Advertisment

पहले उन्होंने मुसलमानों को निशाना बनाया अब निशाने पर आदिवासी और दलित हैं

New Update
मंत्रिमंडल विस्तार : शून्य को शून्य में जोड़ने, एक शून्य हटा दूसरी बिठाने से संख्या नहीं बढ़ती

बादल सरोज संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा सम्पादक लोकजतन

Advertisment

कॉरपोरेटी मुनाफे के यज्ञ कुंड में आहुति देते मनु के हाथों स्वाहा होते आदिवासी

Advertisment

First they targeted Muslims, now the target is Adivasis and Dalits

Advertisment

दो तथा तीन मई 2022 की दरमियानी रात मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के गाँव सिमरिया (Village Simaria in Seoni district of Madhya Pradesh) में जो हुआ वह भयानक था। बाहर से गाड़ियों में लदकर पहुंचे बजरंग दल और राम सेना के गुंडा गिरोह ने पहले घर में सोते हुए आदिवासी धनसा इनवाती को निकाला उसके बाद दूसरे आदिवासी सम्पत बट्टी को उनके घरों से निकाला और लाठियों से पीट पीटकर ढेर कर दिया।

Advertisment

चीख-पुकार सुनकर जब आस पड़ोस के दो गाँवों की भीड़ इकट्ठा हो गई तो इन गुंडों ने ही पुलिस को फोन किया। पुलिस आयी और बजाय हमलावरों के इन दोनों आदिवासियों को ही उठाकर ले गई।

Advertisment

ग्रामीणों के मुताबिक़ रास्ते में और उसके बाद बादलपुर पुलिस चौकी में इस गुंडा गिरोह और पुलिस दोनों ने मिलकर फिर धनसा और सम्पत की पिटाई की।

Advertisment

उसके बाद बजाय सिवनी के जिला अस्पताल ले जाने के उन्हें कुरई के उस अस्पताल में ले गई जहां कोई डॉक्टर ही नहीं था।

Advertisment

सुबह होने से पहले धनसा और उसके बाद सम्पत ने दम तोड़ दिया।  

बजरंगदलियों और रामसैनिक नामधारियों का दावा था कि ये लोग गाय और गौ मांस की तस्करी में लिप्त थे; हालांकि न तो ऐसी कोई जब्ती हुई ना ही इस बिना पर खुदमुख्तियार बनने की किसी भी क़ानून में इजाजत ही है।

जाहिर है यह, जैसा कि आमतौर से कहा गया, मॉब लिंचिंग - भीड़ हत्या नहीं थी। यह बाकायदा तैयारी के साथ किया गया हमला और पूर्व नियोजित ह्त्या थीं।

बात यहीं तक नहीं रुकी। इस जघन्य बर्बरता पर भड़के रोष और विक्षोभ के बाद कुछ गिरफ्तारियां हुईं लेकिन खुद मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा इन हत्यारों के समर्थन में कूद पड़े और आधिकारिक पत्रकार वार्ता में कहा कि "इस मामले में अब तक प्रथम दृष्टया बजरंग दल से जुड़े लोगों की बात सामने नहीं आयी है।" जबकि हमले में शामिल कुछ लोगों की गिरफ्तारी के बाद खुद सिवनी जिले के कुरई थाने के एसएचओ ने टीवी चैनलों से बात करते हुए कहा है कि "इस घटना में गिरफ्तार किये गए तीन आरोपी बजरंग दल के हैं और छह श्रीराम सेना के हैं।"

इसके पहले इन सभी हत्यारों के सिवनी भर में लगे फ्लैक्स और खुद इनके सोशल मीडिया के स्क्रीन शॉट वायरल हो चुके थे जिनमे उनके इन दोनों संगठनों से जुड़ाव सामने आ चुके थे। इसके बाद भी गृहमंत्री का उनकी तरफदारी का बयान विवेचना और न्याय प्रणाली में लगे कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए साफ़ संकेत था।

सिवनी महाराष्ट्र के नागपुर से जुड़ा मध्य प्रदेश का सीमावर्ती जिला है। आरएसएस यहां आक्रामक रूप से सक्रिय है। मगर यह सिर्फ सिवनी भर का मामला नहीं है। इसके ठीक दो दिन पहले राजस्थान से बैल खरीद कर लौट रहे झाबुआ के दो आदिवासियों की चित्तौड़गढ़ में इसी तरह पिटाई लगाई गई। इनमें से एक की मौत हो चुकी है दूसरा जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है। मामला सिर्फ आदिवासियों भर का भी नहीं है।

