद सब कुछ भूल गए हैं। उन्हें चारों ओर अंधकार ही अंधकार, निराशा ही निराशा नजर आ रही है। इनमें से अनेक लोग निराश होकर भगवान की शरण में जा चुके हैं। अथवा राजनीतिक संयास ले चुके हैं। ऐसे माहौल में गंभीर विचार-विमर्श को बचाए रखना कठिन हो गया है।
इस बदलते माहौल में फ़्रांसिस फ़ुकुयामा (Francis Fukuyama in Hindi) ने 'इतिहास का अंत' की घोषणा करके जिस भेड़चाल को जन्म दिया वह काबिलेगौर है। अब क्या था 'अंत' का जीवन और ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अचार की तरह इस्तेमाल होने लगा। मजेदार बात यह थी कि जो लोग 'अंत' का पंथ लेकर आए वे यह भूल गए कि 'अंत' का भी अंत होता है। मजेदार बात यह है कि जिस व्यक्ति ने 'अंत' के पंथ को जन्म दिया उसी ने इसका 'अंत' किया।
क्या परिवर्तन के नियम का अंत हो सकता है, क्या कहते हैं कार्ल मार्क्स? (Can there be an end to the law of change, says Karl Marx?)
मेरा इशारा फुकोयामा की ओर है। काफी अर्सा पहले मार्क्स ने कहा था कि इस समाज में सब कुछ परिवर्तनशील है। यदि कोई चीज अपरिवर्तनीय है तो वह है परिवर्तन का नियम। परिवर्तन के नियम का अंत कभी नहीं होगा। मार्क्स को अप्रासंगिक बताने वाले और 'अंत' पंथी अभी तक यह नहीं बता पाए हैं कि परिवर्तन के नियम का कब अंत होगा (When will the law of change end)?
संक्षेप में अब कुछ बातें फ्रांसिस फुकुयामा के विचारों के बारे में (About Francis Fukuyama's Thoughts) जान लेना समीचीन होगा।
27 अक्टूबर 1952 को जन्मे फ्रांसिस फुकुयामा पेशे से प्रोफेसर हैं। अमेरिकी राजनीतिक अर्थशास्त्री के रूप में उनकी ख्याति है। जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवांस इंटरनेशनल स्टैडीज में प्रोफेसर (Professor at John Hopkins University's School of Advanced International Studies) हैं। इन्होंने सन् 1989 में 'इतिहास का अंत' शीर्षक लेख लिखा था। जो बाद में 'दि एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड दि लास्ट मैन (The End of History and the Last Man)'(1992) के नाम से विस्तारित रूप में पुस्तक के रूप में सामने आया। इस पुस्तक ने सबसे ज्यादा विवाद पैदा किए हैं।
Is it necessary to jump into every ideological dispute?
कुछ लोग इस विवाद में पढ़कर कूदे, ज्यादातर बिना पढ़े कूदे। हमें ठंड़े दिमाग से सोचना चाहिए क्या प्रत्येक वैचारिक विवाद में कूदना जरूरी है ? क्या इस पुस्तक की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी ? इस पुस्तक में ऐसी कौन सी बात थी जो हम सहन नहीं कर पाए ? क्या इसमें बुनियादी तौर पर कुछ नया था ? क्या यह कृति वैचारिक जगत में मूलगामी तौर पर नया विचार लेकर आई थी ? जी नहीं।
'इतिहास का अंत' से अपना पल्ला सबसे पहले फुकुयामा ने झाड़ा
इस पुस्तक में ऐसा कुछ भी नया नहीं था, जिसकी धुनाई की जाती। बल्कि मजेदार बात यह है कि स्वयं फुकुयामा ने इस पुस्तक दि एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड दि लास्ट मैन की बुनियादी धारणा यानी 'इतिहास का अंत' से अपना पल्ला सबसे पहले झाड़ा। असल में यह पुस्तक या इसी तरह की भविष्यवादियों की किताबें 'इस्तेमाल करो और फेंको' के नजरिए से लिखी जाती रही हैं। इनमें चमक है। नई भाषा है। किंतु सैद्धांतिकी, अंतर्वस्तु और परिप्रेक्ष्य के लिहाज से इनकी कृतियां अत्यंत कमजोर होती हैं।
