भारत सरकार ने दिया विस्थापित मजदूरों को मई दिवस का तोहफा : हँसें या रोयें  ?

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hastakshep
04 May 2020
भारत सरकार ने दिया विस्थापित मजदूरों को मई दिवस का तोहफा : हँसें या रोयें  ?

Government of India gave May Day gift to displaced laborers: Laugh or cry?

लॉकडाउन के पांच सप्ताह (Five weeks of lockdown) के बाद सरकार का यह फैसला कि देश में अनेक जगह फंसे हुए विस्थापित श्रमिकों को अपने गाँव-घर जाने लिये विशेष ट्रेनें चलाई जायेंगी, मई दिवस के एक तोहफे के रूप में सामने आया। यह उम्मीद सभी को थी कि 3 मई को दूसरे लॉकडाउन की अवधि (Lockdown period) सामाप्त होने पर सरकार अपने कार्य-स्थलों से लेकर हाई-वे की सड़कों और विभिन्न राज्यों की सीमाओं पर फंसे इन श्रमिकों की घर वापसी के लिये कोई न कोई कदम जरुर उठाएगी।

शुक्रवार यानी 1 मई को रेलवे ने सुबह-सबेरे अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस (International Workers' Day) के मौके पर पहली ट्रेन तेलंगाना में हैदराबाद से झारखंड के हटिया के लिये रवाना की जिसमें 1200 प्रवासी श्रमिक थे।

महाराष्ट्र के नासिक से जो ट्रेन मध्यप्रदेश के भोपाल के लिये रवाना हुई उसमें लगभग 325 प्रवासी श्रमिक थे। 1 मई को कुल 6 ट्रेन चलाई गईं।

आप अंदाज लगा सकते हैं कि एक करोड़ में से यदि आधे भी वापस लौटने वाले होंगे तो उनके वापस लौटने तक लॉक-डाउन का तीसरा दौर भी खत्म हो जाएगा।

प्रश्न यह है कि लॉक-डाउन के 5 सप्ताह के बाद सरकार के इस तोहफे पर वे श्रमिक जो सरकार की तरफ से निराश होकर भूखे-प्यासे पैदल, साईकिल से सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पर रवाना हो गए और आज देश में सड़कों के किनारे, राज्यों की सीमाओं पर लाखों की संख्या में फंसे हुए हैं, वे मई दिवस को मिले इस सरकारी तोहफे पर हसें या रोयें?

ये पांच सप्ताह हिन्दुस्तान को गढ़ने वाले उन कामगारों के लिये बेरोजगार होने के साथ-साथ भूख और लाचारी के थे और जिसमें कितनों ने तो अपनी जिंदगी भी गँवा दी। जिन्हें विस्थापितों के लिये बनाए गए आश्रयस्थलों में रखा गया, उन्हें तो वहाँ जेल से भी ज्यादा बदतर ज्यादतियां झेलनी पड़ी हैं और अभी झेल रहे हैं।

अर्थशास्त्रियों से लेकर सरकारी मशीनरी का छोटे से छोटा कर्मचारी भी जानता है कि कपड़े या गारमेंट्स से लेकर स्टील तक, खिलोनों से लेकर कार तक, सड़क बनाने से लेकर भवन निर्माण तक, सभी उद्योगों और निर्माण कार्यों में, तथा बड़े उद्योगों के लिये आवश्यक कल-पुर्जों के निर्माण के लिये जो सहायक छोटी और मंझौली औद्योगिक इकाई काम करती हैं, उनमें श्रमिकों की पूर्ति, चाहे वह स्थायी कर्मचारी के रूप में हो अथवा ठेकेदार के माध्यम से, भारत के सुदूर गाँवों और छोटे शहरों से आये इन श्रमिकों से ही होती है।

सरकार ये भी अच्छी तरह से जानती थी कि इन बड़े अथवा छोटे उद्यमियों से कितना भी हाथ जोड़कर कहा जाये पर जब सरकारें खुद अपने कर्मचारियों को यथोचित वेतन तक देने की स्थिति में नहीं है तो ये उद्यमी जब उत्पादन और विक्रय दोनों बंद हैं, कहाँ से इन मजदूरों को वेतन का भुगतान करेंगे।

तब देश में लॉक-डाउन घोषित करने के तुरंत बाद ऐसी ही विशेष ट्रेन चलाकर इन्हें अपने गाँव और घरों को वापस जाने का अवसर क्यों नहीं दिया गया?

