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भूमि अधिकार आंदोलन के आह्वान पर छत्तीसगढ़ में
कोयले के व्यवसायिक खनन और निजीकरण के खिलाफ किसानों और आदिवासियों के संगठनों ने भी किया विरोध प्रदर्शन,
कहा -- आर्थिक गुलामी के खिलाफ देशभक्तिपूर्ण संघर्ष में जान देंगे, लेकिन अपनी जमीन और जंगल नहीं छोड़ेंगे
रायपुर, 03 जुलाई 2020. भूमि अधिकार आंदोलन से जुड़े कई संगठनों के देशव्यापी आह्वान पर आज छतीसगढ़ में भी किसानों और आदिवासियों के बीच खेती-किसानी और जल, जंगल, जमीन से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले 25 से अधिक संगठनों के नेतृत्व में प्रदेश के कई गांवों में किसानों और आदिवासियों ने अपने-अपने घरों से, खेत-खलिहानों और मनरेगा कार्यस्थलों से तथा गांवों की गलियों में एकत्रित होकर निर्यात के उद्देश्य से कॉर्पोरेट कंपनियों को कोयले के व्यावसायिक खनन की अनुमति देने और कोल इंडिया जैसी नवरत्न कंपनी के विनिवेशीकरण और निजीकरण के लिए मोदी सरकार द्वारा चलाई जा रही मुहिम के खिलाफ अपना विरोध जाहिर किया और कहा कि कोल खनन के लिए होने वाले विस्थापन के खिलाफ संघर्ष में वे अपनी जान दे देंगे, लेकिन देशी-विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियों को अपनी जमीन और जंगल पर कब्जा नहीं करने देंगे। किसान संगठनों के अनुसार आज राजनांदगांव, महासमुंद, धमतरी, गरियाबंद, कोरबा, चांपा, मरवाही, सरगुजा, सूरजपुर, बस्तर तथा बलरामपुर सहित 15 से ज्यादा जिलों में प्रदर्शन हुए हैं। आदिवासी क्षेत्रों के अंदरूनी इलाकों के कई गांवों से विरोध प्रदर्शन किए जाने की खबरें लगातार आ रही हैं।
छत्तीसगढ़ किसान सभा के राज्य अध्यक्ष संजय पराते ने बताया कि इन विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व छत्तीसगढ़ किसान सभा, आदिवासी एकता महासभा, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति, राजनांदगांव जिला किसान संघ, दलित-किसान आदिवासी मंच, क्रांतिकारी किसान सभा, जनजाति अधिकार मंच, छग किसान महासभा और छग मजदूर-किसान महासंघ आदि संगठनों से जुड़े किसान नेताओं ने किया। सूरजपुर और कोरबा के कोयला क्षेत्रों में ये प्रदर्शन कोयला मजदूरों और ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर किये गए। ये सभी संगठन राज्य सरकार से भी मांग कर रहे हैं कि झारखंड की तरह छत्तीसगढ़ सरकार भी केंद्र के इस कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दें, क्योंकि केंद्र सरकार का यह फैसला राज्यों के अधिकारों और संविधान की संघीय भावना का भी अतिक्रमण करता है।
उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के नौ कोल ब्लॉकों सहित देश के 41 कोल ब्लॉकों को केंद्र सरकार द्वारा नीलामी के लिए रखा गया है, जिसका कोयला मजदूर और खदान क्षेत्र के किसानों और आदिवासियों द्वारा व्यापक विरोध किया जा रहा है। कोयला मजदूर तीन दिनों की हड़ताल पर हैं और कल प्रदेश में 90% से ज्यादा मजदूरों के हड़ताल पर थे। झारखंड और छत्तीसगढ़ की सरकारें भी इस नीलामी के खिलाफ खुलकर सामने आ गई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि सघन वन क्षेत्र हसदेव अरण्य की चार कोयला खदानों को नीलामी की प्रक्रिया से बाहर रखने की घोषणा केंद्र सरकार को करनी पड़ी है। हसदेव अरण्य क्षेत्र में विस्थापन के खिलाफ संघर्ष से जुड़े छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने इसे शुरूआती जीत बताते हुए कहा है कि इससे साबित हो गया है कि आदिवासी जन जीवन और पर्यावरण-संबद्ध मुद्दों की चिंता किये बिना ही कॉर्पोरेट मुनाफे के लिए बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों, जिनका पुन: सृजन नहीं हो सकता, को बेचने का गलत फैसला लिया गया था।
कोरबा में छत्तीसगढ़ किसान सभा के नेतृत्व में आदिवासियों और किसानों ने कई गांवों में प्रदर्शन किया। यहां आयोजित प्रदर्शनों में माकपा की दोनों महिला पार्षदों सुरती कुलदीप और राजकुमारी कंवर ने भी हिस्सेदारी की। प्रशांत झा ने किसानों और आदिवासियों के कई समूहों को संबोधित किया। उन्होंने बताया कि कोरबा में ही 2004-14 के दौरान चार कोयला खदानों के लिए 23254 लोगों की भूमि अधिग्रहित की गई है, लेकिन केवल 2479 लोगों को ही नौकरी और मुआवजा दिया गया है। जब सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी का यह हालत है, तो निजी कंपनियां तो पुनर्वास और मुआवजे से जुड़े किसी नियम-शर्तों का पालन ही नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि देश के 10 करोड़ आदिवासी व किसान वनोपज संग्रहण से अपनी कुल आय का 40% हिस्सा अर्जित करते हैं। ऐसे में उनकी आजीविका का क्या होगा?