हम नहीं जानते कि आज तक किसी भी भविष्यवादी ने कोई टिकाऊ धारणा दी हो। ऐसी धारणा दी हो जिसे उसने स्वयं कालान्तर में खंडित न किया हो या अस्वीकार न किया हो।
भविष्यवादी विचारकों के विचारों का वृद्ध पूंजीवाद और अमेरिकी विदेशनीति से संबंध (The relationship of futuristic ideas to aging capitalism and American foreign policy)
इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भविष्यवादी विचारकों के विचारों का वृद्ध पूंजीवाद और अमेरिकी विदेशनीति के परिप्रेक्ष्य से गहरा संबंध है। हमारे कहने का अर्थ यह नहीं है कि लेखक या विचारक को अपनी धारणा बदलने का हक नहीं है, उसे पूरा हक है किंतु इस परिवर्तन के कारणों को बताना होगा। साथ ही प्रमाणित करना होगा।
फुकुयामा ने ' दि एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड दि लास्ट मैन' (1992)कृति में इतिहास के अंत' की व्याख्या के क्रम में रेखांकित किया कि विचारधारात्मक संघर्ष खत्म हो चुका है। मौजूदा युग सारी दुनिया में उदार जनतंत्र का युग है। शीतयुद्ध समाप्त हो चुका है। शायद फुकुयामा अपने विचारों पर स्वयं विश्वास नहीं करते थे। इसका प्रतिफलन उनकी अगली कृतियों ''ट्रस्ट: दि सोशल वर्चु एण्ड दि क्रिएशन ऑफ प्रोसपेरिटी '' (1995), ' और '' अवर पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर : कंसीक्वेंसेज ऑफ दि बायो टैक्नोलॉजी रिवोल्यूशन'' (2002)और ' स्टेट बिल्डिंग: गवर्नेंस एंड वर्ल्ड ऑर्डर इन दि ट्वन्टी फर्स्ट सेंचुरी' (2004) कृतियों में दिखाई देता है। आखिरी दोनों कृतियों में उन्होंने 'इतिहास का अंत' की धारणा को तिलांजलि दे दी है।
फ्रांसिस फुकुयामा का नया तर्क क्या है?
फ्रांसिस फुकुयामा का नया तर्क है कि बायो टैक्नोलॉजी मनुष्य को निरंतर सक्षम बना रही है कि वह अपने एवोल्यूशन को स्वयं नियंत्रित करे। यह भी संभव है कि मनुष्य बुनियादी तौर पर असमान हो जाए। विश्व व्यवस्था के तौर पर उदार जनतंत्र (liberal democracy) खत्म हो जाए। कायदे से यह जानने का हक हम सभी को है कि दस-बारह साल पहले तक जो व्यक्ति उदार जनतंत्र के युग की बात कह रहा था। अचानक उदार जनतंत्र का विचार कहां चला गया ? इस परिवर्तन के रहस्य को फुकुयामा नहीं खोलते। किंतु यह कोई रहस्य नहीं है। बल्कि इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है।
लंपट जनतंत्र क्या है? (What is lustful democracy?)
फुकोयामा ने जब 'इतिहास के अंत' की घोषणा की थी तब समाजवाद के खिलाफ अमेरिकापंथी जनतंत्रवादियों की मुहिम (Campaign of American Democrats against Socialism) चरमोत्कर्ष पर थी। शीतयुद्ध की राजनीति के तथाकथित समापन के संदर्भ में उदार जनतंत्र का जयघोष (Cry for liberal democracy in the context of the so-called end of Cold War politics) किया गया। किंतु सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में जनतंत्र के नाम पर जिस व्यवस्था का उदय हुआ है। वह लंपट जनतंत्र है। राष्ट्र-राज्य को विघटित करने वाला जनतंत्र है। इसमें सभी देशों के प्रति समानता का भाव नहीं है। बल्कि यह अमेरिकी विदेश नीति से संचालित गुलाम जनतंत्र है। उदार जनतंत्र से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
