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खाद्य सुरक्षा के लिए अनाज के भाव को नियंत्रण में रखना क्यों ज़रूरी है?
कम हो गया मध्य प्रदेश में ज्वार की खेती का रकबा
अब तक हमारा देश खाद्य सुरक्षा के लिए गेहूं और धान पर ही निर्भर रहा है, किन्तु अब इसे एक नया मोड़ देने का समय आ गया है। वास्तव में अलग-अलग क्षेत्रों के मोटे और अधिक पौष्टिक अनाज इसमें शामिल होने चाहिए। मध्य प्रदेश के लिए ज्वार को बढ़ावा देना उचित कदम होगा। हमें याद रखना चाहिए कि मध्य प्रदेश में ज्वार की खेती का जो रकबा वर्ष 1980 में 23 लाख हेक्टेयर था, वर्ष 2016.17 में घटकर केवल 2 लाख हेक्टेयर हो गया।
ज्वार को बढ़ावा देने के लिए क्या कदम हो सकते हैं?
ज्वार की खेती को बढ़ावा देने के लिए हमारा ध्यान आदिवासी अंचलों पर होना चाहिए। ज्वार की खेती को फैलाने के लिए ज़रूरी होगा कि हम सरकारी खरीदी की पुख्ता व्यवस्था बनाएं। दूरदराज के इलाकों के लिए विकेंद्रीकृत व्यवस्था ही चल सकती है। गेहूं के अनुभव से हम इसकी बारीकियां सीख सकते हैं।
किसानों को समर्थन मूल्य से कम पर बेचना पड़ा ज्वार
पिछले वर्ष ज्वार का समर्थन मूल्य (tide support price in india) 2738 रुपए था, जबकि किसान इसे मंडी या गांव में 1400 से 1600 के आस-पास बेच रहे थे। यदि इतना अंतर रहा तो इसके प्रति कोई आकर्षित नहीं होगा। समर्थन मूल्य मिलने पर ही छोटे किसानों को प्रोत्साहन मिलेगा। सभी परिवारों को नगद की आवश्यकता होती है और सोयाबीन की तरफ़ भागने का यही मुख्य कारण रहा है।
ज्वार को बढ़ावा देने के लिए और क्या प्रयास किए जाएं?
ज्वार को बढ़ावा देने के लिए चिन्हित क्षेत्रों में सामूहिक प्रयास करना चाहिए। फसलों में परिवर्तन तभी आते हैं जब एक साथ कई व्यवस्थाओं को संजोया जाए। खाद, बीज उपलब्ध करवाना, समर्थन मूल्य पर खरीदना, सरकार का स्टॉक भारतीय खाद्य निगम, तक पहुँचाना, कृषि विज्ञान एवं पारंपरिक ज्ञान का मेल करवाना, फसल के लिए बीमा करवाना-ये सभी एक साथ करने की जरूरत होगी। ये सब काम सरकार ही कर सकती है। एक बार यह परंपरा में आ जाए तब बाजार व्यवस्था इसे फैला सकती है।
खाद्य सुरक्षा के लिए ज़रूरी है कि ज्वार मध्य प्रदेश में राशन दुकानों से उपलब्ध हो। आज जहां चार किलो गेहूं एवं एक किलो चावल मिलता है, वहीं तीन किलो गेहूं और एक किलो ज्वार दिया जा सकता है। यह व्यवस्था बनाने के लिए राज्य सरकार को भारतीय खाद्य निगम एवं केंद्र सरकार के साथ पहल करनी होगी और इसे एक मुद्दा बनाना होगा। तभी यह घोषणाओं से बढ़ कर क्रियान्वयन की तरफ़ जा सकता है।
खाद्य सुरक्षा के आयाम
खाद्य सुरक्षा के कई आयाम हैं, केवल राशन दुकान ही एकमात्र आयाम नहीं है। हम गेहूं के सन्दर्भ में देखते हैं कि छोटे किसान एवं खेतीहर मज़दूर अपने घर की जरूरत के लिए अनाज भरते हैं। अपने खेतों से या मज़दूरी से कुछ व्यवस्था कर लेते हैं। जैसे ज्वार का रकबा बढ़ता है, इसका उपयोग भी बढ़ेगा। ज्वार यहां का पारंपरिक खाद्यान है और इसका चलन वापस आ सकता है। यह अधिक पौष्टिक भी होगा और गेहूं का एक विकल्प भी।
इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार को अनाज के भाव को नियंत्रण में रखना ज़रूरी है। शहरी क्षेत्रों के परिवारों को अनाज खरीदना होता है और गरीब परिवारों पर यह बोझ भारी पड़ता है।
अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में भी बहुत परिवार हैं जिन्हें कुछ महीनों का अनाज खरीदना पड़ता है, क्योंकि बाकी व्यवस्था से साल भर की पूर्ति नहीं हो पाती है। अत, अनाज के भाव खाद्य सुरक्षा के लिए बहुत अहम भूमिका निभाते हैं।
वर्ष 1943 के बंगाल के अकाल से हमने सीखा कि खाद्यान्न की कमी मुख्य कारण नहीं था, बल्कि अनाज के भाव ऐसे आसमान पर पहुंच गए थे जहां खेतीहर मज़दूर, मछुआरे, दस्तकार आदि अनाज खरीद नहीं पाए और उन्हें भूखों मरना पड़ा।
भारतीय खाद्य निगम, के बफर स्टॉक का एक उद्देश्य यह भी है कि वह बाजार के भाव को नियंत्रण में रख पाए। इस कारण हम देखते हैं कि खाद्य निगम कई बार अपने स्टॉक से मैदा मिलों को गेहूं सप्लाई करता है।
गेहूं के भाव को इस वर्ष संभालना मुश्किल होगा...
भारतीय खाद्य निगम ने मैदा मिलों की सप्लाई को रोक दिया है। स्टॉक कम होने का कारण है, बिना होम-वर्क किए, हमने गेहूं के निर्यात को खोल दिया था।
गेहूं के साथ-साथ किया जाना चाहिए पौष्टिक अनाजों का भण्डारण
यदि गेहूं पर निर्भरता कम करके इन मोटे; पौष्टिक, अनाजों के चलन को बढ़ावा मिलता है, तो लोगों के पास विकल्प होंगे। उदाहरण के लिए ज्वार और गेहूं एक दूसरे के बदले में उपयोग किए जा सकते हैं। यदि किसी भी कारण से एक का भाव तेज़ है तो दूसरे का अधिक उपयोग किया जा सकता है। सरकार के लिए भी नियंत्रण करना ज़्यादा आसान होगा, यदि इन पौष्टिक अनाजों का भण्डारण गेहूं के साथ-साथ किया जाए।
सैद्धान्तिक रूप से शायद इसे माना भी जाता है, पर -भारतीय खाद्य निगम- या राज्य सरकारों द्वारा कोई ठोस योजना नज़र नहीं आती है, बल्कि इसकी उलटी दिशा नज़र आती है। मध्य प्रदेश के ,खाद्य, नागरिक-आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग, के आंकड़े यह कहानी बखूबी बयान करते हैं।
वर्ष 2018.19 में गेहूं का उपार्जन 73 लाख टन था और ज्वार का उपार्जन केवल 0.06 लाख टन। वर्ष 2020.21 में गेहूं का उपार्जन बढ़कर 129 लाख टन हो गया और ज्वार का उपार्जन घट कर 0 हो गया।
कथनी और करनी में बहुत अंतर है और बिना इसे पाटे कोई हल नहीं निकाला जा सकता।
ज्वार को बढ़ावा देने के लिए कुछ मुख्य चरण हैं, जिन्हें पहले लेने होंगे, तभी लोगों में विश्वास बन पायेगा। समर्थन मूल्य, पर खरीदी की व्यवस्था ही इस प्रक्रिया को शुरू कर सकती है।
गेहूं का उपार्जन बहुत बढ़ा है, क्योंकि उसकी खरीदी गांव के पास के केन्द्रों पर होती है और प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती है। यही व्यवस्था ज्वार के लिए होनी चाहिए। इससे किसानों में विश्वास बढ़ेगा और ज्वार का फैलाव होगा। यह चरण शुरू होते ही बाज़ार भाव भी बढ़ेगा और कुछ वर्षों में किसानों के पास दोनों विकल्प होंगे, मंडी में बेचें या सरकारी केंद्र पर। इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक पौष्टिक विकल्प बन पायेगा।
अरविन्द सरदाना
(मूलतः देशबन्धु में प्रकाशित लेख का संपादित रूप साभार)
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