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कल तक जो ख़ुद 'ग़ुलाम' थे, आज़ाद हो गये

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Guest writer
30 Aug 2022
कल तक जो ख़ुद 'ग़ुलाम' थे, आज़ाद हो गये

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कांग्रेसमुक्त हो गए ग़ुलाम नबी आज़ाद

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ग़ुलाम नबी आज़ाद का कांग्रेस को अलविदा कहना (Ghulam Nabi Azad resigns from Congress) कोई अप्रत्याशित नहीं है। इसका आभास तो तभी होने लगा था जब 1 अगस्त 2018 को तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद द्वारा उन्हें उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार से नवाज़ा गया और बाद में इसी नरेंद्र मोदी सरकार ने 2022 में आज़ाद को देश के सर्वप्रतिष्ठित पदम् भूषण सम्मान से भी अलंकृत किया था।

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देश को 'कांग्रेस मुक्त' बनाने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोशिशों के बीच किसी कांग्रेस नेता को ही इतना सम्मान देना, आमजनों द्वारा उसी समय से आज़ाद को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा था।

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तब ग़ुलाम नबी आज़ाद राजीव गाँधी की चाटुकार मण्डली में होते थे

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जब अमिताभ बच्चन के लोकसभा सीट से त्यागपत्र के बाद 1988 में इलाहाबाद में उपचुनाव (1988 Lok Sabha by-election in Allahabad) हो रहे थे उस समय मुख्य विपक्षी उम्मीदवार विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक जनसभा में ग़ुलाम नबी आज़ाद की तरफ़ इशारा करते हुये कहा था कि जो दिल्ली में ग़ुलाम हैं वह यहां (इलाहबाद में ) आज़ाद हैं।

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यही वह दौर भी था जब वीपी सिंह, अरुण नेहरू, आरिफ़ मोहम्मद ख़ान, रामधन, सत्यपाल मलिक जैसे वरिष्ठ नेताओं को कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया था। उस समय भी अनेक वरिष्ठ कांग्रेस नेता आज के ग़ुलाम नबी आज़ाद की ही तरह कुछ ख़ास 'चाटुकारों' के बीच घिरे रहने का राजीव गाँधी पर आरोप लगाते थे। अंतर यह है कि तब आज़ाद की गिनती राजीव गाँधी की उस चाटुकार मण्डली में होती थी जो कथित तौर पर राजीव गाँधी को ग़लत सलाह दिया करते थे।

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कांग्रेस की दुर्गति करने वालों में प्रमुख नाम ग़ुलाम नबी आज़ाद का भी है

आज आज़ाद का कथन है कि -'पार्टी अब ऐसी अवस्था में पहुँच गई है जहाँ से वापस लौटना संभव नहीं है'. परन्तु सही मायने में कांग्रेस को इस दुर्गति तक पहुँचाने की बुनियाद डालने वालों में प्रमुख नाम ग़ुलाम नबी आज़ाद का भी है। यह आज़ाद व उन जैसे चापलूस नेता ही थे जिन्होंने 1988 के इलाहबाद उपचुनाव में विश्व नाथ प्रताप सिंह के विरुद्ध सुनील शास्त्री जैसा कमज़ोर उम्मीदवार कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में उतारने की सलाह देकर कांग्रेस के पतन की शुरुआत में अपनी भूमिका निभाई।

जब कोई काँग्रेसी नेता उस समय ग़ुलाम नबी आज़ाद से पूछता कि अमिताभ बच्चन को ही पुनः चुनाव लड़वाकर वी पी सिंह की चुनौती क्यों स्वीकार नहीं की गयी, तब आज़ाद जवाब देते कि यदि बच्चन 'राजा साहब' से चुनाव हार जाते तो विपक्ष राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़े के लिये अड़ जाता। इसलिये सुनील शास्त्री को लड़ाया जा रहा है।

ग़ुलाम नबी आज़ाद उस समय शायद अकेले ही नेता थे जो कहते फिर रहे थे कि शास्त्री चुनाव जीतेंगे पूरा प्रदेश देख रहा था कि वह चुनाव केवल सुनील शास्त्री की कांग्रेस की उम्मीदवारी के कारण वी पी सिंह के पक्ष में एकतरफ़ा हो चुका था।

ख़ुद जम्मू कश्मीर के जम्मू संभाग के निवासी होने, यहां तक कि 2005 से लेकर 2008 तक कांग्रेस पार्टी की ओर से पी डी पी व कांग्रेस की संयुक्त सरकार के मुख्यमंत्री बनने वाले आज़ाद के कश्मीर में जनाधार का अंदाज़ा भी इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्हें पार्टी ने लोकसभा चुनाव महाराष्ट्र से लड़ाया और केंद्र में मंत्री बनाया।

कांग्रेस के 'पैराशूट' नेता थे ग़ुलाम नबी आज़ाद

आज़ाद की गिनती कांग्रेस के बिना जनाधार वाले 'पैराशूट' नेताओं  में होती थी जो आलाकमान से अपनी नज़दीकियों का लाभ उठाकर अपनी मीठी चुपड़ी बातों से गाँधी परिवार का दिल जीत कर हमेशा किसी न किसी पद पर 'सुशोभित' रहा करते थे। कांग्रेस में यही सब उस श्रेणी के नेता हैं जो सत्ता या कुर्सी के बिना रहने के आदी नहीं।