सिवनी होने के ठीक एक दिन पहले गुना में एक दलित बुजुर्ग की चिता को श्मशान के चबूतरे से उठा दिया गया। उसे जमीन पर जलाने के लिए विवश किया गया।

उसके कुछ दिन पहले मालवा में ही उज्जैन जिले के गांव चांदवासला, धार जिले के बदनावर पुलिस थाना के अंतर्गत गांव खंडीगारा, उज्जैन जिले के ही पुलिस थाना भाट पचलाना के गांव बर्दिया में दलित दूल्हों को घोड़ी पर नहीं बैठने दिया गया।

सिवनी के दो दिन बाद रीवा में आदिवासियों के झोपड़े चौथी बार जला दिए गए, जिनकी रिपोर्ट लेने से स्थानीय पुलिस थाने ने साफ़ इंकार कर दिया।

यह इधर उधर हुई फुटकर घटनाएं नहीं हैं। इनकी निरंतरता और आवृत्ति, तीव्रता और बर्बरता में लगातार बढ़त हो रही है।

यह आरएसएस की राजनीतिक भुजा - भाजपा - के राज में मनुस्मृति के आधार पर राजकाज ढालने की प्रक्रिया है। इसकी व्याप्ति आदिवासियों से लेकर दलितों, महिलाओं, अति पिछड़ी जातियों के समुदायों सभी पर है।

इन पंक्तियों में यहां सिर्फ आदिवासी समुदाय के साथ हो रहे बर्ताव के कुछ पहलुओं पर नजर डालना सामयिक होगा।

वर्ष 2014 के बाद के आँकड़े बहुत कुछ कहते हैं।

इनके अनुसार 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से आदिवासियों के उत्पीड़न के आंकड़ों में जबरदस्त तेजी आयी है। इन उत्पीड़न की घटनाओं में एक तिहाई की मूल वजह भूमि संबंधी विवाद हैं। इन्हें "विवाद" इस लिहाज से माना जाता है कि सरकार आदिवासियों से उनकी जमीन छीनकर कॉरपोरेट को देने की साजिश रचती है। आदिवासी इसका विरोध करते हैं। फारेस्ट गार्ड से लेकर तहसीलदार - कलेक्टर - कमिश्नर से होते हुए मुख्यमंत्री तक बेदखली की इस मुहिम में पूरी ताकत झोंक देते हैं। मनुष्यता के आरम्भ से जंगलों में निवास करने वाला आदिवासी अपनी ही बसाहटों में "पर्सोना नॉन ग्रेटा" अवांछित व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है। इसके लिए आदिवासियों को मनुष्य न मानने वाले नस्लवाद को उभार कर उनके सामाजिक बहिष्करण से लेकर इन इलाकों के मिलिटराइजेशन तक का सहारा लिया जाता है। खड़ी फसल को रौंद देने, जेलों को आदिवासियों से भरने से लेकर स्त्रियों और युवतियों के साथ वीभत्स यौन हिंसा तक के तरीके अपनाये जाते हैं। ऐसे मामलों में अव्वल तो उनकी शिकायतें ही दर्ज नहीं होतीं - यदि हों भी गयीं तो अभियोजन और न्यायपालिका के पूर्वाग्रह के चलते वे किसी मुकाम पर नहीं पहुँचती। जैसे वर्ष 2009-18 के बीच सजा सुनाये जाने की दर मात्र 22.8% थी; जबकि ठीक इसी अवधि में इस तरह के प्रकरणों में 575.33% की रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई। इससे उलट मामले में जरूर भारतीय न्यायप्रणाली आदिवासियों पर मेहरबान है; वर्ष 2020 के आंकड़ों के मुताबिक़ जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों का 76% बंदी मुस्लिम, सिख, दलित और आदिवासी समुदायों के थे। राजसत्ता के दुराग्रही, दमनात्मक व्यवहार, इन तबकों के नागरिक अधिकारों तथा उनके अधिकार की सेवाओं के मामले में पक्षपात का यह जीवंत दस्तावेजी सबूत है।

