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ईडब्ल्यूएस यानी सवर्ण आरक्षण पर एच एल दुसाध का लेख
जिस ईडब्ल्यूएस यानी सवर्ण आरक्षण को कभी संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया था, कि चूंकि आरक्षण का आधार निर्धनता नहीं, सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है अतः गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की मांग पर स्वीकृति दर्ज कराने की कोई युक्ति नहीं है। 2019 में आनन- फानन में सप्ताह भर के भीतर वह आरक्षण लागू कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया को चौंका दिया, परन्तु चौंकने के बावजूद तमाम सुधीजनों को यकीन था कि सर्वोच्च अदालत में यह आरक्षण टिकेगा नहीं!
किन्तु इस आरक्षण से लोगों को एक झटका लगना बाकी था, जो सात नवम्बर 2022 को लगा.
सात नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित के नेतृत्व पांच जजों की पीठ ने 3:2 से मोदी सरकार द्वारा संविधान के 103वें संशोधन के जरिये सामान्य वर्ग को दिए गए 10% आरक्षण पर समर्थन की मुहर लगा दी. ऐसा होने से जहां जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का बुद्धिजीवी वर्ग निर्लिप्तता का भाव प्रदर्शित कर रहा है, वहीं इस इस वर्ग के आमजनों में जश्न का माहौल है.
सवर्णों का जश्न में डूबना तमाम विवेकवान लोगों को विस्मित व परेशान कर रहा है. आज राष्ट्र का विवेक खुद से सवाल कर रहा है कि क्या आरक्षण का दुनिया में सबसे अपात्र सवर्ण भी आरक्षण के पात्र हो सकते हैं? इस सवाल का जवाब जानने के लिए जरा अतीत के हिन्दू आरक्षण का सिंहावलोकन कर लेना पड़ेगा!
हजारों साल से भारतवर्ष आरक्षण का ही देश रहा है, यह सत्य न तो देश के अर्थशास्त्रियों और न ही समाजशास्त्रियों ने ही खुलकर बताया. जबकि सचाई यही है कि इस देश की समाज व्यवस्था का केन्द्रीय तत्व आरक्षण ही रहा है. यह बात दुनिया के तमाम विद्वान ही मानते हैं कि भारत का हिन्दू समाज सदियों से ही वर्ण-व्यवस्था के द्वारा परिचालित होता रहा है. ऐसा मानने वाले यदि अपनी दृष्टि थोड़ी और प्रसारित किये होते तब पाठ्य पुस्तकों में यह लिखा मिलता कि हिन्दू समाज सदियों से ही आरक्षण व्यवस्था के तहत परिचालित होता रहा है. तब सामान्य पढ़ा-लिखा हो या पंडित, हर कोई आरक्षण के चरित्र से अवगत होता. तब न तो कोई दलित-पिछड़ों के आरक्षण के प्रति ईर्ष्याकातर होता, न ही कोई वर्ण व्यवस्था के सुविधाभोगियों के नए आरक्षण की वकालत करता नजर आता.
हिन्दू आरक्षण व्यवस्था क्या है?
जिस वर्ण व्यवस्था के द्वारा हमारे समाज के परिचालित होने की बात कही जाती है, उसमें सबसे आवश्यक बात यह रही कि चार वर्ण से कई सहस्र जातियों में बंटे लोगों के लिए पेशे/कर्म पैत्रिक सूत्र से निर्दिष्ट रहे. किसी भी जाति के लिए निर्दिष्ट पेशे/कर्म, दूसरे जाति/वर्ण के लोगों के लिए कठोरतापूर्वक निषिद्ध रहे. इस निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने पर कर्म संकरता की सृष्टि होती, जो कि राज्यादेश से दंडनीय अपराध और शास्त्रानुसार अधर्म घोषित की गयी थी.
कर्म संकरता की वर्जना के कारण वर्ण व्यवस्था में पेशों की विचलनशीलता (प्रोफेशनल मोबिलिटी) पूरी तरह निषिद्ध होकर रह गयी. चूँकि वर्ण व्यवस्था में कर्म संकरता की निषेधाज्ञा के कारण प्रत्येक जाति/वर्ण के लोगों ही पीढ़ी दर पीढ़ी, खास-खास पेशों से जुड़कर रह जाना पड़ा, इसलिए वर्ण व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहा जाता है.