लंपट जनतंत्र बुनियादी तौर पर उदार जनतंत्र का ही विकसित रूप है। यह नव्य-साम्राज्यवाद की नाजायज संतान है। आज समाज में यदि किसी व्यवस्था की कोई साख नहीं है तो वह है अमेरिकी व्यवस्था और नव्य उदार जनतंत्र। जनतंत्र के नाम पर जितनी तबाही अमेरिका ने मचाई हुई है और जितने बड़े पैमाने पर जनसंहारों को संगठित किया है, वैसा कभी इतिहास में नहीं हुआ।
'इतिहास का अंत' की धारणा के लिए फुकुयामा ने फ्रांसीसी दार्शनिक अलेक्जेंड्रे कोजेवे (French philosopher Alexandre Kojève) और नव्य अनुदारपंथी दार्शनिक लियो स्ट्रॉस (neo-conservative philosopher Leo Strauss) के विचारों का सहारा लिया है। इन दोंनों पर नीत्शे के विचारों का गहरा प्रभाव है।
'इतिहास का अंत' की विशेष बातें
'इतिहास का अंत' में खासकर दो मुख्य बिन्दुओं पर विचार किया गया है।
1. 19वीं शताब्दी से एक राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था के तौर पर जनतंत्र की शुरूआत होती है। आज विश्व में ज्यादातर सरकारें जनतांत्रिक हैं। जनतंत्र के विकल्प (alternatives to democracy) के तौर पर उभरे दोनों विकल्प -साम्यवाद और फासीवाद - अपनी साख खो चुके हैं।
2.फुकोयामा ने चिंतन दूसरा प्रमुख बिन्दु हेगेल से लिया है। हेगेल के अनुसार फुकुयामा बताते हैं कि इतिहास दो वर्गों के द्वंद्व से बनता है। यह द्वंद्व है मालिक और गुलाम का। थीसिस (मालिक) और एंटीथीसिस (गुलाम) अनिवार्यत: सिंथीसिस में मिलते हैं। ये दोनों शांति के साथ सिर्फ जनतंत्र में ही रह सकते हैं। इस क्रम में फुकुयामा ने जिस तत्व की अनदेखी की है- वह है अंतर्विरोध।
अंतर्विरोध के बिना विकास नहीं होता। उदार जनतंत्र में यह क्षमता नहीं है कि शोषक और शोषित के बीच के अन्तर्विरोधों (Contradictions Between the Exploited and the exploitative), श्रम और पूंजी के बीच के अंतर्विरोध (conflict between labor and capital) का शमन कर दे। जब तक ये दोनों अंतर्विरोध बरकरार हैं। तब तक किसी भी किस्म की सिंथीसिस संभव नहीं है।
क्या शीतयुद्ध समाप्त हो गया है? (Has the Cold War ended?)
'इतिहास का अंत' का विचार शीतयुद्धीय राजनीति के तथाकथित अवसान के बाद आया था। सच्चाई यह है कि शीतयुद्धीय राजनीतिक मुहिम पर अमेरिका जितना धन खर्च कर रहा था। आज उससे कई गुना ज्यादा धन खर्च कर रहा है। समाजवादी सत्ताओं के पराभव के बावजूद नाटो, सीआईए, पेंटागन, विदेश विभाग, सैन्य बजट आदि में कई गुना वृद्धि हुई है। तीसरी दुनिया के देशों की सार्वभौम संप्रभुता पर हमले बढ़े हैं।
अमेरिकी विदेश नीति के अनुरूप आचरण करने के लिए कूटनीतिक, सैन्य- आर्थिक घेरेबंदी तेज हुई है। जनसंहारों का सिलसिला चल पड़ा है। ऐसे में यह कैसे मान लिया जाय कि शीतयुद्ध खत्म हो गया है।
समाजवाद के पराभव के बाद अमेरिका का वेलगाम होकर आक्रामक हो जाना इस बात का प्रमाण है कि इतिहास का अंत की धारणा के लिए जो तर्क दिए गए थे, वे सब बेमानी थे।
संसदीय जनतंत्र की शुरूआत कब हुई?
