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हरियाणवी सिनेमा के 'सतरंगी' सपने

Review of the film 'Satrangi' directed by Sandeep Sharma. खुशियों पर पहला हक किसका? बताती है संदीप शर्मा के निर्देशन में बनी हरियाणवी फिल्म 'सतरंगी'

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Review of the film 'Satrangi' directed by Sandeep Sharma

Review of the film 'Satrangi' directed by Sandeep Sharma

संदीप शर्मा" के निर्देशन में बनी 'सतरंगी' फ़िल्म की समीक्षा

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"चंद्रावल" एकमात्र सुपरहिट हरियाणवी फिल्म बनने के बाद हरियाणा की मिट्टी ने जैसे सिनेमा उपजाना बंद सा कर दिया था। लेकिन फिर कुछ सिने रसिकों को अपने दायित्व याद आए तो जैसे मानों हरियाणा की मिट्टी में जिस तरह धरती सोना उगलती है वैसे ही यह सिनेमा के लिए भी उपजाऊ होने लगी। आलम ये हुआ कि इस धरती पर सिनेमा का पुनर्जन्म हुआ। "लाडो", "पगड़ी द ऑनर" जैसी फिल्मों को नेशनल अवॉर्ड मिलने से। इसी बीच आई "सतरंगी" यह भी राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से नवाजी गई।

हाल में तो आलम ये है कि "दादा लखमी" जैसी फिल्म ने तो वह दिखा दिया कि एक समय बाद यहां का ही कोई निर्देशक अवश्य ऑस्कर तक भी जाएगा। खैर "सतरंगी" जब साल 2016 में नेशनल अवॉर्ड से नवाजी गई तो "संदीप शर्मा" के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में क्या था खास बात उसकी आज करते हैं।

तो जी हरियाणा एक ऐसा प्रदेश जहां भगवान श्री कृष्ण ने कुरूक्षेत्र की भूमि पर पहली बार गीता का उपदेश दिया और उसी कुरूक्षेत्र को हक के इंसाफ के लिए युद्ध क्षेत्र भी बनाया, मगर आज हजारों साल बाद इक्कीसवीं सदी की हरियाणा की भूमि अपने जोश और जुनून से एक नया रंग भर रही है। पुरुष प्रधान इस प्रदेश में महिला शक्ति ने भी अपना पूरा दमखम दिखाना शुरू जब किया तो वह अंतरिक्ष तक भी पहुंची।

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आज तक हम कहते आ रहे हैं कि महिलाएं भी अब हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। तो हमें यह भी कहना चाहिए कि भाई पुरुषों की बराबरी करनी ही क्यों? क्या महिलाओं का अपना कोई अस्तित्व नहीं? क्यों भ्रूण हत्या जैसा अभिशाप आज भी मौजूद है? ढके-छुपे तरीके से ही सही, क्या कन्या भ्रूण हत्याएं होनी बंद हो गईं? 

यह फिल्म "बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के विज्ञापन" को तो दिखाती है, साथ ही उन्हीं के साथ, उसी पर हो रहे अत्याचारों को भी दिखाती है। उन्हें न पढ़ाने की बातें भी करती है। भ्रूण हत्या के पहलू को भी पकड़ती है किंतु उससे कहीं ज्यादा एक बाप -बेटी के रिश्ते की कहानी को बयां करती है।

एक ऐसा बाप जिसकी भरी जवानी में बीवी चल बसी लेकिन उसने अपने बेटे, बेटी को पढ़ा-लिखा कर इस काबिल बना दिया कि वे आज अपने पैरों पर खड़े होने लायक हो गए। अपने सपनों को अपने सीने में दफन करके उसने बच्चों के सुनहरे सपनों की, उनके ख्वाबों की ताबीर को सजाया। फिर एक दिन कुछ ऐसा घटा जिसकी कल्पना भी आप नहीं कर सकते।

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बेटियों को सर्वोपरि या उन्हें ममत्व और करुणा से भरी होने के गुण अपनी मांओं से ही मिले होते हैं संभवत: यही बात जेहन में रखकर इस फ़िल्म के निर्माता, निर्देशकों ने इसे बनाया।

कन्या भ्रूण हत्या जैसे सामाजिक मुद्दों को अलावा बच्चों का सपने पूरे करने के लिए उनका अपने मां बाप को छोड़ कहीं दूर बस जाने तथा उसके बाद के पारिवारिक संबंधों को यह फिल्म पूरी तरह पकड़ कर रखने में कामयाब हुई है तो इसके लिए निर्देशक, लेखक की सराहना की जानी चाहिए।

हरियाणा की सिनेमाई धरती से उपजी यह एक ऐसी कहानी है, एक ऐसी फ़िल्म है जो आने वाले समय के साथ अपनी प्रासंगिकता को और अधिक कहीं न कहीं मजबूत ही करती जाएगी।

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फिल्म की कहानी के अनुरूप उसका निर्देशन ही नहीं है बल्कि कैमरावर्क, बैकग्राउंड स्कोर भी उसका सहारा बनता है। हरियाणा के ग्रामीण इलाकों की रियल लोकेशन इसे दर्शनीय बनाती है तो संवाद इसके आपका ध्यान खींचते हैं अपनी ओर।

