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So the government marketing of Kashmir Files is inspired by Hitler!
धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव की बात करने वालों को अपमानित कर रही है द कश्मीर फाइल्स (The Kashmir Files humiliating those who talk of secularism, sarvadharma sambhav)
देश बदल चुका है! (The country has changed!)
देश बदल नहीं रहा है बल्कि बहुत कुछ बदल चुका है! एक वह समय था जब भारत के प्रधानमंत्री अपने समय के फिल्मकारों को 'हकीकत', 'प्यासा', 'नया दौर' जैसी फिल्में बनाने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे और आज वह समय आ गया है जब मौजूदा प्रधानमंत्री एक यौन कुंठित और तीसरे दर्जे के फिल्मकार की अधूरा सच और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर बनाई गई बदअमनी फैलाने वाली फिल्म 'कश्मीर फाइल्स' की मार्केटिंग कर रहे हैं। यह विडंबना तब के और अब के प्रधानमंत्री के बीच उनकी औपचारिक पढ़ाई-लिखाई के फर्क के साथ ही उनके बौद्धिक स्तर और उनके इरादों के फर्क को भी रेखांकित करती है।
प्रतिहिंसा से उबल रहे हैं लोग
आज से पहले कभी किसी सरकार को खुलेआम दंगा-फसाद के लिए लोगों को उकसाते या भड़काते हुए नहीं देखा गया था (दबे-छुपे भले ही पहले ऐसा किया गया हो)। आज प्रधानमंत्री के नेतृत्व में पूरी केंद्रीय मंत्रिपरिषद, दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी, उस पार्टी की सभी राज्य सरकारें, दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन और कॉरपोरेट नियंत्रित-सरकार समर्थक मीडिया आम लोगों को फिल्म 'कश्मीर फाइल्स' देखने के लिए उकसा रहे हैं, ललकार रहे हैं। राज्य सरकारों ने फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया है। यही नहीं, वे अपने पुलिसकर्मियों और अन्य कर्मचारियों को फिल्म देखने के लिए अवकाश भी दे रही हैं।
जिस तरह प्रधानमंत्री की रैलियों के लिए बसों के जरिए भीड़ जुटाई जाती है और उसके लिए नाश्ता-भोजन आदि का इंतजाम किया जाता है, उसी तरह इस फिल्म को दिखाने के लिए भी सत्तारूढ़ पार्टी और उसके बगल-बच्चा संगठनों की ओर से आम लोगों को बाकायदा बसों में भर कर सिनेमा हॉल तक ले जाया जा रहा है। उन लोगों के लिए फिल्म के दौरान चाय-नाश्ते और फिल्म देखने के बाद भोजन की व्यवस्था की जा रही है। सुदूर गांवों में रहने वाले लोगों को फिल्म देखने के लिए निकटवर्ती शहरों में बुलाया जा रहा है। लोग जुलूस की शक्ल में भाजपा और आरएसएस के झंडे लहराते हुए भी फिल्म देखने जा रहे हैं।