आम तौर पर फुकुयामा को उसके आलोचकों ने गलत समझा है। मसलन् फुकुयामा ने 1989 में जब 'इतिहास का अंत' लेख लिखा था। तब इसे बर्लिन की दीवार को ढहाए जाने की घटना से जोड़कर देखा गया, जबकि सच्चाई यह है कि फुकुयामा ने हेगेल की धारणा का अनुकरण करते हुए लिखा कि 'इतिहास का अंत' सन् 1798 को फ्रांस की क्रांति से हुआ। इसी साल से संसदीय जनतंत्र की शुरूआत होती है।
फुकुयामा के आलोचक दूसरी बड़ी भूल यह करते हैं कि वे 'इतिहास' और 'घटना' में घालमेल कर देते हैं। फुकोयामा ने यह कहीं नहीं लिखा है कि भविष्य में कभी घटनाएं नहीं होंगी, बल्कि उल्टे यह लिखा है कि भविष्य में घटनाएं होंगी। यह भी संभव है कि सर्वसत्तावादी लौट आएं। इस्लामिक फंडामेंटलिस्ट (Islamic Fundamentalist) प्रमुख राजनीतिक ताकत बन जाएं। जनतंत्र दीर्घजीवी बन जाए। यह भी संभव है कि तात्कालिक तौर पर जनतंत्र को कुछ झटके लगें।
'इतिहास का अंत' की अनेक किस्म की आलोचनाएं सामने आई हैं। मसलन् कुछ लोग यह मानते हैं कि जनतंत्र के साथ इस्लामिक फंडामेंटलिज्म ने वही किया है जो कभी 20वीं शदी में साम्यवाद और फासीवाद ने किया था। इसके जबाव में फुकुयामा ने लिखा कि इस्लामिक फंडामेंटलिज्म को साम्यवाद या फासीवाद जैसी साम्राज्यवादी शक्ति नहीं कह सकते। इस्लाम की मुसलिम जगत के बाहर कोई अपील नहीं है। इस्लामिक राष्ट्रों जब निर्माण हुआ तो उन्हें जनतांत्रिक देशों ने आसानी से हरा दिया। उदाहरण के तौर पर अफगानिस्तान को ही लें।
फुकुयामा ने लिखा इस्लामिक राष्ट्र मूलत: अस्थिर हैं। ये गंभीर राजनीतिक और आर्थिक समस्या झेल रहे हैं। खासकर ईरान और सऊदी अरब। भविष्य में इस्लामिक राष्ट्रों में तुर्की जैसा जनतंत्र होगा अथवा विखंडित हो जाएंगे। ये राष्ट्र पश्चिमी देशों के लिए किसी भी किस्म का दीर्घकालिक खतरा नहीं हैं।
फुकुयामा का इस्लामिक देशों के प्रति मूल्यांकन (Fukuyama's assessment of Islamic countries) सतही है और अमेरिकी हितों से जुड़ा है। सच यह है कि फुकुयामा को इस्लामिक देशों के बारे में कोई तथ्यात्मक समझ नहीं है अथवा उसे छिपा रहे हैं। सारी दुनिया जानती है कि मध्य-पूर्व के इस्लामिक देशों में अमेरिका की तूती बोलती है।
सारी दुनिया में इस्लामिक फंडामेंटलिज्म को सबसे ज्यादा आर्थिक मदद देने का काम अमेरिका का घनिष्ठ दोस्त सऊदी अरब करता रहा है। अमेरिका के द्वारा ही पहली बार तालिबान जैसे धार्मिक सैन्य संगठन का निर्माण हुआ। ओसामा बिन लादेन को आधिकारिक तौर पर अमेरिकी कांग्रेस ने तीन बिलियन डॉलर की आर्थिक मदद दी। तालिबान के सैन्य प्रशिक्षण के लिए सैन्य अधिकारी नियुक्त किए।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या इजराइल है। इसकी अरब देशों के खिलाफ, खासकर फिलिस्तीन के खिलाफ हमलावर कार्रवाईयां जारी हैं। अवैध रूप से वह फिलिस्तीनी राष्ट्र के क्षेत्रों पर कब्जा किए हुए है। संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद के सभी प्रस्तावों को ठुकराता रहा है। मध्य-पूर्व के देशों में अस्थिरता का प्रधान कारण इन देशों का इस्लामपंथी होना नहीं है, बल्कि अमेरिका-इजराइल की आक्रामक एवं विस्तारवादी नीतियां हैं। फुकुयामा को यह सब दिखाई नहीं देता।
'इतिहास का अंत' कृति में मार्क्सवाद पर प्रहार
'इतिहास का अंत' कृति में फ्रांसिस फुकुयामा का मार्क्सवाद पर प्रहार (Francis Fukuyama's attack on Marxism) हास्यास्पद है। पेरी एंडरसन जैसे मार्क्सवादियों ने फुकुयामा के मार्क्सवाद विरोधी विचारों की तीखी आलोचना की है। फुकुयामा ने इस कृति में हेगेल के जरिए मार्क्स पर हमला किया है।
उल्लेखनीय है कि हेगेल के बारे में स्वयं मार्क्स ने कहा था कि हेगेल जो सिर के बल खड़ा था मैंने उसे पैर के बल खड़ा किया। हेगेल और फायरबाख की मीमांसा के क्रम में ही मार्क्स ने ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की धारणा निर्मित की। फुकुयामा ने इन दोनों को अस्वीकार किया है। उसने पुन: हेगेल को सिर के बल खड़ा करने की कोशिश की है।
फुकुयामा की मुश्किल क्या है?
