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नए कृषि कानूनों के विधिक परीक्षण की आवश्यकता है
Farm bills 2020 explained | new bill for farmers in hindi
अगर आप को लगता है कि नया कृषि कानून केवल किसानों का ही अहित करेगा तो यह आप का भ्रम है। कृषि और किसानों के विषय पर नियमित अध्ययन और लेखन करने वाले पत्रकार, पी साईंनाथ ने द वायर में एक विस्तृत लेख लिख कर इन कानूनों में व्याप्त विधिक विरोधाभासों को उजागर किया है।
अब कृषि कानून में जो कानूनी विरोधाभास (The legal contradiction in agricultural law) है, उसकी चर्चा करते हैं।
“No suit, prosecution or other legal proceedings shall lie against the Central Government or the State Government, or any officer of the Central Government or the State Government or any other person in respect of anything which is in good faith done or intended to be done under this Act or of any rules or orders made thereunder.”
उपरोक्त उद्धरण द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स ( प्रोमोशन एंड फैसिलिटेशन ) एक्ट 2020 की धारा 13 { Section 13 of The Farmers Produce Trade and commerce (Promotion and Facilitation) Act, 2020} का है। इसे हिंदी में पढ़े,
"कोई भी वाद, या अभियोजन, या अन्य कोई भी विधिक कार्यवाही, केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार, या केंद्रीय सरकार के किसी अधिकारी या राज्य सरकार के किसी अधिकारी या किसी भी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध, जिसने कोई भी कार्य यदि बद इरादे या बद इरादे के उद्देश्य से नहीं किया है तो, उसके विरुद्ध नहीं की जा सकेगी।"
यह तीन कृषि कानूनों में से वह एक महत्वपूर्ण कानून है जो, निजी मंडी या किसी को भी, जो पैन कार्ड धारक है, कृषि उत्पाद खरीदने की शक्ति और अधिकार प्रदान करता है।
हालांकि, देश मे और भी ऐसे कानून हैं जो, सरकारी अफसरों को, कर्तव्यपालन के दौरान, उनके द्वारा किये गए कतिपय कार्यों को, जो नेकनीयती से किये गए हैं, के संबंध में, अभियोजन के खिलाफ रक्षा कवच के रूप में बनाये गए हैं। पर यह कानून, इस प्रकार के संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनों में सबसे अलग प्रकृति का है। लोकसेवकों को ही नहीं, ऐसे संरक्षण, इन कानूनों के इतर, उन सबको दिया जाना चाहिए, जो कोई भी कार्य बद इरादे या बिना मेंसेरिया के करते हैं। अपराध का मूल ही मेंसेरिया से शुरू होता है। लेकिन वे जो कर रहे हैं वह नेक इरादे से ही कर रहे हैं, यह एक अस्पष्ट और धुंधली व्याख्या है। वह कर क्या रहे हैं यह भी, नेक और बद इरादे की तरह, उससे कम महत्वपूर्ण नहीं बात नहीं है।
अब इसी अधिनियम की धारा 15 को देखें,
“No civil court shall have jurisdiction to entertain any suit or proceedings in respect of any matter, the cognizance of which can be taken and disposed of by any authority empowered by or under this Act or the rules made thereunder.”
" इस अधिनियम के अंतर्गत या इस अधिनियम के अंतर्गत बने किसी भी नियमावली के सम्बंध में, किसी भी सिविल यानी दीवानी न्यायालय को कोई भी वाद सुनने या संज्ञान लेने, या अन्य किसी भी प्रकार की सुनवाई करने का अधिकार नहीं होगा।"
अब सवाल उठता है कि धारा 13 के अंतर्गत केंद्र सरकार और राज्य सरकार तथा इनके अधिकारियों को इस प्रकार का विधिक संरक्षण तो दिया ही गया है पर इन सबके साथ यह भी लिखा गया है कि कोई अन्य व्यक्ति, तो यह कोई अन्य व्यक्ति, जो न सरकार है और न ही लोकसेवक, तो वह कौन है, जिसे इस प्रकार का सुरक्षा कवच प्रदान किया गया है ? क्या यह सुरक्षा कवच, बड़े या बहुत बड़े व्यापारियों, कम्पनियों और कॉरपोरेट के लिये तो नहीं इस कानून में बनाया गया है ? यह प्राविधान, इसे उन कानूनों से अलग करता है जहां लोकसेवकों को पहले से ही इस प्रकार की लीगल इम्युनिटी प्राप्त है।
धारा 15 का शुरुआती वाक्य कि 'कोई भी वाद, अभियोजन या विधिक कार्यवाही नहीं चलाई जा सकेगी' न केवल किसानों को ही ऐसा करने के लिये प्रतिबन्धित करता है बल्कि इस प्रकार के सभी न्यायिक रास्ते बंद कर देता है जो किसी भी व्यक्ति को विधिक विकल्प पाने का एक मौलिक अधिकार देता है। यह अधिकार, किसी किसान संगठन को भी दीवानी न्यायालय में जाने के अधिकार से वंचित करता है।
