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गाँधी जी का पर्यावरण चिंतन (Gandhiji's Thinking On Environment)
Gandhi's commitment to the environment and his principles
जिस प्रकार भौतिक विज्ञान के विश्वविख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने आज से ठीक 117 वर्षों पूर्व वर्ष 1905 में अपना सुप्रसिद्ध सापेक्षता का सिद्धांत (theory of relativity) प्रतिपादित किए थे,और आज वह सिद्धांत वर्तमान वैज्ञानिकों द्वारा बिल्कुल सही साबित हो रहा है,ठीक उसी प्रकार पर्यावरण क्षरण के संबंध में गांधी जी द्वारा लगभग सौ साल पूर्व कहीं बातें आज बिल्कुल सही साबित हो रहीं हैं।
पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक थे गांधी जी
गांधी जी स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण के प्रति भी अत्यंत जागरूक थे। उन्होंने पर्यावरण के प्रति सौ साल पहले ही वो चिंता जाहिर कर दिए थे जो वर्तमान समय में भी पूर्णतः प्रासंगिक हैं।
गांधी जी ने आज से 113 वर्षों पूर्व वर्ष 1909 में कहा था कि 'पश्चिमी यूरोपियन देशों द्वारा अपनी संपन्नता और समृद्धि के लिए जो अंतहीन दौड़ लगाई जा रही है, वह भविष्य में इस धरती,इसके पर्यावरण और इसके प्रकृति द्वारा लाखों सालों से सहेजकर रखें गए प्राकृतिक संसाधनों के लिए अकथनीय खतरा बन जाएगा।
उस स्वप्नदृष्टा व्यक्ति ने उसी समय कह दिया था कि "कुछ मुट्ठी भर पूंजीपतियों के लोभ की वजह से हुई पर्यावरणीय क्षति आम जनता के जीवन के लिए तबाही लाकर रख देगी।
उन्होंने उसी समय कहा था कि अंधाधुंध शहरीकरण से गांवों के विलुप्ति से पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंच सकती है।
गांधी जी प्रकृति के जरूरत से ज्यादा दोहन के भी धुर विरोधी थे। उनका मानना था कि प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितनी की हमें आवश्यकता है। मानव प्रजाति को आवश्यकता से अधिक लेकर प्रकृति की बर्बादी नहीं करनी चाहिए।
गांधी जी का पर्यावरण संबंधित एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है कि 'हमारी धरती अपने सभी जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति तो बखूबी कर सकती है, लेकिन उनकी लालच और हवस की पूर्ति कतई नहीं कर सकती। उन्होंने बताया था कि पृथ्वी, वायु, भूमि तथा जल हमारे पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्तियाँ नहीं हैं। वे हमारे बच्चों की धरोहरें हैं। वे जैसी हमें मिली हैं वैसी ही उन्हें भावी पीढ़ियों को सौंप देना ही होगा। जब तक हम मानव एक-दूसरे के प्रति हिंसात्मक रूख अपनाए रहेंगे तो हम इस धरती के वनों और वन्य जीवों के प्रति भी हिंसक रूप अपनाते रहेंगे, जिससे वन और वन्य जीव दोनों ही खतरे में रहेंगे और उन पर विलुप्ति का संकट मंडराता रहेगा।
विकास का त्रुटिपूर्ण ढांचा,गांवों से शहरों की ओर पलायन को प्रोत्साहित करता है।
पर्यावरण के प्रति गांधीजी का दृष्टिकोण व्यापक था। उन्होंने देशवासियों से, तकनीकों के अंधानुकरण के विरुद्ध, जागरूक होने का आवाहन किया था। उनका मानना था कि पश्चिमी देशों के जीवन स्तर की नकल करने से, पर्यावरण का संकट पनप सकता है। उनका मानना था कि यदि विश्व के अन्य देश भी आधुनिक तकनीकों के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार करेंगे तो पृथ्वी के संसाधन नष्ट हो जायेंगे।
गांधी जी पृथ्वी को एक जीवित संरचना मानते थे। उनका कहना था कि आधुनिकीकरण का जितना गहरा प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है उससे ज्यादा गहरा दुष्प्रभाव इसके पर्यावरण पर पड़ता है।
बहुत से पश्चिमी पर्यावरणविद् जहां ये कहते हैं कि 'प्रकृति के पास वापस लौटो' वहीं गांधी जी का कहना था कि 'गांवों की तरफ लौटो।' क्योंकि गांव पर्यावरणीय क्षति शहरों के मुकाबले लगभग नगण्य स्तर पर करते हैं।
गांधी जी गांवों की आत्मनिर्भरता, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन, कृषि में सुधार जिससे किसानों की खुशहाली बढ़े, आर्थिक समानता, अहिंसा तथा जीवों के प्रति करूणा तथा दया के प्रबल पक्षधर थे, उनका विश्वास था कि गरीबी और प्रदूषण एक दूसरे के पोषक हैं।