फुकुयामा की मुश्किल यह है कि वह समग्रता और ऐतिहासिकता इन दोनों धारणाओं का निषेध करता है। अतार्किक ढ़ंग से खण्ड-खण्ड में चीजों को देखता है। उसकी भविष्यवाणी है कि साम्यवाद का कोई भविष्य नहीं है। क्योंकि रूसी प्रयोग का अंत हो चुका है। उत्तरी कोरिया और क्यूबा की अर्थव्यवस्था (Cuba's economy) चरमरा रही है। इस समूचे मूल्यांकन की मुश्किल यह है कि फुकुयामा मार्क्सवाद को सही रूप में समझ ही नहीं पाए हैं।
मार्क्सवाद कोई किताब नहीं है। वह कोई जड़ सिद्धांत नहीं है। वह बंधे-बंधाए फार्मूलों का पुलिंदा नहीं है। मार्क्सवाद विभिन्न दर्शनों में कोई एक दर्शन नहीं है। वह विचारधारा भी नहीं है। बल्कि विश्व दृष्टिकोण है। विज्ञान है। दुनिया को बदलने का नजरिया है। यह व्यवहार से निर्देशित होता है। जो लोग मार्क्सवाद को जड़ सिद्धांत की तरह देखते हैं। उसे फार्मूला समझकर लागू करते हैं। वे कम से कम मार्क्सवादी नहीं हो सकते।
फुकुयामा को पूंजीवाद प्रिय है। उनके लिए वह अजेय और अमर है। सब रोगों की रामबाण दवा है। सच यह है कि पूंजीवाद अमर नहीं है। सामाजिक व्यवस्था कभी अमर नहीं होतीं। व्यवस्थाएं बदलती रही हैं। उत्पादन के संबंध कभी अमर और अपरिवर्तनीय नहीं होते। यह कैसे है परिवर्तन का सिद्धांत पूंजीवाद के आने तक तो सच है, किंतु पूंजीवाद के आने के बाद उसे हम लागू करना बंद कर दें?
परिवर्तन का नियम पूंजीवाद पर जिस तरह लागू होता है उसी तरह समाजवाद पर भी लागू होता है। ऐसा नहीं है कि परिवर्तन का नियम समाजवादी व्यवस्था आने के बाद अप्रासंगिक हो जाता है। परिवर्तन की प्रक्रिया (transformation process) में हम यदि सामाजिक विकास की गति को सही परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करने में सफल हो जाते हैं तो समाज आगे की ओर जाता है। यदि गलत समझ के तहत विकास करते हैं तो परिवर्तन पीछे की ओर ले जाता है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद के प्रयोग के असफल होने का प्रधान कारण है सामाजिक विकास की गति की सही समझ का अभाव। इस प्रयोग की असफलता का यह अर्थ नहीं है कि समाजवाद या मार्क्सवाद अप्रासंगिक हो गया है। बल्कि सच तो यह है कि आज भी मार्क्सवाद सबसे ज्यादा प्रासंगिक है। मार्क्सवाद यदि प्रासंगिक न होता तो (If Marxism Wasn't Relevant) सारी दुनिया का पूंजीपतिवर्ग मार्क्सवाद के खिलाफ प्रतिदिन करोड़ों डॉलर खर्च न करता। हम जान लें कि पूंजीपतिवर्ग वर्ग सचेतन होने के कारण अपने शत्रु को अच्छे ढ़ंग से पहचानता है। मार्क्सवादियों को भी अपने दोस्त और दुश्मन की सही परिप्रेक्ष्य में पहचान करनी चाहिए।
फुकुयामा या उनके जैसे मार्क्सवाद विरोधी इस समस्या का जबाव नहीं देते कि समाज में वैषम्य क्यों है ? गरीबी क्यों है ? यह कैसे खत्म होगी ? उदार जनतंत्र इस समस्या का आज तक कोई समाधान नहीं खोज पाया है। मार्क्सवाद की प्रासंगिकता (Relevance of Marxism) इसी बात में है कि वह हमें बताता है कि गरीब गरीब क्यों है ? अमीर अमीर क्यों है ? उदार जनतंत्र हमें इस समस्या का सटीक उत्तर नहीं देता।
फकुयामा के पास पूंजीवादजनित किसी भी समस्या का न तो गंभीर विष्लेषण है और न समाधान ही है। मसलन् पर्यावरण के सवाल को ही लें।
