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कविता से जुड़े मित्रों को शैलेन्द्र शैली का यह आखरी लेख बार बार पढ़ना चाहिए

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hastakshep
25 Jul 2020
New Update
खजूरे का हिंदी साहित्य  

कल <24/7/2020> शैलेन्द्र शैली का जन्म दिन (Shailendra Shaily birthday) था। अपनी मृत्यु <6 सितम्बर 2001> से पहले उन्होंने जो अंतिम साहित्यिक लेख लिखा था वह यही है। उनकी पहचान एक श्रेष्ठ राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में इतनी बड़ी है कि उनके साहित्यकार की पहचान दब गयी। यह बात प्रस्तुत लेख के कथ्य और उसकी भाषा से स्पष्ट हो रही है।

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कविता से जुड़े मित्रों को इसे बार बार पढ़ना चाहिए। - वीरेन्द्र जैन

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"छंद से अशिष्टता करना एक अक्षम्य अपराध है। " : शैलेन्द्र शैली

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जनकवि मुकुट बिहारी सरोज के हीरक जंयती कार्यक्रम में साहित्यालोचक विजय बहादुर सिंह ने नई कविता / अकविता के आत्ममुग्ध स्वयंसेवकों द्वारा छंद के प्रति अशिष्टता बरते जाने पर खरी-खरी कही। स्वतंत्रता के बाद छंद, मुक्त छंद, नई कविता से अकविता तक की यात्रा 70 के दशक तक आते-आते ऐसे भंडारे में तब्दील हो गई जिसमें हर कोई जीमने के लिए बैठता गया। बहस कविता में सार वस्तु के रूप पर प्राथमिकता से शुरू हुई थी। लेकिन अंतत: रूप के निषेध पर जा पहुंची। छंद का टूटना सारवस्तु के विकास के चलते पुराने रूपों का टूटकर नये रूपों का बनना नहीं था। कई पैमाने के अनुशासनों का उल्लंघन तो धड़ल्ले से हुआ मगर नयी लय, नयी तुक और नये पैमाने पर गढऩे से आमतौर पर, जानबूझकर बचा गया ताकि हर कोई इस भण्डारे की पंगत में जीमता रहे।

यह भ्रम रहा है कि पक्षधरता सार की होती है रूप की नहीं। रूप की भी राजनीति होती है, सामाजिक यथार्थ होता है। यह सही है कि रूप सामाजिक सुपर स्ट्रक्चर का एक अंग है जो कभी-कभी वर्गनिरपेक्ष, युगनिरपेक्ष और उपयोग निरपेक्ष भी हो सकता है। एक ही रूप वर्गीय पक्षधरता, युग और उपयोग बदलने के बावजूद प्रांसगिक बना रह सकता है। इसलिये छंद से अशिष्टता करना एक अक्षम्य अपराध है। किंतु फिर भी रूप की एक स्थानीयता होती है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिये न तो छंद की प्रासंगिकता किसी भी तरह कम हुई है (बल्कि सारवस्तु के विकास के साथ बढ़ी है भले ही नई कविता के स्वयं सेवक वर्तमान युग की नयी, ज्यादा विस्तृत और जटिल सारवस्तु को छंद में बांध पाने में असफल रहे हों) और न ही छंदमुक्त कविता किसी भी अर्थ में छंद से ज्यादा विकसित रूप का प्रतिनिधित्व करती है। सही मायने में यह असफलता स्वयं सेवकों की हीनभावना है जो फ्रायडी रूप में आत्मश्रेष्ठता का विस्फोट बनकर फूटती है।

दरअसल कविता के छंद मुक्त रूप के लिए किसी को गरियाने के बजाय इस रूप की राजनीति और सामाजिक यथार्थ की पड़ताल ज्यादा जरूरी है। पूंजीवाद में अराजकता और केंद्रीयकरण का दौर अपने द्वंद्वात्मक चरम पर है। एक तरफ छोटे निवेशकों, (शेयरधारियों) की तादाद करोड़ों में पहुंच गयी है और दूसरी और विश्व के पैमाने पर इस पूंजी के नियंताओं का एकाधिकार अभूतपूर्व रूप से बढ़ गया है। पिरामिड का आधार फैला है मगर शिखर और नुकीला हुआ है।