गांधी जी का सरल जीवन का नुस्खा, प्राकृतिक संसाधनों के असीमित उपभोग तथा अंतहीन शोषण पर रोक लगाता है। यह उनके पर्यावरण सम्बन्धी सोच का सबसे बड़ा उदाहरण है।
महात्मा गांधी की उपरोक्त सोच उस कालखंड में विकसित हुई जब वैज्ञानिक जगत भी पर्यावरण के कुप्रभावों से लगभग अपरिचित था।
महात्मा गांधी के अनुसार गरीबों का शोषण रोकने के लिये बड़े-बड़े उद्योग-धन्धों और ग्रामोद्योगों को साथ साथ संचालित करना चाहिए।
गांधी जी का कहना था कि जहाँ मानव श्रम द्वारा कोई काम करना संभव नहीं हों तभी उन्हें भारी -भरकम मशीनों से कराया जाए। कार्य, राज्य की देखरेख में हों तथा उसका एकमात्र उद्देश्य जन-कल्याण हो। केन्द्रीयकृत तथा विकेन्द्रीयकृत तरीकों से उत्पादन किया जाए। आय तथा धन का वितरण समान हो तथा जन साधारण के हित को सर्वोपरि प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
गांधी जी के अनुसार, मशीनीकरण तभी उपयोगी है जब काम करने वाले व्यक्तियों की संख्या कम तथा जल्दी कार्य पूरा करने की अनिवार्यता हो। भारत में मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है, इसलिए मशीनों का अत्यधिक उपयोग इस राष्ट्र राज्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। इसी न्यायोचित सोच के कारण,वे मशीनों के प्रति अत्यधिक उपयोग के एकदम खिलाफ थे। वे विशाल उत्पादन नहीं, अपितु बहु-श्रमिक उत्पादन चाहते थे।
गांधीजी भारत में गरीबी,बेरोजगारी, आय की असमानता, भेद-भाव इत्यादि को देखते हुए ही चरखे के उपयोग को प्रतीक के रुप में, प्रोत्साहित किया था। उनका उद्देश्य खादी तथा ग्राम आधारित उद्योगों को प्रोत्साहित कर बेरोजगारी तथा गरीबी को कम करना था। गांधीजी के अनुसार अत्यधिक औद्योगीकरण मानव जाति के लिए अभिशाप बनकर रह जाएगा। इससे लाखों नागरिकों को काम नहीं मिलेगा तथा प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होगी। आधुनिक विकास के कारण हुई पर्यावरणीय क्षति की क्षतिपूर्ति संभव ही नहीं होती।
गांधीजी का पूरा विश्वास था कि कुटीर उद्योग तथा ग्राम उद्योग हजारों लोगों को सुविधायें तथा संसाधन उपलब्ध कराते हैं। उन्हें बढ़ावा देने से अनेक लोगों को काम मिलता है तथा राष्ट्रीय आय बढ़ती है।
गांधीजी की यह दृढ़ सोच थी कि जीवित मशीनों को मृत मशीनों से मुकाबला हर्गिज नहीं करना चाहिए। गांधीजी का ग्रामीण संसाधनों पर आधारित मॉडल पर्यावरण को भी न्यूनतम हानि पहुँचाता है। उसके उपयोग से हुई पर्यावरणीय हानि का नवीनीकरण या सुधार संभव है, लेकिन बहुत बड़े आकार के उद्योगों से हुई पर्यावरणीय क्षति की पूर्ति असंभव सी है।
आर्थिक समानता
गांधीजी का आर्थिक समानता तथा सम्पत्ति के समान वितरण का सिद्धान्त (Gandhi's principle of economic equality and equitable distribution of wealth) इस अवधारणा पर आधारित था कि प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके जीवन की न्यूनतम और प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन होने ही चाहिए।
उन्होंने सम्पत्ति के समान वितरण का व्यावहारिक तरीका बताया था। इस तरीके के अनुसार हर व्यक्ति को अपनी आवश्यकताएं भी न्यूनतम ही रखनी चाहिए, इसके साथ ही दूसरों की गरीबी का ध्यान भी रखना होगा।
अहिंसा तथा सभी जीवों के प्रति संवेदना
गांधीजी यह अनुभव करते थे कि हम प्रकृति के वरदानों मतलब जीव-जंतुओं और उसके प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग तो खुशी से कर सकते हैं, किन्तु हमें उनको मारने और अतिदोहन करने का अधिकार कतई नहीं है।
गांधीजी यह भी मानते थे कि अहिंसा तथा संवेदना न केवल जीवों के प्रति बल्कि आजीवित या मृत पदार्थों के प्रति भी होना चाहिए। अजीवित पदार्थों का अतिदोहन जो लालच तथा ज्यादा लाभ के लिए किया जाता है वह जैवमण्डल को भयंकरतम् नुकसान पहुँचाता है। वह भी एक प्रकार की हिंसा का ही रूप है। इससे अन्य लोगों को जो उसका उपयोग करना चाहते हैं, उससे वे वंचित रह जाते हैं।
स्वच्छता