हमारा संविधान हर नागरिक को न्यायालय जाने और वाद दायर करने का मौलिक अधिकार देता है, पर यह कानून, उक्त अधिकार को प्रतिबंधित करता है। इस प्रकार का विधिक सुरक्षा कवच या लीगल इम्युनिटी अनेक संदेहों को जन्म देता है। यह 1975 - 77 के आपातकाल की भी याद दिलाता है जब सरकार ने नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए थे। साथ ही यह एक स्वेच्छाचारी कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी भी है। इसे यदि लागू किया गया तो नौकरशाही का एक सामान्य अधिकारी भी न्यायपालिका के रूप में बदल जाएगा और वह, जज भी होगा, अभियोजक भी और फैसले को लागू कराने वाला एक्जीक्यूटिव भी। यह संविधान की मूल अवधारणा चेक और बैलेंस तथा शक्ति पृथक्करण के विरुद्ध है। केवल किसानों से जुड़ा यह कानून एक सामान्य किसान को सर्वशक्ति सम्पन्न कॉरपोरेट के समक्ष एक भोज्य की तरह लाकर रख देता है।
इस कानूनों के इन विधिक विरोधाभासों पर दिल्ली बार काउंसिल ने भी, अपनी आपत्ति दर्ज कराई है। दिल्ली बार काउंसिल ने प्रधानमंत्री जी को जो चिट्ठी भेजी है, में यह लिखा है कि,
"कैसे एक दीवानी प्रकृति का वाद, सुनवाई करने और निपटाने के लिये ऐसे प्रशासनिक तंत्र को दिया जा सकता है जो न्यायपालिका का अंग ही न हो और वह सीधे कार्यपालिका के अंतर्गत आत्व हो ?"
इस प्रशासनिक तंत्र में एसडीएम और जिलाधिकारी आते हैं। वे न्यायपालिका के अंग नहीं है अतः वे न्यायिक स्वतंत्रता की श्रेणी में भी नहीं आते हैं। कार्यपालिका का यह तबका अपने कार्यप्रणाली में किस प्रकार सरकार के निर्णयों और इरादे से आज़ाद ख्याल है यह किसी से छुपा नहीं है। ऐसे में वही फैसले आएंगे जो सरकार के मनमाफिक होंगे। सरकार किस तरफ रहेगी यह बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि, आज यह पूरा कानून और इस व्यापक जन आंदोलन को देख कर यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि सरकार किसकी तरफ है, कॉरपोरेट या बड़ी कम्पनियों की तरफ या किसानों की तरफ।
बार काउंसिल का यह भी कहना है कि,
"कार्यपालिका को न्यायपालिका की शक्तियां इस प्रकार हस्तांतरित कर देना एक खतरनाक संकेत और बड़ी भूल होगी। "
पत्र में अंग्रेजी के शब्द डैंजरस और ब्लंडर लिखे गए हैं। बार काउंसिल को यह भी आशंका है कि इसका असर वकालत के पेशे पर भी पड़ेगा। इससे दीवानी और जिला न्यायालयों के अधिकारों पर भी असर पड़ेगा।
अब इन्हीं कृषि कानूनों के एक और कानून, द फार्मर्स ( इम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन ) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंश एंड फार्म सर्विसेज एक्ट 2020 को भी देखें। इस अधिनियम की धारा 18 भी बार बार नेक इरादे से किये गए कर्तव्यों की बात करती है। धारा 19 के अनुसार,
“No civil Court shall have jurisdiction to entertain any suit or proceedings in respect of any dispute which a Sub-Divisional Authority or the Appellate Authority is empowered by or under this Act to decide and no injunction shall be granted by any court or other authority
"इस कानून के या इस कानून के अनुसार बनाये गए नियमों के अंतर्गत, दी गयी शक्तियों और अधिकार से सम्पन्न किसी भी सब डिविजनल अधिकारी ( एसडीएम ) या अपीली अधिकारी द्वारा जारी किए गए किसी भी आदेश के बारे में, कोई भी वाद किसी भी सिविल न्यायालय में न तो दायर किया जा सकेगा और न ही उसे ( सिविल न्यायालय को ) उक्त आदेश को स्थगित ( स्टे ) करने, या उस पर सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार रहेगा।"
अब इसी के साथ संविधान का अनुच्छेद 19 भी पढ़ लें, जो हर नागरिक को अभिव्यक्ति और बोलने की आज़ादी, शांतिपूर्ण ढंग से एकत्र होने, सभा करने, जुलूस निकालने और संगठन बनाने का मौलिक अधिकार देता है। जब कि इस कृषि कानून की यह धारा 19, व्यक्ति के न्यायालय जाने तक के अधिकार को छीन ले रही है। इस अधिनियम की धारा 19 न केवल संविधान के अनुच्छेद 19 का उल्लंघन करती है, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 32, जो हर नागरिक को न्यायालय में जाने और न्यायिक राहत पाने का मौलिक अधिकार देती है, को भी बाधित करती है।