गानों में "जीना दूभर" सबसे उम्दा लगता है सुनने में। यह गाना आपको अपने शब्दों में निहित भावों के साथ बहा कर ले जाता है। "सपने", "तेरे बिना", "हैप्पी बर्थडे" गाने फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में भरपूर सहयोग देते हैं। "सपने" गाने पर तो थिरकने को जी चाहता है।

फिल्म बताती है कि शादी का मतलब मां बाप की खुशी से होता है। और बेटियां घर की रोशनी होती है बाप के लिए। किसी भी बाप के लिए बेटियां ब्याह देना उसके लिए दुनिया का सबसे खुशनसीब इन्सान होना होता है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि आखिर कब तक बेटियों को लेकर हम भारतीय समाज की सोच ऐसी ही रहेगी?

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खुशियों पर पहला हक किसका? बताती है'सतरंगी'

यह फिल्म कहती है कि खुशियों पर पहला हक बेटियों का ही तो होता है? लेकिन क्या यह हक आपके-हमारे घरों में उन्हें दिया जाता है? इस पर विचार करने के लिए भी फिल्म मजबूर कर जाती है।

फिल्म में "नरगिस नांदल", "सचिन शौकीन", "यशपाल शर्मा", "सागर सैनी", "अमित जयरथ", "गीता अग्रवाल शर्मा", "नवीन ओहलान", "सरोज शर्मा", "सुनीता सूद", "प्रमोद अशरी", "मनीषा शर्मा", "शांति देवी", "सुनील बांगर", "महावीर गुड्डू" आदि जैसे कुछ तब के चर्चित और कुछ आज के दौर के जाने पहचाने चेहरों का अभिनय मिलकर इस कहानी को उस लेवल पर ले जाता है जहां से इसे देखते हुए आपके दिलों में हर वह भाव बराबर उठता है जो एक सार्थक सिनेमा के लिए उठना चाहिए।

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अपने मुद्दे के चलते सामाजिक मुद्दों की यह फ़िल्म जब 63 वां नेशनल अवॉर्ड अपने नाम करने में कामयाब तब हो जब आधे से ज्यादा अभिनेता-अभिनेत्रियों के जीवन की पहली फ़िल्म हो जिसमें वे अभिनय कर रहे हैं तो भी खास हो जाती है।

हंस विद्या मूवीज के बैनर तले बनी इस फ़िल्म में साउंड नीतीश शर्मा, कमलेश पंडित का, बैकग्राउंड स्कोर राजा यादव का, डी. ओ. पी राहुल गरासिया का और एडिटिंग उपेंद्र विक्रम की तथा महिपाल सैनी व खुद निर्देशक संदीप शर्मा का लिखा गया स्क्रीनप्ले, महीपाल सैनी, अमित दहिया के लिखे गए डायलॉग, कृष्ण भारद्वाज के लिरिक्स, नीतू सिंह, सुबोध शर्मा, रोहित शर्मा, विकास दुआ की आवाज में गाने और रोहित शर्मा का म्यूजिक मिलकर इसे अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने में पूरा सहयोग करते नजर आते हैं।

यह फिल्म समाज की परवाह न करके अपनों की परवाह करने की बात करती। यह फिल्म बेटियों की परवाह करने की बात के बहाने से संबंधों की परवाह करने की बात करती है। यह फिल्म अपनों के द्वारा ही दिए जा धोखों से बचने की बात करती है।

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यह फिल्म खास करके उन लोगों को भाएगी जिन्होंने अपने किसी करीबी को हमेशा के लिए खोया है। यह फिल्म उन्हें पसंद आएगी जिन्हें अपने से ज्यादा दूसरों की चिताएं हैं संबंधों में। यह फिल्म उन्हें भाएगी जिनके जीवन में ऐसी बेटियां हैं या हो सकती थीं। यह फ़िल्म उन्हें भाएगी जिन्होंने एक दीये की तरह जलकर अपने घर को रोशन किया। यह फ़िल्म उन्हें भाएगी जिन्होंने अपनी खुशियों को छोड़कर दूसरों के जीवन को खुशियों से रोशन किया।

नोट - इंडिपेंडेंट डायरेक्टर्स के साथ यह समस्या रही है कि या तो वे फिल्मों को बहुत हार्ड हिटिंग बना देते हैं जिससे वे एक सीमित बौद्धिक वर्ग तक सिमट कर जाती हैं या फिर बजट के अभाव में उस स्तर तक वे नहीं पहुंच पाती। यह फ़िल्म बेहतर है इन दोनों में नहीं फंस पाई लेकिन बजट की कमी और दो -एक कलाकार का थोड़ा सा हल्का अभिनय इसे अपने उरूज पर ले जाते-जाते छोड़ देता है।

अपनी रेटिंग - 4 स्टार

तेजस पूनियां

Review of the film 'Satrangi' directed by Sandeep Sharma

 
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