यहाँ यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि जब लॉकडाउन घोषित किया गया तब देश में कोविड संक्रमितों की संख्या (Number of Covid Infections in the country) मात्र 500 के आसपास थी और साथ ही इस बात की संभावना भी बहुत कम थी कि इन हजारों श्रमिकों में से कोई संक्रमित भी हो क्योंकि तब संक्रमण उन्हीं लोगों के मध्य था जो विदेश से लौटे थे अथवा किसी ऐसे संक्रमित के संपर्क में आए थे जो विदेश से लौटा हो।

सरकार का जबाब ये हो सकता है कि यदि इन श्रमिकों को इनके गाँव जाने दिया गया होता और इनसे संक्रमण गांवों और छोटे शहरों तक फैलता तो वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं की समुचित व्यवस्था नहीं होने से संक्रमण के फैलाव को रोकना संभव नहीं हो पाता। लॉक-डाउन की अवधि में देश के छोटे से छोटे गाँव तथा नगर में कोरोना के परीक्षण तथा उपचार की व्यवस्था स्थापित हो जाएगी।

पर धरातल पर इन पाँच सप्ताह के भीतर गांवों की बात तो छोड़ भी दें, बड़े शहरों में भी कोरोना परीक्षण का कोई माकूल ढांचा उस स्तर पर नहीं खड़ा हो पाया है कि संक्रमण को पहले ही पता करके रोका जा सके। न ही छोटे नगर अथवा जिला स्तर भी चिकित्सा सुविधाओं के विस्तार करने के कोई प्रयत्न भी किए गए हैं। अब जब इन्हें वापस ले जाने के लिए ट्रेन चलाई जा रही है देश बुरी तरह कोरोना संक्रमण की गिरफ्त में है। संक्रमितों की संख्या 42000 से ज्यादा है और संक्रमण से हुई मृत्यु 1400 के आंकड़े को छू रही है।

अरुण कान्त शुक्ला अरुण कान्त शुक्ला

सरकार के इन्हें वापस लाने के लिए विशेष ट्रेन चलाने के निर्णय के बाद भी सभी जानते हैं कि देश में गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और अनेक जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। शायद ही कोई विश्वास करेगा कि रेलवे के लिए यह संभव है कि वह समुचित संख्या में ट्रेन चलाकर देश के अनेक राज्यों की सीमाओं और हाईवे पर भटक रहे इन लोगों को वापस इनके घरों को वापस भेजने की कोई माकूल व्यवस्था कर पाये। उस पर तुर्रा यह कि रेलवे इन सभी का किराया राज्य सरकारों से वसूल करने वाली है। राज्य सरकारें पहले से ही अपने कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दे पाने की स्थिति में हैं। यदि कोई व्यवस्था हो सकती थी तो वह केवल लॉक-डाउन की तिथि घोषित करने के बाद नियमित ट्रेनों को कुछ अवधि तक चलाकर इन्हें वापस जाने का अवसर प्रदान करने की ही हो सकती थी। तब इन श्रमिकों की आर्थिक हालत भी आज से बेहतर होती और ये रेलवे को खुद किराया दे सकते थे। वैसी स्थिति में अभी यात्रा के पहले स्वास्थ्य परीक्षण हो रहा है उसका पैसा और राज्य में वापस जाने के बाद स्वास्थ्य परीक्षण पर को खर्च होने वाला है, सभी से बचा जा सकता था।

जैसा कि सरकार ने स्वयं लोकसभा का सत्र समाप्त होने के बाद और मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने के बाद लॉक-डाउन घोषित किया ताकि सांसद अपने घरों को वापस लौट सकें और मध्यप्रदेश में सरकार बन सके। क्या, इन मजदूरों के लिए जो वास्तव में देश का निर्माण करते हैं लौटने के लिए दो दिन का समय लॉक-डाउन घोषित करने के बाद नहीं दिया जा सकता था?

अरुण कान्त शुक्ला

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