मध्यप्रदेश और राजस्थान इस मामले में सबसे बदतर हैं।

आदिवासियों के अस्तित्व और उनकी विशिष्टता को अस्वीकार करना आरएसएस और भाजपा की सोच का अभिन्न हिस्सा है। वे उन्हें आदिवासी मानते ही नहीं हैं, "वनवासी" कहते हैं और किसी भी धर्म के उदगम से भी पहले की संस्कृति वाले इन प्रकृति पूजकों के हिन्दूकरण की तिकड़मों में लगे रहते हैं। हिन्दूकरण और बेदखली दोनों की संघी मुहिम एक साथ चलती है।

अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्रित्व काल में जंगलों में निवास कर पीढ़ियों से वन भूमि पर खेती कर रहे करोड़ों आदिवासियों की बेदखली के लिए निकाले आदेश में कब्जादारों को सजा के साथ साथ बेदखली में होने वाले प्रशासनिक खर्च सहित सारे खर्चे की वसूली भी उन्हीं से करने का आदेश जारी किया गया था। इसी ज्यादती और अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे अमानुषिक बर्ताब के बैकलॉग को भरने और सभ्य तथा लोकतांत्रिक समाज बनाने की दिशा में सीपीएम और वामपंथ के सशक्त हस्तक्षेप से यूपीए प्रथम के कार्यकाल में ठोस कदम उठाये गए। आदिवासी एवं परंपरागत वनवासियों के जंगल की जमीन पर अधिकार को कानूनी मान्यता प्रदान की गई। आदिवासी बहुल प्रदेशों की भाजपा सरकारों ने इसे पहले तो लागू ही नहीं किया। केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से जहां जैसा थोड़ा बहुत लागू भी हुआ था वहां भी उसे अनकिया करने की तिकड़में शुरू कर दीं।

वर्ष 2019 में आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले; जिसमें जिन आदिवासियों के वनाधिकार आवेदन निरस्त किये जा चुके हैं उन्हें बेदखल किये जाने की बात कही गई थी, ने भी आदिवासी विस्थापन की इस आपराधिक प्रक्रिया को गति प्रदान की।  

इस फैसले, जो फिलहाल टल गया है, से करीब 20 लाख आदिवासी परिवारों का भविष्य अंधकारमय होने वाला था।

विकास न होने और विकास होने; दोनों ही तरह की स्थितियों में गाज आदिवासियों पर ही गिरी है। अपनी ही जमीन पर अधिकार मिलना तो दूर रहा आदिवासी मामलो के लिए गठित समिति के अनुमानों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में विकास परियोजनाओं की आड़ में लगभग 2 करोड़ आदिवासियों को विस्थापित किया गया है। यह कुल आदिवासी आबादी का एक चौथाई हिस्सा है। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र गुजरात आदि राज्यो में खनन नीति के कारण आदिवासी प्रभावित हुए हैं।

खनन के लिए विस्थापित हुए 20 लाख आदिवासियों में से केवल 25 प्रतिशत का ही पुनर्वास हुआ है। यही कारण है कि उनकी करीब आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है - देश की आबादी में उनका हिस्सा 8% है मगर भारते के कुल गरीबों का 25% आदिवासी हैं। उनकी विपदाओं में बढ़त का एक और तथ्य है और वह यह है कि जैसे जैसे आदिवासियों के बीच साक्षरता और पढ़े लिखों की तादाद बढ़ी है वैसे वैसे उनके ऊपर हिंसा भी बढ़ी है। विडम्बना यह है कि यही वह दौर है जब एक के बाद एक हुए लोकसभा चुनावों में आदिवासियों ने बढ़चढ़कर भाजपा को वोट दिए।

जयंत पंकज के अध्ययन के अनुसार वर्ष 1996 में 21%. वर्ष 2014 में 37% तथा 2019 में 44% आदिवासियों ने भाजपा को वोट दिए थे। जैसे जैसे वोट बढ़े वैसे वैसे उनकी यंत्रणायें बढ़ती गयीं।

सार यह है कि यह एक हाथ में कॉरपोरेट के लिए भारतीय खजाने की चाबी और दूसरे हाथ में मनुस्मृति के त्रिशूल लेकर उमड़ रही हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता की आंधी है और यह आँख मूंदने से टलने वाली नहीं है।