पर्यावरणवादियों ने पूंजीवादी विकास के कारण पर्यावरण को हो रही व्यापक क्षति के सवालों को उठाया है। विकास और प्रकृति का अंतर्विरोध (conflict between evolution and nature) तीखा हुआ है। इस क्रम में जो सवाल पर्यावरणवादियों ने उठाए हैं उन पर गंभीरता से विचार किए बिना, फुकुयामा ने लिखा कि पर्यावरणवादियों ने पर्यावरण के खतरे को अतिरंजित ढ़ंग से पेश किया है।
फुकुयामा का मानना है कि पर्यावरण के लिए जो खतरा पैदा हो गया है उसका समाधान जनतंत्र में संभव है।
फुकुयामा के विचारों की सेमुअल पी. हटिंगटन ने 'दि क्लैस ऑफ सिविलाइजेशन' कृति में तीखी आलोचना की है। वे कहते हैं कि तात्कालिक तौर पर विचारधाराओं के संघर्ष को सभ्यताओं के संघर्ष ने अपदस्थ कर दिया है।
फुकुयामा ने बाद में स्वयं माना कि 'इतिहास का अंत' की धारणा अधूरी थी। इसके कारण अलग हैं।
फुकुयामा ने अपनी नई कृति 'अवर पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर' में लिखा कि हम 'इतिहास के अंत' तक इसलिए नहीं पहुँच पाए क्योंकि हम विज्ञान के अंत तक नहीं पहुँच पाए। मनुष्य अपने एवोल्यूशन को स्वयं नियंत्रित कर रहा है। इसका उदार जनतंत्र पर संभवत: भयानक प्रभाव होगा। फुकुयामा ने हेगेल के सहारे जब इतिहास की व्याख्या पेश की और इस सिलसिले को 'पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर' कृति में आगे बढ़ाया तो वे उदार जनतंत्र के उदार आशावादी नजर नहीं आते, बल्कि नीत्शे से प्रभावित निराशावादी नजर आते हैं।
उल्लेखनीय है कि नीत्शे की लियो स्ट्रॉस ने जो व्याख्याएं पेश की हैं, उनका फुकुयामा पर गहरा असर है।
लियो स्ट्रॉस का मानना है कि यह असंतुष्ट संवेदनाओं का युग है। इतिहास का अंत अंतत: दुखद होता है। इसी तरह बायो टेक्नोलॉजी के बारे में फ्रांसिस फुकुयामा के विचार (Francis Fukuyama's thoughts on biotechnology) मुक्तबाजार की समझ से संचालित हैं। उनका मानना है कि बायो मेडीकल टैक्नोलॉजी हमें बड़े पैमाने पर गंभीर बीमारियों से राहत दिला सकती है। किंतु इसके गंभीर खतरे पैदा हो रहे हैं। ये खतरे व्यापक केटेगरी में रखे जा सकते हैं।
बायो टेक्नोलॉजी मानवाधिकारों के लिए खतरा (Biotechnology threat to human rights)
आज मनुष्य की सामान्य प्रकृति को ही चुनौती दी जा रही है। बायो टैक्नोलॉजी ने मनुष्य के मान-सम्मान, गरिमा और मानवाधिकारों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। व्यापक राजनीतिक -आर्थिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा हो गया है। इसके कारण हिंसक मुठभेड़ों की संभावनाएं बढ़ गई हैं। यदि हम मनुष्य के जेनेटिक और बायोलॉजिकल स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर देते हैं तो मानवीय एकता के विचार के नष्ट हो जाने का खतरा है।
व्यक्तिगत स्वायत्तता के विचार को कम करके देख रहे होंगे। समान नैतिकता का विचार खत्म हो जाएगा। जो लोग बायो टैक्नोलॉजी खरीदने की स्थिति में हैं वे अपनी उम्र बढ़ाने के लिए पैसा खर्च करेंगे। ऐसी स्थिति में अनेक किस्म के खतरे पैदा हो सकते हैं। पीढियों के बीच संघर्ष और भू-राजनय असंतुलन का खतरा पैदा हो जाएगा। समृद्ध उत्तर और गरीब दक्षिण के देशों के बीच असंतुलन और बढ़ जाएगा।