वैदिक काल से जारी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था में ब्राह्मणों के लिए आरक्षित रहे पठन-पाठन, पूजा-अर्चना, मंत्रोंपचार, दान-ग्रहण, अस्त्र-शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण, आश्रम-मंदिरों का रख-रखाव राज्य संचालन में मंत्रणादान इत्यादि कार्य. क्षत्रियों के लिए भू-स्वामित्व के अधिकार के साथ आरक्षित रहे सैन्यवृत्ति व शासन-प्रशासन से जुड़े सभी कार्य. वैश्यों के लिए आरक्षित रहा पशु-पालन, व्यवसाय-वाणिज्यादि कार्य. दूसरी ओर हिन्दू आरक्षण व्यवस्था में शुद्रातिशूद्र अर्थात दलित-आदिवासी-पिछड़ों के लिए आरक्षित हुई प्रधानतः तीन उच्चतर वर्णों अर्थात सवर्णों की सेवा, वह भी पारिश्रमिकरहित! अवश्य ही परिवहन, मछुआरी, चर्मकारी इत्यादि निम्नकोटि की अलाभकर – वृत्तियां भी इन्हीं के हिस्से में आयीं. इसके अतिरिक्त उत्पादन से जुड़े सभी कार्य भी शुद्रातिशूद्रों के लिए निर्दिष्ट रहे. पर, उत्पादित फसल पर अधिकार रहा सवर्णों का ही.
सारांश में कहा जाय तो वर्ण व्यवस्था अर्थात हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत (आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षिक-धार्मिक-सांस्कृतिक) ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के लिए आरक्षित कर उन्हें जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के रूप में विकसित होने का अवसर सुलभ कराया गया, जबकि दलित-पिछड़ों को शक्ति के समस्त स्रोतों से दूर धकेल कर एक ऐसे अधिकारविहीन अशक्त मानव समुदाय में तब्दील किया गया, जिनके लिए अच्छा नाम रखने व मोक्ष के लिए पूजा-पाठ करने तक का कोई अधिकार नहीं रहा. हिन्दू आरक्षण के अभिशाप से निजात दिलाने के लिए ही पहले दलित-आदिवासियों के लिए आधुनिक आरक्षण लागू हुआ. और बाद में जब 7 अगस्त, 1990 को पिछड़ों को आरक्षण दिलाने की घोषणा हुई, पूना-पैक्ट के ज़माने से आरक्षण का विरोध करने वाले विशेषाधिकारयुक्त वर्ग के छात्रों, मीडिया, लेखकों, साधु-संतों एवं राजनीतिक दलों की आधुनिक आरक्षण विरोधी भावना ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी.
मंडलवादी आरक्षण ने सवर्णों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया था. इससे हुई क्षति की भरपाई ही दरअसल मंडल उत्तरकाल में शासक दलों का प्रधान लक्ष्य रहा.
मंडल के बाद शासकों ने दो मोर्चों पर काम शुरू किया. एक, आरक्षण को कागजों की शोभा बनाना और दूसरा सवर्णों को आरक्षण दिलाना.
कहना न होगा 24 जुलाई,1991 को गृहित नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर भारत का शासक वर्ग मंडल से हुई क्षति की भरपाई की दिशा में अग्रसर हुआ! मंडलवादी आरक्षण लागू होते समय कोई कल्पना नहीं कर सकता था, पर, यह अप्रिय सचाई है कि आज की तारीख में हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग का धन-दौलत सहित राज-सत्ता, धर्म-सत्ता, ज्ञान-सत्ता पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा हो गया है.
सवर्णों का आज की तारीख में जो बेहिसाब वर्चस्व कायम हुआ है उसमें पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह की विराट भूमिका रही. किन्तु इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तमाम पूर्ववर्तियों को मीलों पीछे छोड़ दिया. इनके ही कार्यकाल में मंडल से हुई क्षति की कल्पनातीत रूप से हुई भरपाई. सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि जो आरक्षण आरक्षित वर्गों, विशेषकर दलितों के धनार्जन का एकमात्र स्रोत था, वह मोदी राज में लगभग शेष कर दिया गया है. इस आशय की घोषणा खुद मोदी सरकार के वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी ने 5 अगस्त, 2018 को इन शब्दों में कर दिया- ‘आरक्षण रोजगार की गारंटी नहीं है, सरकारी भर्ती रुकी हुई है और नौकरियां ख़त्म हैं, इसलिए अब आरक्षण का कोई अर्थ नहीं.’
बहरहाल जिस मोदी ने आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने एवं एवं आरक्षित वर्गों को गुलामी की ओर ठेलने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की, उनके समक्ष धन-दौलत पर सवर्णों का अभूतपूर्व वर्चस्व कायम करवाने बाद जो थोड़े बाकी काम बचे थे, उनमें शायद प्रमुख था गरीबों को आरक्षण प्रदान करना, जिसके लिए उनकी पार्टी प्राय: दो दशकों से प्रयास कर रही थी. और मौका माहौल देखकर उन्होंने जनवरी, 2019 के प्रथमार्द्ध में वह कर दिखाया.
बहरहाल जिन सवर्णों को नया आरक्षण सुलभ कराया गया है, उनकी गरीबी का एक बार ठीक से जायजा लेने पर किसी का भी सर चकरा जायेगा.
केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 1 जनवरी 2016 को जारी आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार में ग्रुप ‘ए’ की कुल नौकिरयों की संख्या 84 हजार 521 है. इसमें 57 हजार 202 पर सामान्य वर्गों ( सवर्णों ) का कब्जा है. यह कुल नौकरियों का 67.66 प्रतिशत होता है. इसका अर्थ है कि 15-16 प्रतिशत सवर्णों ने करीब 68 प्रतिशत ग्रुप ए के पदों पर कब्जा कर रखा है और देश की आबादी को 85 प्रतिशत ओबीसी, दलित और आदिवासियों के हि्स्से सिर्फ 32 प्रतिशत पद हैं.
अब गुप ‘बी’ के पदों को लेते हैं. इस ग्रुप में 2 लाख 90 हजार 598 पद हैं. इसमें से 1 लाख 80 हजार 130 पदों पर अनारक्षित वर्गों का कब्जा है. यह ग्रुप बी की कुल नौकरियों का 61.98 प्रतिशत है. इसका मतलब है कि ग्रुप बी के पदों पर भी सर्वण जातियों का ही कब्जा है. यहां भी 85 प्रतिशत आरक्षित संवर्ग के लोगों को सिर्फ 28 प्रतिशत की ही हिस्सेदारी है.
कुछ ज्यादा बेहतर स्थिति ग्रुप ‘सी’ में भी नहीं है. ग्रुप सी के 28 लाख 33 हजार 696 पदों में से 14 लाख 55 हजार 389 पदों पर अनारक्षित वर्गों ( अधिकांश सवर्ण ) का ही कब्जा है यानी 51.36 प्रतिशत पदों पर! हां, सफाई कर्मचारियों का एक ऐसा संवर्ग है, जिसमें एससी, एसटी और ओबीसी 50 प्रतिशत से अधिक है.
जहां तक उच्च शिक्षा में नौकरियों का प्रश्न है 2019 में आरटीआई के सूत्रों से पता चला था कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर, एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पदों पर सवर्णों की उपस्थित क्रमशः 95.2 , 92.90 और 76.12 प्रतिशत रही.
आंबेडकर के हिसाब से शक्ति के स्रोत के रूप में जो धर्म आर्थिक शक्ति के समतुल्य है, उस पर आज भी 100 प्रतिशत आरक्षण इसी वर्ग के लीडर समुदाय का है. धार्मिक आरक्षण सहित सरकारी नौकरियों के ये आंकड़े चीख-चीख कह रहे हैं कि आजादी के 75 सालों बाद हजारों साल पूर्व की भांति सवर्ण ही इस देश के मालिक हैं. सरकारी नौकरियों से आगे बढ़कर यदि अर्थ, राज और धर्म- सत्ता पर नजर दौड़ाई जाय तो इस देश के मालिकों का सर्वत्र ही 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नजर आएगा! अतः भारत के जिस तबके की प्रगति में न तो अतीत में कोई अवरोध खड़ा किया गया और न आज किया जा रहा है; जिनका आज भी शक्ति के समस्त स्रोतों पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा है: आरक्षण का इससे भी अपात्र दुनिया में कोई हो सकता है! ऐसे शक्तिसंपन्न अपात्रों के आरक्षण पर समर्थन की मोहर लगाने का कोई औचित्य है, जो सर्वोच्च न्यायालय में छाये सुविधाभोगी वर्ग के न्यायधीशों ने कर दिखाया है!
बहरहाल ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर सर्वसम्मति से निर्णय न लिए जाने से कुछ लोगों को लगता है कि यदि इस पर पुनर्विचार की अपील की जाय तो हो सकता है यह ख़ारिज हो जाए. ऐसे में वे पुनर्विचार की याचिका दायर करने की मानसिक प्रस्तुती ले रहे हैं. किन्तु मंडल उत्तरकाल में जिस तरह सुविधाभोगी वर्ग का हर तबका वर्ग संघर्ष की मानसिकता से पुष्ट होकर वर्ण व्यवस्था के जन्मजात वंचितों को गुलामों की अवस्था में पहुंचाने तथा हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों के हाथ में शक्ति के समस्त स्रोत सौंपने पर आमादा है, उससे बाकी बातें भूलकर बहुजनों को मोदी की भांति अपनी तानाशाही सत्ता हासिल करने में निमग्न होना चाहिए, ताकि तानाशाही सत्ता के जोर से अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में अल्पजन सुविधाभोगी वर्ग को उसके संख्यानुपात पर रोककर अतिरिक्त 60- 70 प्रतिशत अवसर वंचितों के मध्य वितरित कराया जा सके! इसके लिए सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई लड़ने का मोर्चा बनाने की आवश्यकता होगी, जिसके दायरे में होगा भारत के विविध समाजों के स्त्री पुरुषों के संख्यानुपात में सेना, न्यायिक व पुलिस सेवा के साथ सरकारी और निजी क्षेत्र की समस्त नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन, फिल्म- मीडिया, पौरोहित्य, शिक्षण संस्थानों के प्रवेश व अध्यापन इत्यादि सहित ए टू जेड तमाम क्षेत्र!
-एच.एल.दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)
EWS means upper caste reservation: The world's largest ineligible became eligible for reservation!