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गर्मी की लहर के कारण भारत, यूरोप गेहूं की पैदावार में कमी
इस वर्ष मार्च माह में उत्तर भारत में असाधारण गर्मी पड़ी जिसके कारण गेहूं की पैदावार में कमी आई है। उत्तरी यूरोप में गर्मी की लहर और भी खराब थी जिसके कारण गेहूं का उत्पादन प्रभावित हुआ। गर्मी की लहर तथा यूक्रेन से निर्यात में गिरावट के कारण दुनिया में लगभग 14 मिलियन टन गेहूं की कमी हो सकती है। इससे गेहूं की कीमतों में उछाल आया है।
पर्याप्त आपूर्ति के लिए राजनयिक और वाणिज्यिक दोनों ही स्तरों पर जोरदार प्रयास किए जा रहे हैं। इनमें गोदामों में संग्रहित पिछले साल का अनाज भी शामिल है।
पीएम मोदी के आश्वासन के बावजूद गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध क्यों लगाना पड़ा?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आश्वासन दिया था कि 'बम्पर फसल होने के कारण भारत दुनिया को खिला सकता है,' लेकिन मार्च में पड़ी तेज गर्मी के बाद फसल उत्पादन के पुनर्मूल्यांकन के कारण जल्दबाजी में गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
यह ऐसा कदम था जिसने ऊंची अंतरराष्ट्रीय कीमतों के कारण अप्रत्याशित लाभ की उम्मीद कर रहे किसानों को निराश कर दिया। अब स्थिति गंभीर हो सकती है।
इस साल का उत्पादन पिछले साल की तुलना में 10 प्रतिशत तक कम रह सकता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (public distribution system - पीडीएस) और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (The Pradhan Mantri Garib Kalyan Yojana / Package पीएमजीकेएवाई) दोनों ही योजनाओं के लिए अधिक खाद्यान्न आवंटन के साथ ही कम खरीदी के कारण वर्तमान स्टॉक पर्याप्त से कम है।
पीडीएस तथा पीएमजीकेएवाई (मुफ्त खाद्यान्न योजना) के साथ देश की कुल वार्षिक आवश्यकता लगभग 32 मिलियन टन है। इसमें 8 मीट्रिक टन का न्यूनतम बफर स्टॉक भी जोड़ना होगा जिसे आकस्मिकताओं, आपात स्थितियों और मूल्य स्थिरीकरण के लिए बनाए रखना होता है।
दुर्भाग्य से वर्तमान स्टॉक में, जिसमें पिछले साल से कैरी ओवर स्टॉक शामिल है; करीब 20 मीट्रिक टन की नयी खरीद की कमी नजर आती है।
खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग इस संभावित कमी से इनकार करता है। हालांकि किसी भी आसन्न कमी का सबसे अच्छा संकेत कीमतों से मालूम पड़ता है। गेहूं की महंगाई दर 12 फीसदी पर चल रही है।
इस साल भारत में गेहूं का उत्पादन कम होने का अनुमान
व्यापारियों का अनुमान है कि पिछले साल के 111 मीट्रिक टन की तुलना में इस साल केवल 95 मीट्रिक टन उत्पादन होगा जो काफी कम है। यहां तक कि अमेरिका के कृषि विभाग के एक स्वतंत्र आकलन में भी इस साल भारत में गेहूं का उत्पादन 98 मीट्रिक टन होने का अनुमान है।
पीएमजीकेएवाई के तहत खाद्यान्न वितरण की प्रतिबद्धता को हाल ही में छठी बार सितंबर 2022 के अंत तक बढ़ाया गया है। मुफ्त खाद्यान्न के हस्तांतरण ने न केवल कुछ मात्रा में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की है बल्कि लाभार्थियों को खाद्य मुद्रास्फीति से भी बचाया भी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लाभ नकद के बजाय वस्तु रूप में दिया गया था। छठे चरण के लिए कुल वृद्धिशील परिव्यय लगभग 80,000 करोड़ रुपये है।
कोविड-19 की पहली लहर के दौरान शुरू किए गए पीएमजीकेएवाई के लाभों को कम करने के बारे में सरकार विचार कर सकती है लेकिन पीएमजीकेएवाई की समाप्ति अचानक नहीं होनी चाहिए।
गेहूं के आयात का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए
इस संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि गेहूं का आयात न तो राष्ट्रीय शर्मिंदगी की बात है और न ही इसका राजनीतिकरण किया जाना चाहिए।
खाद्यान्न की मांग में वृद्धि क्यों हो रही है?