नवउदारवाद के तीन जहाजों पर सवार इस आधुनिक कोलम्बस का 461 एथनिक समूहों, 174 अन्य छोटे कबीलों समूहों में संगठित कोई साढ़े आठ करोड़ आदिवासियों के प्रति इरादा वही है जो 500 साल इंडिया समझकर अमरीका पहुँच गए समुद्री लुटेरे क्रिस्टोफर कोलम्बस का था। अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी देशों ने इस बीमारी से बाहर आने के रास्ते तलाश लिए हैं। मुकाबले की ऐसी ही तजवीज़ें भारत के आदिवासियों को भी आजमानी हैं। कॉरपोरेटी मुनाफे के यज्ञ कुंड में आहुति देते मनु के झांसों में मंत्रबिद्ध होकर स्वाहा होने से बचना है तो दोनों से लड़ना होगा। सिवनी हत्याकांड के बाद सिवनी और बाकी मध्यप्रदेश में उमड़े विक्षोभ, रोष और आक्रोश ने इस सचाई को महसूस किया है। 9 मई को सिवनी बंद और उसी दिन प्रदेश भर में हुई विरोध कार्यवाहियों में बाकी मांगों के साथ बजरंग दल तथा राम सेना को आतंकी संगठन घोषित करने की मांग भी उठाई गई है। इस दिन हुए जलसे जलूसों में युवाओं की भागीदारी यह उम्मीद पैदा करती है कि जल्द ही यह सन्देश देश भर में प्रतिध्वनित होगा।

किसान संगठनों ने इसे अपनी और आदिवासी संगठनों ने इसे किसानों के आम मुद्दों से भी जोड़ा है। उन्होंने पहचाना है कि इन सारी हत्याओं और उत्पीड़न के पीछे वे लोग हैं जो आदिवासियों, दलितों, किसानों, मजदूरों, गरीबों को इंसान का दर्जा देने के लिए तैयार नहीं है। जो भारत के संविधान को हटाकर उसकी जगह मनु का राज लाना चाहते हैं। जो गाय की आड़ लेकर किसानों और आदिवासियों से पशुपालन का अधिकार तथा पशुओं की खरीदी बिक्री से होने वाली आमदनी छीन लेना चाहते हैं। जो कभी तीन कृषि क़ानून लाते हैं, कभी मंडियां बंद करते हैं, कभी उपज की खरीदा बेची में अडानी अम्बानी और विदेशी कंपनियों को लाते हैं तो कभी सिवनी और चित्तौड़ की तरह गाय भैंस खरीद कर लाने पर हमला बोल देते हैं। कहीं वे बजरंग दल के नाम पर हमले करते हैं। कहीं श्रीराम सेना के नाम पर आदिवासियों का खून बहाते हैं और कहीं गौरक्षा के नाम पर आदिवासियों की पीट पीट कर हत्या कर रहे हैं।

उन्होंने समझा है कि इन सब संगठनों को वही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पाल पोस रहा है, जो केंद्र और मध्य प्रदेश में भाजपा के नाम पर सरकार में बैठा है। जो आदिवासियों की भाषा, संस्कृति और पहचान को खत्म कर देना चाहता है। इसके लिए वह कभी वनवासी कल्याण परिषद और कभी ऐसे ही अनेक नामों के साथ उनके बीच घुसपैठ करने की कोशिश भी करता है। उन्होंने महसूस किया इनके मंसूबों को समझने, बाकियों को समझाने और अपनी पहचान, भाषा और संस्कृति को बचाने की जरूरत है। वे जानने लगे हैं कि पहले उन्होंने मुसलमानों को निशाना बनाया अब आदिवासी और दलित निशाने पर हैं, कल बाकी किसानों और नागरिकों के साथ भी यही होगा। इन सबका मुकाबला मिलकर करना होगा। यह एक बड़ा अहसास है - आज सिवनी और उसके बर्बर हत्याकांड से सूचित और विचलित लोगों में होना शुरू हुआ है कल सबका बनेगा। क्योंकि अँधेरे दीर्घायु नहीं होते।

बादल सरोज

सम्पादक लोकजतन। संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

Advertisment
सदस्यता लें