आदिवासी एकता महासभा के नेता बाल सिंह और कृष्ण कुमार ने सूरजपुर और सरगुजा के कई गांवों में विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया। उन्होंने आरोप लगाया कि विकास के नाम पर विभिन्न परियोजनाओं की आड़ में अभी तक दो करोड़ से ज्यादा आदिवासियों और गरीब किसानों को उनकी भूमि से विस्थापित किया गया है। वैश्वीकरण की नीति, जो प्राकृतिक संपदा को हड़पने की भी नीति है, ने विस्थापन की इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार के इस विनाशकारी फैसले से इन कोल ब्लॉकों में रहने वाले वन्य जीवों और आदिवासियों का अस्तित्व तथा पर्यावरण भी खतरे में पड़ जाएंगे। विस्थापन से आदिवासी समुदायों की सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक-आध्यात्मिक और परंपरागत अधिकारों का भी हनन होता है।
राजनांदगांव में किसान संघ के नेता सुदेश टीकम ने कहा कि कोयला उद्योग के निजीकरण से न केवल चार लाख कामगारों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा, बल्कि देश की प्राकृतिक संपदा को लूटने की खुली छूट भी कुछ कॉर्पोरेट पूंजीपतियों को मिल जाएगी। कोल इंडिया को बदनाम करने और उसकी उपलब्धियों को दफनाने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि वर्ष 2018-19 में कोल इंडिया ने न केवल 53236 करोड़ रुपये केंद्र सरकार को राजस्व, रॉयल्टी, सेस और करों के रूप में दिए हैं, बल्कि 17462 करोड़ रुपयों का मुनाफा भी कमाया है। छत्तीसगढ़ सरकार को भी यहां की कोयला खदानों से 4320 करोड़ रुपयों की प्राप्ति हुई है। इसके बावजूद कोल इंडिया को कमजोर करने और अपने को आत्मनिर्भर बनाने के लिए केंद्र सरकार ने उसके रिज़र्व फंड से 64000 करोड़ रुपये निकाल लिए हैं, जो उसके द्वारा पिछले चार सालों में अर्जित मुनाफे के बराबर हैं। आर्थिक रूप से पंगु करने के बाद अब यही सरकार कोल इंडिया की सक्षमता पर सवाल खड़े कर रही है, जबकि कोयला खदानों को बेचना देश को बेचने के बराबर है।
तेजराम विद्रोही, राजिम केतवास, ऋषि गुप्ता, सुखरंजन नंदी, बिफन नागेश, राकेश चौहान, विशाल वाकरे, चंद्रशेखर सिंह ठाकुर, शिवशंकर दुबे, विदुर राम, पूरन दास, अयोध्या प्रसाद रजवाड़े, बाल सिंह, वनमाली प्रधान, लंबोदर साव आदि ने भी गांवों में प्रदर्शनकारियों को संबोधित करते हुए कोयला मजदूरों की इस हड़ताल को देश की आम जनता पर लादी जा रही आर्थिक गुलामी के खिलाफ देशभक्तिपूर्ण संघर्ष बताया।
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