वर्तमान समय कांग्रेस को ही नहीं बल्कि कांग्रेस की गांधीवादी व नेहरूवादी धर्मनिरपेक्ष नीतियों को सीधी चुनौती दक्षिणपंथी शक्तियों द्वारा दी जा रही है। इस समय पार्टी को मज़बूत करने व  कांग्रेस की नीतियों पर मज़बूती से चलने व उन्हें प्रचारित करने की आवश्यकता है।

राहुल गाँधी इस समय जिस साहस के साथ सत्ता पर हमला कर रहे हैं और भारत जोड़ो यात्रा शुरू कर रहे हैं ऐसे समय में पार्टी के साथ मज़बूती से खड़े रहने की आवश्यकता थी न कि सोनिया गाँधी को लिखे पत्र में यह प्रवचन देने की कि -'पार्टी को 'भारत जोड़ो अभियान' से पहले 'कांग्रेस जोड़ो अभियान' चलाना चाहिए था'।

कांग्रेस छोड़ते समय सोनिया गांधी को अपनी व्यथा बताते हुए आज़ाद लिखते हैं कि पार्टी के शीर्ष पर एक ऐसा आदमी थोपा गया जो गंभीर नहीं है। आश्चर्य है कि एक दशक से भी लंबे समय तक उसी 'आदमी' के साथ काम करने के बाद उन्हें यह पता चला ? और यदि राहुल गाँधी जैसा सत्ता की ग़लत नीतियों पर आक्रामक रहने वाला नेता उन्हें गंभीर नज़र नहीं आता तो यह उनकी आँखों की कमज़ोरी हो सकती है राहुल की नहीं।

वे लिखते हैं कि पार्टी के अहम फ़ैसले राहुल गांधी की चाटुकार मंडली ले रही है। यह संभव है, परन्तु राजीव व सोनिया गाँधी के समय आप भी ऐसी ही चाटुकार मण्डली के सदस्य थे तब तो सब ठीक ठाक था आज आपको उस चाटुकार मण्डली में तवज्जोह कम दी जा रही है लिहाज़ा आपको बुरा लग रहा है ?

आपने लिखा कि पार्टी के सभी अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर दिया गया है। इस आरोप से साफ़ है कि आप राज्य सभा की कुर्सी पाने में नाकाम रहे इसलिये आप ऐसे आरोप लगा रहे हैं।

आप फ़रमाते हैं कि पार्टी अब इस हाल में पहुँच गई है कि वहाँ से वापस नहीं लौट सकती। ज़ाहिर है इस दुर्दशा के लिये में आप जैसे ही पैराशूट नेता ज़िम्मेदार हैं। जो जनाधार विहीन भी हैं और पद व सत्ता के बिना रह भी नहीं सकते।

आज आपको यह महसूस हुआ कि पार्टी के अहम फ़ैसले राहुल गांधी के सिक्योरिटी गार्ड और पीए ले रहे हैं? आर के धवन, यशपाल कपूर का ज़माना शायद आज़ाद भूल गये। एक दशक बाद आज़ाद को यह भी याद आया कि राहुल गांधी का अध्यादेश फाड़ने का फ़ैसला बिल्कुल बचकाना था। पार्टी छोड़ते वक़्त ही उन्होंने आरोपों का पुलिंदा तैयार किया ?

सोनिया गाँधी को लिखे पत्र में उन्होंने यह भी कहा है कि पार्टी के भीतर की लोकतांत्रिक प्रक्रिया एक तमाशा बन गयी है। और यह भी कि पार्टी को चलाने के लिए एक और कठपुतली की तलाश हो रही है।

आज़ाद को यह महसूस करना चाहिये कि आज उन्हें देश जितना भी जानता है वह इसी 'कठपुतली' व पार्टी की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में व्याप्त कथित तमाशे के ही कारण। यदि वे कांग्रेस पार्टी में क़द्दावर व जनाधार रखने वाले नेता होते तो कश्मीर में उनका जनाधार महाराष्ट्र में शरद पवार व बंगाल में ममता बनर्जी जैसा होता। और वे भी अपने बल पर कश्मीर में कुछ कर दिखाते। परन्तु कल तक वे भी कांग्रेस आलाकमान की उसी 'चौकड़ी' का हिस्सा थे जिसे राहुल गाँधी आज बदल रहे हैं।

ख़बर है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह की तर्ज़ पर वे भी किसी क्षेत्रीय दल बनाने की फ़िराक़ हैं। उन्हें ऐसा ज़रूर करना चाहिये ताकि अपने जनाधार का अंदाज़ा भी हो सके साथ यह अंदाज़ा भी हो सके कि जिस कांग्रेस विशेषकर नेहरू-गाँधी परिवार ने उन्हें हर पद व सम्मान दिया उसके बिना वे अकेले अपने दम पर आख़िर कर भी क्या सकते हैं। और करें भी क्यों ना क्योंकि आख़िरकार -'कल तक जो ख़ुद 'ग़ुलाम' थे, आज़ाद हो गये'।

तनवीर जाफ़री

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व स्तंभकार हैं।

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