फिल्म देख कर सिनेमा हॉल से बाहर निकल रहे लोगों के वीडियो बता रहे हैं कि वे प्रतिहिंसा से उबल रहे हैं। वे भारतमाता की जय और एक राजनीतिक दल की जिंदाबाद के साथ मोदी-मोदी के नारे भी लगा रहे हैं और अनियंत्रित होकर एक समुदाय विशेष को मां-बहन की भद्दी गालियां भी बक रहे हैं, बदला लेने के नारे लगा रहे हैं। उनकी नारेबाजी में कश्मीरी पंडितों के विस्थापन-पलायन और उनके दर्द की टीस का कोई नामोनिशान नहीं है। यह सब सिनेमा हॉल के बाहर ही नहीं, भीतर फिल्म देखने के दौरान भी हो रहा है।
आमतौर पर मल्टीप्लेक्सों में लूज टॉक या गाली-गलौज तो छोड़िए, किसी दृश्य पर सीटी या ताली बजाना तक शिष्टाचार या सभ्यता के विपरीत माना जाता है। लेकिन कश्मीर फाइल्स के शो में सब कुछ जायज है। भद्र समझे जाने वाले लोग भी उसे मौन सहमति दे रहे हैं। यानी इस फिल्म ने एक राजनीतिक दल के समर्थकों को इस बात की 'नैतिक' ताकत दे दी है कि अब वे अपने देश-दुनिया के मुसलमानों को किसी भी सार्वजनिक जगह पर गंदी गाली दे सकते हैं, आसपास के सभ्य पुरुषों को तो छोड़िए, यहां तक कि संभ्रात घरों की महिलाएं भी बुरा नहीं मानेंगीं।
पिछले कुछ सालों से धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव या भाईचारे की बात करने वालों को अपमानित और लांछित करने का चलन शुरू हुआ है। यह फिल्म भी यही कर रही है। हिंदू उग्रवाद से हट कर कोई और सोच रखने वालों को यह फिल्म कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों के साथ एक पाले में खड़ा कर देती है। फिल्म के नजरिए में धर्मनिरपेक्ष होना या दूसरे धर्मों के प्रति सम्मान का भाव रखना आतंकवादी होने और अपने धर्म से गद्दारी करने जैसा है। फिल्म साफ-साफ संदेश देती है कि यदि आप अब भी सांप्रदायिक नहीं हुए हैं तो आप खतरे में हैं, आपका मुस्लिम पड़ोसी आपके मकान-दुकान पर कब्जा कर सकता है और आपकी जान तक ले सकता है। इससे बचने के लिए आपका सांप्रदायिक होना नितांत आवश्यक है।
क्या द कश्मीर फाइल्स को फिल्म कहा जा सकता है? ( Can The Kashmir Files be called a film?)
'कश्मीर फाइल्स' जिस मकसद से बनाई गई है, उसमें वह पूरी तरह सफल रही है। लेकिन सवाल है कि क्या कश्मीर फाइल्स को सिनेमा कहा जा सकता है? दरअसल 'कश्मीर फाइल्स' कश्मीरी पंडितों के बहाने एक समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत पैदा करने का एक राजनीतिक औजार है, जो सत्ता द्वारा प्रायोजित है।
फिल्म बनाने वाले को सरकार से शाबासी तो मिल ही रही है, खुद प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए फिल्मकार की, फिल्म में काम करने वालों की और फिल्म की विषयवस्तु की न सिर्फ मुक्त कंठ से तारीफ कर रहे बल्कि फिल्म की तार्किक आलोचना करने वालों की, उनकी चिंताओं और सद्इच्छाओं की खिल्ली उड़ा रहे हैं। फिल्म से रिकॉर्ड तोड़ कमाई भी हो रही है। विकृत मानसिकता वाले एक तीसरे दर्जे के फिल्मकार और उसके मुख्य किरदार को और क्या चाहिए?