गांधीजी ने कहा था कि "मनुष्य के जीवन में स्वच्छता का सर्वोच्च स्थान है इसलिए गरीबी के कारण या उसकी आड़ में कोई भी शहर स्वच्छता की व्यवस्था से मुक्ति नहीं पा सकता। जो भी मनुष्य कहीं भी थूक कर या जमीन पर कचरा फेंककर वायु,जमीन तथा वातावरण को प्रदूषित करता है वह प्रकृति के विरुद्ध घोर अपराध करता है। हम स्नान करने में बहुत आनन्द महसूस करते हैं किन्तु कुंआ,जलाशय अथवा नदी को तमाम तरह की गंदगी,मृत पशुओं,शहर के सीवर आदि से गंदा करते हैं। हमें उक्त वर्णित आदतों को पापाचार और घोर अपराध मानना चाहिए। हमारी उपरोक्त आदतों के कारण हमारे गांव तथा नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं। ऐसी अस्वच्छता बीमारियों का प्रसार करती हैं।"
वर्तमान समय में गांधी जी के विचारों की सार्थकता (Meaning of Gandhi's thoughts in present times)
गांधी जी द्वारा अपनाए गए सत्याग्रह आंदोलन से प्रेरित होकर ही बिना किसी हिंसा के वनों और पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन की शुरूआत हुई। चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात यह थी कि इसमें जनसाधारण विशेष कर स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। इस आन्दोलन की शुरुआत 1973 में भारत के प्रसिद्ध महिला पर्यावरणविद् और सक्रिय कार्यकर्ता श्रीमती गौरादेवी, सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा हजारों स्त्रियों और लड़कियों ने प्रेम और अंहिसा का सहारा लेकर हिमालय के पर्यावरण,पेड़ों और जंगलों को भूमाफियाओं, ठेकेदारों और नेताओं की नापाक त्रयी से कटने और विनष्ट होने से बचाने के लिए प्रेम और अंहिसा का सहारा लेते हुए पेड़ों से चिपक कर उन्हें सफलतापूर्वक बचाने का सफलतापूर्वक अभियान चलाया था, जो अभूतपूर्वरूप से सफल रहा।
गांधी जी का पूरा जीवन तथा उनके समस्त कार्य, मानवता के लिए पर्यावरण सम्बन्धी विरासत ही हैं। उन्होंने जीवन पर्यन्त, व्यक्तिगत जीवन शैली द्वारा समग्र विकास की अवधारणा को प्रतिपादित किया। यद्यपि उनका लगभग सम्पूर्ण जीवन ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संर्घष में बीता,किन्तु वे हमेशा प्रकृति, पर्यावरण, अहिंसा तथा शान्ति से जुड़े रहे। उनकी ताकत, उनका आत्मबल था। उनका संदेश पर्यावरण संरक्षण तथा समग्र विकास पर आधारित था। उनके सन्देश भारत ही नहीं अपित सम्पूर्ण विश्व के लिए आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने आज से सौ साल पूर्व थे।
लेकिन कितने दु:ख, अफसोस व हतप्रभ करने वाली बात है कि इक्कीसवीं सदी का मनुष्य, महात्मा गांधी के प्रकृति चिन्तन के विपरीत,अपनी नियति खुद गढ़ रहा है। वह अंतरिक्ष में कॉलोनी, रोबोट द्वारा चालित मशीनें, कम्प्यूटर जैसी बुद्धि का विकास करने के लिये लगातार प्रयासरत है। उपरोक्त नियति निर्धारण के कारण, विश्व में अत्यधिक उपभोग की प्रवृत्ति तथा विविध उत्पादनों में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, जिसके कारण, स्थानीय मौसम व वैश्विक तौर पर पर्यावरण पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इसके उदाहरण हैं - ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत में भारी तबाही, अम्लीय वर्षा,समुद्र स्तर में वृद्धि, वायु, जल तथा भूमि संक्रमण तथा क्षरण और मरुस्थलों के क्षेत्रफल में हो रही अप्रत्याशित वृद्धि, मौसम परिवर्तन, सुनामी, भयंकर तूफान, अतिवृष्टि, सूखा, भयंकर बाढ़ आदि-आदि।
यह वही नियति है जिससे बचने की बात महात्मा गांधी ने अपने प्रकृति चिन्तन में कही है। पर्यावरण के प्रति गांधीजी की सोच मैत्री पूर्ण थी। उस सोच में समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक के हितों का ध्यान रखा गया है। इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि गांधीजी जैसे महामानव व स्वप्नदृष्टा ने पर्यावरण संरक्षण के संबंध में जो विचार कई वर्ष पूर्व कहे थे, वे अब के समय में भी उतने ही या उससे भी ज्यादा प्रासंगिक हैं, जो गांधीजी के समय में थे।
निर्मल कुमार शर्मा
'गौरैया एवम् पर्यावरण संरक्षण तथा देश-विदेश के सुप्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिकाओं में वैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक,पर्यावरण आदि विषयों पर स्वतंत्र, निष्पक्ष, बेखौफ, आमजनहितैषी, न्यायोचित व समसामयिक लेखन।