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यह सिर्फ संयोग नहीं है कि साहित्य और कला में भी निवेशकों - रचनाकारों की तादाद बढ़ी है लेकिन मठाधीशों का ऐसा भयावह और विशाल एकाधिकार भी छा गया है जो राष्ट्रों के रंगमंच पर राष्ट्रों में और विश्व के रंगमंच पर विश्व संस्कृति में देखा जा सकता है।

पूंजीवाद के नये अवतार की दूसरी विशेषता नयी तकनीकी क्रांति है जिसने सामुदायिक श्रम को बिखेरा है और व्यक्तिगत श्रम का विस्फोट किया है। इसी विस्फोट से अर्थव्यवस्थाओं में सेवा क्षेत्र का लावा बह निकला है। जिसके आधार पर औद्योगिक श्रमिकों मार्क्स के सर्वहारा के सफाये की भविष्यवाणियां हो रही हैं।

छंद वास्तव में लय, ताल और तुक, शब्द प्रवाह जो भी कहें - का एक समुच्चय है - उसमें सामुदायिक अनुशासन होता है। लेकिन जब समुदाय तोड़ा जा रहा हो और मोबाइलधारी नये ई-श्रमिकों (आईटी प्रोफेशनल) की संस्कृति चल पड़ी हो तो व्यक्तिवादी उच्छ्रंखलता...का उभार निश्चित है।

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छंद को तोड़कर हर गद्य को कविता मान लेने का आग्रह करने वाले असफल स्वयं सेवक दरअसल इसी उच्छृंखलता की संतान हैं। ई-श्रमिक स्वयं में विज्ञान के विकास के निश्चित पायदान पर उत्पादन प्रक्रिया के विकास से पैदा हुए हैं। अपने आप में वे खारिज नहीं किये जा सकते। लेकिन जो सामाजिक भूमिका या सामाजिक चेतना उनमें पनप रही है और पनपाई जा रही है वह आसामाजिक, आमजनता के प्रति अवमाननापूर्ण और भूमंडलीकरण के दासत्व की स्वीकृति की भूमिका और चेतना है। ठीक इसी तरह छंद मुक्त कविता अपने आप में किसी भी तरह प्रतिक्रियावादी या मानव विकास रोधी नहीं है। यह तो इस छंद मुक्त कविता के स्वयं सेवकों की सामाजिक भूमिका व सामाजिक चेतना है जो उन्हें जनता के सबसे प्रिय रूप छंद के प्रति, लय और तुक के प्रति और जन भाषा के प्रति अवमाननापूर्ण बनाती है।

जितना ही पूंजी का और श्रम का अमूर्तन हो रहा है उतना ही कला के अमूर्तन का उन्माद छा रहा है। जाहिर है कि एक ऐसे समाज में जहां लोगों के सांस्कृतिक, शैक्षणिक और भौतिक जीवन स्तर में भारी असमानता है, अमूर्तन की परिभाषा सार्वभौमिक और शाश्वत नहीं हो सकती। इसलिए जनता के विशाल हिस्सों के लिए जो अमूर्त है वहीं जनता के हित का हो सकता है भले ही फिलहाल जनता उसका रस न ले पा रही हो। वह जनता की भावी संपत्ति है। किन्तु, अमूर्तन का महिमामंडन किसी भी तरह जायज नहीं हो सकता। सारवस्तु में अमूर्तन प्रतिक्रियावादी भी हो सकते हैं।

अस्तु, प्रगतिशील सारवस्तु के रूप में अमूर्तन का यद्यपि ऐतिहासिक मूल्य हो सकता है लेकिन उसका महिमामंडन नुक्सानदेह ही होगा। जाहिर है कि छंद - कविता के एक मूर्त रूप - से मानवजाति के मोह की पूरी इज्जत किये जाने की जरूरत है। सरोज जी के सम्मान से दरअसल इसलिए मानव जाति का सम्मान हुआ है।

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