यह गर्व की बात है कि हरित क्रांति की प्रारंभिक सफलता और किसानों को उत्पादन हेतु प्रोत्साहन देने वाली सार्वजनिक खरीद की नीतियों के बाद भारत कई दशकों से खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर रहा है, परन्तु पिछले कुछ वर्षों में भारतीयों की भोजन पद्धति में विभिन्न प्रकार के बदलाव दिखाई दे रहे हैं। सबसे पहले ज्वार और बाजरा जैसे मोटे अनाज के उपभोग के बदले गेहूं और चावल जैसे अनाज खाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। दूसरे, मांस, डेयरी और पोल्ट्री उत्पादों की खपत में वृद्धि हुई है। इसके लिए पशुओं को आहार के रूप में देने के लिए मक्का और सोया सहित खाद्यान्न के बड़े पैमाने पर उत्पादन की आवश्यकता होती है।
वास्तव में पशु आहार की मांग तेजी से बढ़ी है जिसके कारण लागत भी बढ़ी है। इसके परिणामस्वरूप दूध की कीमतों में बहुत वृद्धि हुई है।
अनाज सेवन बदलने का तीसरा कारण समाज में रेस्तरां और सामुदायिक रसोई में रेडीमेड भोजन के रूप में अधिक भोजन परोसा जा रहा है जिसका अधिकतर भाग बरबाद हो जाता है। इस वजह से भी खाद्यान्न की मांग में वृद्धि की संभावना है।
इस प्रकार यदि हम बदलते उपभोग पैटर्न, बढ़ती आय और समृद्धि को ध्यान में रखते हुए खाद्यान्न की मांग को बढ़े स्वरूप में देखते हैं तो यह स्पष्ट है कि उत्पादकता, पैदावार तथा रकबे की वृद्धि की वर्तमान दर पर घरेलू उपलब्धता पर्याप्त नहीं होगी। इसलिए देर-सबेर भारत को खाद्य सुरक्षा के लिए आयात से महत्वपूर्ण संबंध रखने वाली योजना बनानी होगी या भारतीयकंपनियों को ऑस्ट्रेलिया या इथियोपिया जैसे देशों में खाद्य उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करना होगा जहां खेती के लिए पर्याप्त जमीनें हैं।
खाद्य असुरक्षा की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है
भले ही भारत को बदलते उपभोग पैटर्न के कारण बढ़ती घरेलू अपर्याप्तता की वजह से खाद्य आयात की योजना बनानी पड़ रही है लेकिन हकीकत यह है कि खाद्य असुरक्षा की वर्तमान स्थिति गंभीर है।
हाल ही में प्रकाशित 'स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड रिपोर्ट' (State of Food Security and Nutrition in the World Report) में कहा गया है कि 2019-21 के दौरान भारत की 40.6 प्रतिशत आबादी मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा से पीड़ित थी। गंभीर रूप से खाद्य असुरक्षित लोगों का अनुपात 2018-20 में 20.3 प्रतिशत से बढ़कर 22.3 प्रतिशत हो गया है। विश्व में यह औसत 10.7 प्रतिशत से भी कम है। इस प्रकार दुनिया के एक तिहाई से अधिक भूखे और कुपोषित लोग भारत में हैं जो यदि शर्मनाक नहीं तो चिंताजनक जरूर है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की रैंक गिरी
वैश्विक भूख सूचकांक (global hunger index - जीएचआई) में भी भारत की रैंक 116 देशों की सूची में गिरकर 101 पर आ गई है। अलबत्ता जीएचआई स्कोर में पिछले कुछ वर्षों में सुधार हो रहा है लेकिन 27.5 का नवीनतम स्कोर अभी भी गंभीर माना जाता है। यहां तक कि अनाज के विकसित न होने, बरबादी और बाल कुपोषण जैसे अनेक उप-घटक भी चिंताजनक हैं। जीएचआई की गणना बाल मृत्यु दर, बच्चों के कुपोषण तथा खाद्य आपूर्ति पर्याप्तता के तीन आयामों का उपयोग करके की जाती है।
आयातित खाद्य तेलों पर भारत की बहुत अधिक निर्भरता खाद्य अर्थव्यवस्था का एक अन्य पहलू है। दालें, प्रोटीन के महत्वपूर्ण स्रोत हैं लेकिन इनके उत्पादन में भी वृद्धि नहीं हुई है।
दालों का आयात कुल खपत का 10 से 15 प्रतिशत है। भविष्य में इसमें और बढ़ोतरी हो सकती है।
भारत में दूध का उत्पादन दुनिया में सबसे अधिक है लेकिन खपत के मामले में विश्व औसत तक आने के लिए प्रति व्यक्ति खपत को काफी बढ़ाने की आवश्यकता है। प्रति व्यक्ति दूध की खपत बढ़ाने के लिए दूध उत्पादन हेतु मकई जैसे पशु फीडस्टॉक के बहुत अधिक उत्पन्न होने की आवश्यकता होती है। इसका अर्थ यह भी है कि कृषि उत्पादन में तेजी से वृद्धि का दबाव है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि निकट भविष्य में खाद्य आयात पर भारत की निर्भरता बढ़ेगी। इन सब बातों को देखते हुए खाद्यान्न आयात का मुद्दा यह अपने आप में न तो राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का मामला है और न ही शर्मिंदगी का।
चुनौती खाद्य सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने की
हम आखिरकार ऊर्जा के बड़े आयातक हैं और जिसे हम नवीकरणीय ऊर्जा के अधिक उपयोग के साथ कम करने की उम्मीद करते हैं। इसी तरह आने वाले वर्षों में हमें आयात बढ़ाकर और रणनीतिक योजना और समन्वय के साथ इसे जोड़कर खाद्य सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने की चुनौती का सामना करना होगा। उत्पादकता बढ़ाने और फसल विविधीकरण सुनिश्चित करने में नवीनतम प्रौद्योगिकी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी।
भारत में खाद्य सुरक्षा के लिए गेहूं का आयात क्यों जरूरी है?
वैसे, जब तक हम खाद्य सुरक्षा जरूरतों की चुनौती को पूरा नहीं करते, हमारे पास पैदावार बढ़ाने तथा फसलों में विविधता लाने के लिए उच्च प्रौद्योगिकी नहीं है, जब तक हम आयात में रणनीतिक योजना तथा समन्वय को जोड़ नहीं पाते हैं तब तक भारत में खाद्य सुरक्षा व घरेलू मूल्य स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए गेहूं का बड़े पैमाने पर आयात आवश्यक होगा।
डॉ.अजीत रानाडे
(Ajit Ranade is an economist, political analyst and reporter based out of Mumbai, India. Currently he is Vice Chancellor of Gokhale Institute Of Politics & Economics Pune.)
(मूलतः देशबन्धु में प्रकाशित लेख का संपादित रूप साभार)
Web title : Food Security in India: Why Import of Wheat is Necessary?