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फिल्म समीक्षा छपाक Film review Chhapak
हमारे देश में भी अच्छी फिल्में बन रही हैं जिनमें बहुत सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक समस्याएं उठायी गयी हैं, किंतु उनकी समीक्षा बहुत स्थूल ढंग से हो रही है। दीपिका पाडुकोण की फिल्म छपाक के साथ भी ऐसा ही हुआ है।
तेजाब के हमले से घायल होकर बच गयी लड़कियों की समस्या पर केन्द्रित कथा पर यह फिल्म बनायी गयी है। संयोग से या सोचे समझे ढंग से जेएनयू के छात्रों पर हुए हमलों के विरोध में सहानिभूति प्रदर्शित करने पहुंची दीपिका पाडुकोण की प्रशंसा और विरोध में यह फिल्म चर्चित भी हुयी। विरोध के किसी भी रूप को सहन न कर पाने वाली सरकारी पार्टी के लोगों ने बिना इसकी महत्ता व संवेदना पर विचार किये, फिल्म का अन्ध विरोध करवा दिया। फिल्म के बाक्स आफिस पर सफल या असफल होना तो अलग बात है, किंतु इस सब में सरकार का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। एक सामाजिक समस्या पर बनी फिल्म का विरोध ही नहीं, उस पर झूठे साम्प्रदायिक आरोप लगवाने में भी सरकारी पार्टी नहीं चूकी।
ऐसा लग रहा था कि जैसे फिल्म के सफल होते ही सरकार को गिर जाने का खतरा पैदा हो गया है।
फिल्म की कथा या कहें कि घटना केवल इतनी है कि घर की आर्थिक स्थिति से परेशान एक लड़की पढाई छोड़ कर एक टेलर मास्टर के पास सिलाई सीखने लगती है, और लड़की की उम्र से बड़ा प्रशिक्षक टेलर बदले में उसे अपनी सम्पत्ति समझने लगता है। इस सब से अनजान लड़की जब अपने पुराने सहपाठी से मिलती है तो नाराज टेलर मास्टर अपनी बहिन की मदद से उस के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है। पीड़ित लड़की इसी क्रम में एक ऐसे एनजीओ के सम्पर्क में आती है जो तेजाब के हमले से शिकार लड़कियों पर ही काम कर रहा होता है। यह संयोग है कि उक्त लड़की की इलाज में मदद वह गृहस्वामिनी करती है, जिसके यहाँ उसका पिता खानसामा था, और उसकी ही एक एडवोकेट मित्र दोषी को सजा दिलाने में मदद करती है। इन लोगों का प्रयास या कहें कि संघर्ष सफल होता है और न केवल हमलावरों को सजा मिलती है अपितु राज्य सरकारों द्वारा एसिड की बिक्री पर नियंत्रण रखने का आदेश भी मिलता है।
आम तौर पर समीक्षक इस या इस जैसी फिल्मों को यहीं तक देखते हैं, और उन पर लिखते हैं। किंतु फिल्म आगे तक जाती है।
जीवन सम्पूर्णता में जिया जाता है, भले ही किसी समय विशेष में एक विशेष समस्या दूसरी बातों को हाशिये पर रखती हैं। एसिड हमले से पीड़ित एक महिला का इलाज और कानूनी लड़ाई जीवन के शेष हिस्से को खत्म नहीं कर देती। सौन्दर्य बोध केवल चेहरे तक ही सीमित नहीं होता अपितु व्यक्ति के मानवीय गुण भी उसके सौन्दर्य को प्रकट करते हैं। व्यक्ति चाहता है कि अपने चेहरे के आकर्षण के अलावा उसके गुणों के कारण भी उसे पसन्द किया जाये। चेहरा विकृत हो जाने से उसके जीवन की दूसरी आवश्यकताएं समाप्त नहीं हो जातीं। उसे जिन्दा रहने के लिए रोटी कपड़ा और मकान की भी जरूरत होती है जिसके लिए एक अदद सवैतनिक नौकरी की जरूरत होती है। जब अच्छे अच्छे चेहरों तक को नौकरी के लाले पड़ रहे हों तब विकृत होकर असामान्य चेहरे वालों को नौकरी कौन देता है। हमलावरों को मिली सजा, या एसिड बिक्री पर लगी रोक उसके जीवन की अन्य समस्याओं को राहत नहीं देतीं। उसे विकलांग श्रेणी का भी नहीं समझा जाता। बस में माँएं अपने बच्चों को पीड़िता की ओर देखने से रोक्ती हैं और कई बच्चे उसे देख कर चीख पड़ते हैं, जिसे सुन कर अपने आप से घृणा होने लगती है।
एक विकृत चेहरे वाली महिला को भी जीवन में प्रेम और दैहिक साथ की जरूरत होती है, किंतु प्लास्टिक सर्जरी के बाद भी विपरीत लिंग के लोगों की आंखों में वह आकर्षण नहीं टपकता, जो एसिड अटैक से पहले दिखता था।
उल्लेखनीय है कि कुछ दिनों पहले एक फिल्म आयी थी, जिसमें जब एक विकलांग लड़की की बहिन उसका जन्मदिन मनाती है और उससे वांछित उपहार पूछती है तो वह कहती है कि मैं सेक्स करना चाहती हूं।
इसी तरह फिल्म ब्लैक में गूंगी बहरी नायिका को उसका वयोवृद्ध शिक्षक होठों पर उंगली रख कर संवाद सिखाता है, किंतु एक युवा लड़की के होठों पर उंगली रखने से जनित संवेदनाएं अपने निकट रह रहे पुरुष के प्रति आकर्षण पैदा करती हैं, जिससे शिक्षक नैतिक असमंजस में फंस जाता है।
यह फिल्म भी बताती है कि उस दिव्यांग लड़की के जीवन की समस्याएं (Problems of the life of a disabled girl), सम्वाद के लिए भाषा के ज्ञान आने तक समाप्त नहीं हो जातीं। फिल्म में इस बात को चित्रित किया गया था किंतु फिल्म पर विचार करने वालों ने अपनी समीक्षाओं में इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया। छपाक भी परोक्ष रूप से ब्लैक में उभारी गयी बात को ही आगे बढाती है।
Chhapak director Meghna Gulzar and co-producer and heroine Deepika Padukone
छपाक की निर्देशक मेघना गुलजार और सह निर्मात्री व नायिका दीपिका पाडुकोण ने यह फिल्म बना कर बहुत साहसिक काम किया है। फिल्म बाक्स आफिस पर बहुत ज्यादा सफल नहीं हो सकी है किंतु घाटा भी नहीं दे रही। दीपिका के दुस्साहस की दाद दी जाना चहिए कि उसने मुख्यधारा की नायिका रहते हुए इस विशिष्ट भूमिका को चुना। इतना ही नहीं उसने अपनी भूमिका के प्रति पूरा पूरा न्याय किया है। मेघना का निर्देशन सफल है। दीपिका की भूमिका फिल्म के बाहर पूरे देश के स्तर पर भी सफल है। ऐसे ही साहस कला को ज़िन्दा रखते हैं।
वीरेन्द्र जैन