भारत अनोखा देश, जहां सरकार के स्तर पर गृहयुद्ध के लिए लोगों को ललकारा-उकसाया जा रहा
दुनिया के लोकतांत्रिक समाजों में सरकारें कहीं की भी हो, वे मुश्किल से मुश्किल हालात में अपने लोगों से शांति की अपील और शांति के लिए जरूरी बंदोबस्त करती दिखती हैं। लेकिन भारत एक अपवाद है जहां सरकार के स्तर पर गृहयुद्ध के लिए आबादियों को ललकारा-उकसाया जा रहा है। व्यक्तिगत रूप से तो लोगों के आत्मदाह करने की खबरें अक्सर आती ही रहती हैं लेकिन किसी चुनी सरकार द्वारा खुद को और पूरे मुल्क को आग में झोंकने की मिसाल पहली बार देखने को मिल रही है।
अब तक हमें ऐसी सरकारें मिलती रही हैं जो किताबों, नाटकों, चित्र और कार्टून प्रदर्शनियों, जुलूसों, सभाओं आदि पर इस वजह से प्रतिबंध लगाती रही हैं कि उनसे समाज में तनाव पैदा हो सकता था, लोगों की भावनाएं आहत और अनियंत्रित हो सकती है, शांति भंग हो सकती है और कानून-व्यवस्था की स्थिति बेकाबू होने का खतरा पैदा हो सकता है। लेकिन अब हम ऐसी सरकार देख रहे हैं जो पूरी शिद्दत से चाहती है कि यह सब हो और जरूर हो।
द कश्मीर फाइल्स का हिटलर से रिश्ता (The Kashmir Files' relationship with Hitler)
समूची दुनिया के इतिहास में केवल एक ही उदाहरण मिलता है जब किसी चुनी हुई सरकार ने अपनी जनता को नफरत फैलाने वाली फिल्म देखने के लिए प्रेरित किया हो, वह थी- नाजी जर्मनी की सरकार। एडोल्फ हिटलर की नाजी पार्टी (Adolf Hitler's Nazi Party) ने 1933 में जर्मनी में अपनी सरकार के तहत फिल्म विभाग की स्थापना की थी। उसका मुख्य कार्य 'सार्वजनिक शिक्षा और ज्ञान के लिए उपयुक्त' फिल्में बनाना और लोगों को दिखाना था। ऐसी फिल्मों का मुख्य उद्देश्य जातीय और नस्लीय 'सफाई' था उस दौर में डाक्यूमेंट्री, न्यूजरील, लघु फिल्म और फीचर फिल्म मिलाकर लगभग एक हजार फिल्में बनाई गई थीं। नाजी फिल्म विभाग द्वारा निर्मित यहूदी विरोधी फिल्म 'द एटरनल जूयस' और 'जूड सस' को 1940 में रिलीज किया गया था।
जिस तरह हमारे यहां मध्य प्रदेश सरकार पुलिसकर्मियों को कुछ अन्य राज्यों में सभी सरकारी कर्मचारियों को फिल्म देखने के लिए छुट्टी दी जा रही है, उसी तरह होलोकास्ट के मुख्य कर्ताधर्ता और हिटलर के विश्वस्त सहयोगी हेनरिक हिमलर ने भी अपने यहां की पुलिस सहित दूसरे कर्मचारियों को यहूदी विरोधी फिल्में देखने का फरमान जारी किया था।
नाजी जर्मनी में खास विचारधारा पर आधारित नफरत फैलाने वाली ऐसी फिल्मों के निर्माण के लिए कम ब्याज पर कर्ज उपलब्ध कराने के लिए एक 'फिल्म क्रेडिट बैंक' की स्थापना की गई और ऐसी फिल्मों को टैक्स फ्री भी किया गया था। नाजी सरकार की ओर से ऐसी फिल्मों को पुरस्कृत भी किया जाता था।
फिल्मों के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के बारे में हिटलर की समझ
दरअसल हिटलर खुद भी फिल्मों के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के बारे में समझ (Hitler's understanding of the psychological impact of films) रखता था। अपनी आत्मकथा 'मीन कैम्फ' में उसने लिखा है कि लोगों को लिखे अथवा छपे हुए शब्दों की अपेक्षा फिल्मों से जोड़ना ज्यादा आसान है। हिटलर और उसका प्रचार मंत्री जोसेफ गॉएबल्स नियमित रूप से अपने घर में फिल्में देखते थे और अक्सर उन फिल्मों के तथा फिल्म निर्माण के बारे में चर्चा करते थे।
साफ नजर आता है कि फिल्में नाजी जर्मनी में नफरत फैलाने का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम थीं और आज भारत में भी उसी तर्ज पर नफरत फैलाने के लिए उसी माध्यम को अपनाया जा रहा है।
अनिल जैन