फुकुयामा ने कहा कि स्थिति पहले से ही खराब है। इसके और भी खराब हो जाने की संभावना हमें राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को सही ढ़ंग से बनाना चाहिए। हमें बायो टैक्नोलॉजी के विकास पर इस नजरिए से काम करना चाहिए कि वह बीमारियों के इलाज में मदद करे। यदि हम इस दायरे का अतिक्रमण करते हैं तो मानवाधिकारों को कमजोर करेंगे या नष्ट करंगे। मनुष्य का बायो टैक्नोलॉजिकल रूपान्तरण बुनियादी तौर पर नीत्शेवादी समाधान है।
फुकुयामा के दृष्टिकोण का आधार है तकनीकी निर्धारणवाद। वह मानता है कि तकनीक के द्वारा मनुष्य को बदला जा सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि तकनीक के भविष्य को मनुष्य तय करता है। तकनीक से आप बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं, किंतु मानवीय इच्छाओं और हितों को रूपान्तरित नहीं कर सकते। हां, यह संभव है कि मनुष्य के हितों एवं इच्छाओं के लिए तकनीक का इस्तेमाल कर लिया जाए। किंतु मानवीय इच्छाएं और हित तकनीकी नियंत्रण से स्वतंत्र हैं। इनकी गति और अभिव्यक्ति के नियम भी तकनीक से परे हैं।
What are the prospects of biomedical according to Francis Fukuyama?
फ्रांसिस फुकुयामा के अनुसार बायो मेडिकल की संभावनाएं क्या हैं ? वे इससे क्या चाहते हैं ? वह चाहते हैं कि इससे दीर्घायु बनाने, कैंसर, डायविटीज, हृदय रोग आदि बीमारियों को खत्म करने का काम किया जाय। जेनरेटिव बीमारियों को खत्म किया जाए या ऐसी बीमारियों को खत्म किया जाए जो चेतना को प्रभावित करती हैं, फैसला लेने की क्षमता को प्रभावित करती हैं। बुद्धिमत्ता का विकास, सौंदर्य का विकास आदि क्षेत्रों पर बायो मेडीकल को ध्यान देना चाहिए। फुकुयामा नेबायो मेडीकल की जिन संभावनाओं की बात की है उनमें गंभीर घोटाला है।
मसलन् फुकुयामा बायो मेडीकल की संभावनाओं पर विचार करते हुए यह बात नहीं कहते कि कैसे मनुष्य के प्यार में इजाफा हो, सहिष्णुता, समझदारी, अहिंसकभावबोध में वृद्धि हो। इन पक्षों पर बायो मेडीकल की संभावनाओं का विकास क्यों नहीं हो सकता।
फुकुयामा चाहते हैं कि कैंसर, डायबिटीज, हृदय रोग, एड्स आदि का इलाज खोजा जाए। किंतु उनकी चिंता मलेरिया, क्षयरोग, कुष्ठ रोग, अपंगता आदि की नहीं है। अस्वच्छता, अखाद्य और पानी प्रदूषण से जो बीमारियां पैदा होती हैं उनसे कैसे मुक्ति पाएं, इसे फुकुयामा ने अपनी सूची में जगह तक नहीं दी है।
उल्लेखनीय है कि अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में मोटर वाहन दुर्घटना और गोली चलाने से सबसे ज्यादा लोग मारे जाते हैं। उसके बाद कैंसर, डायबिटीज, हृदय रोग आदि से सबसे ज्यादा लोग मरते हैं। ये बीमारियां जीवनशैली एवं खान-पान से संबंधित हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यदि फुकुयामा के नजरिए को देखें तो पता चलेगा कि उसकी चिन्ताएं पूंजीवाद के संरक्षण और पल्लवन से जुड़ी हैं। जो लोग समाज बदलना चाहते हैं। पूंजीवाद से मुक्ति की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, उन्हें फुकुयामा की वैचारिक चमक और भूल-भूलैया से सतर्क रहना होगा।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर
(सोमवार, 17 अगस्त 2009)