संविधान का अनुच्छेद 32, संविधान के मूल ढांचे का एक भाग है और संविधान के मूल ढांचे के साथ छेड़छाड़ करने का अधिकार संसद को भी नहीं है।
इन कानूनों में कानून बनाने की स्थापित परंपराओं का भी पालन नहीं किया गया है। यह कहना है, सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वकील व बीजेपी के नेता अश्विनी उपाध्याय का। अश्विनी उपाध्याय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे एक पत्र में कहा है कि
"कानून बनाने से पहले उसके ड्राफ्ट को पब्लिक डोमेन में डालना जरूरी है और तभी लोग सुझाव देंगे और फिर जो कानून बनेगा उसमें खामियों की संभावना कम रहेगी। कृषि कानून के बारे में भी पहले ड्राफ्ट जनता के सामने नहीं आया। ऐसे में आपसे आग्रह है कि कोई भी नया कानून जब बनाना है तो ड्राफ्ट 60 दिनों पहले वेबसाइट पर डाला जाए ताकि लोगों का सुझाव आ सके।"
उपाध्याय जी का यह तर्क इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आज जिन तीन कृषि कानूनों को सरकार बार बार किसान हितैषी बता रही है, उनके बारे में पहले ही दिन से किसान संगठन यह सवाल सरकार से पूछ रहे हैं कि यह कानून किस किसान या किसान संगठन की मांग या अनुरोध पर लाये गए हैं ? यहीं यह सवाल उठता है कि क्या यह कानून विश्व बैंक और कॉरपोरेट को खेती सेक्टर में जबरन घुसा कर देश की कृषि आर्थिकि को तो बर्बाद करने के लिये नहीं लाये गए हैं ?
एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय आगे अपने पत्र में कहते हैं कि,
"कानून बनाने के लिए जो मौजूदा प्रक्रिया अपनाई गई है वह संवैधानिक नहीं है। उन्होंने कहा कि मौजूदा प्रक्रिया में सेक्रेटरी कानून का ड्राफ्ट तैयार करता है और कैबिनेट उसे पास करता है और फिर जब सदन के सामने उसे पेश किया जाता है तो जनता को उस बारे में थोड़ी सी जानकारी मिल पाती है।"
लेकिन इन कानूनों के अध्यादेश भी लॉकडाउन के समय चुपके से लाये गए और जब इन्हें संसद में पेश किया गया तो, इन पर खुल कर बहस भी नहीं हुयी। राज्यसभा में तो उपसभापति हरिवंश जी ने माइक म्यूट करा कर बेहद अलोकतांत्रिक और शर्मनाक तरीके से इन कानूनों को पारित करा दिया। हरिवंश जी का आचरण देश के संसदीय इतिहास में एक काले धब्बे की तरह याद रखा जाएगा।
अश्विनी उपाध्याय कुछ सुझाव भी देते हैं। वे लिखते हैं,
"कानून बनाने की प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है। राष्ट्रीय सुरक्षा को छोड़ अन्य विषय पर जब भी कानून बनाना हो तो दो महीने पहले उसका ड्राफ्ट सरकार के संबंधित मिनिस्ट्री के वेबसाइट पर आना चाहिए ताकि पब्लिक उसे देख सके। इससे ड्राफ्ट कानून पर चर्चा होगी और एक्सपर्ट की ओपिनयिन आएगी। साथ ही उस कानून के बारे में सांसद और विधायक अपने इलाके में चर्चा करेंगे। इससे आम लोगों के बीच कानून के बारे में पहले ही चर्चा हो चुकी रहेगी और इससे संबंधित तमाम सुझाव मिलेंगे। फिर ड्राफ्ट में जरूरी संशोधन कर नया ड्राफ्ट बनाया जा सकेगा और फिर कैबिनेट के सुझाव भी इसमें शामिल होंगे और फिर संसद के सामने कानून पेश किया जा सकेगा और बहस के बाद कानून बनेगा और इस दौरान सदस्यों के सुझाव भी शामिल होंगे तो फिर गलती का अंदेशा नहीं होगा।"
सच कहिये तो इस कानून को संसदीय समिति के पास परीक्षण के लिये भेजा जाना चाहिए था। यदि संसदीय समिति के पास परीक्षण के लिये भेजा गया होता तो हो सकता है कानून में ऐसी विसंगतियां नहीं होती।
इस कानून की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की खबर भी है। अदालत का क्या दृष्टिकोण होता है वह एक अलग बिंदु है। पर किसानों को अपनी मांगों के साथ अपनी समस्याओं के बारे में शांतिपूर्ण ढंग से धरना, प्रदर्शन और आंदोलन करने का अधिकार है और वे अपनी बात मजबूती से रख भी रहे हैं। उनका सरकार के साथ संवाद भी जारी है। सरकार को चाहिए कि वह या तो इन कानूनों को वापस ले ले या इनका कार्यान्वयन स्थगित कर दे और किसान संगठनों के साथ कृषि सुधार कार्यक्रम पर आगे बढ़े।
विजय शंकर सिंह
लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।