सरकारें, पुलिस एक्ट-कानूनों में संशोधन के बजाय पुलिस रिफॉर्म पर काम करें

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hastakshep
28 Nov 2020
सरकारें, पुलिस एक्ट-कानूनों में संशोधन के बजाय पुलिस रिफॉर्म पर काम करें

Governments should work on police reform rather than amending police act-laws

Police is an important link and protector of democracy. The police is also responsible for the success of democracy.

•डॉ. लखन चौधरी•

देश में पुलिस सुधार अध्यादेशों एवं कानूनों की आवश्यकताओं पर एक बार फिर से पुर्नविचार करने का समय आ गया है। वैसे तो पुलिस सुधार के इस महत्वपूर्णं मसले पर देश में समय-समय पर चर्चाएं, बहस एवं विमर्श होते रहे हैं, लेकिन इस बार केरल सरकार द्वारा पुलिस एक्ट में धारा 118ए जोड़ने संबंधी नया अध्यादेश लाने और 24 घंटे के भीतर इस अध्यादेश को वापस लेने के कारण इस मुद्दे को एक बार फिर सुर्खियां में आने का मौका मिला है।

सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह अध्यादेश जल्दबाजी में लाया गया था ? क्या इस अध्यादेश के कारण पुलिस अधिकारों की सीमाओं में अवांछित एवं गैर-जरूरी बढ़ोतरी हो रही थी ? क्या वास्तव में पुलिस प्रशासन इस कानून का दुरूपयोग करके आमजन को परेशान कर सकती थी ? क्या वाकई यह अध्यादेश इतना विवादित था, जिसे केरल सरकार द्वारा आनन-फानन में लाया गया और उतनी ही तत्परता के साथ वापस ले लिया गया ?

केरल की लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार ने जिस पुलिस एक्ट में धारा 118ए जोड़ने संबंधी नया अध्यादेश लाया था, क्या वह वाकई औचित्यपूर्णं था ? वर्तमान परिवेश में उसकी कितनी जरूरत थी ? क्या इसके बगैर पुलिस के हाथ बंधें हैं, जो समाज में अराजकता फैलाने वालों को गिरफ्तार नहीं कर सकती है ? क्या इस एक्ट को लागू करने के बाद पुलिस एवं सरकार ताकतवर हो जाते ? इस एक्ट के लागू हो जाने के बाद केरल पुलिस को पहले से अधिक अधिकार मिलने की बात कितनी सही है ? क्या यह आशंका सही थी कि पुलिस इनका दुरूपयोग कर किसी को भी किसी मामले में फंसा सकती थी, इसी वजह से इसका विरोध हुआ और सरकार को इस अध्यादेश को महज 24 घंटे के भीतर वापस लेना पड़ा ?

पहले जानिए धारा 118ए क्या है

धारा 118ए के अनुसार किसी भी संचार माध्यम में आपत्तिजनक, अपमानजनक, बदनाम करने वाले या धमकी भरे पोस्ट करने वाले व्यक्ति को पुलिस स्वतः संज्ञान लेकर कभी भी गिरफ्तार कर सकती है। इसमें तीन साल तक की सजा या दस हजार रूपये जुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान था। इस अध्यादेश को केरल के राज्यपाल ने भी मंजूरी दे दी थी, इसके बावजूद इसे सरकार ने वापस ले लिया है। इसका तात्पर्य यह है कि इस अध्यादेश में कुछ तो ऐसा था जिसका पुलिस मनमानी इस्तेमाल करते हुए किसी भी व्यक्ति को कभी भी परेशान कर सकती थी। तो सवाल उठता है कि क्या पुलिस अभी ऐसा नहीं करती है ? या नहीं कर सकती है ?

किसी भी संचार माध्यम से किसी भी तरह के पोस्ट के लिए किसी भी व्यक्ति को कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था। इस अध्यादेश को लेकर जो आपत्ति एवं विरोध की बात हो रही है, उसका महत्वपूर्णं भाग यह है कि इस अध्यादेश को कानून का स्वरूप देने के बाद ’फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन’ के उल्लंघन का मामला ('Freedom of speech and expression' violation case) बनता है, जो कि असंवैधानिक है।

संविधान में आर्टिकल 19 के तहत देश के प्रत्येक नागरिक को ’बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का अधिकार मिला हुआ है, और इसी को लेकर इसका विरोध किया गया और कहा गया कि इस एक्ट के द्वारा सरकार किसी भी व्यक्ति को कभी भी परेशान, गिरफ्तार कर सकती है। तो यहां सवाल उठता है कि क्या सरकार अभी ऐसा नहीं करती हैं ? या नहीं कर सकती हैं ? आजादी के सात दशकों में केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने कितनी बार इसका दुरूपयोग किया है ?

दरअसल में आज भी हमारे देश की पुलिस की छवि इतनी अस्पष्ट, पक्षपाती, भ्रामक है कि एक तरफ पुलिस को अपनी इमेज सुधारने के लिए समाज को बताना पड़ता है कि पुलिस उसकी रक्षक है, पुलिस जनता की सेवा के लिए है; तो दूसरी तरफ पुलिस सरकारों के दबाव में आकर वो सब कुछ करती है, जो उसे जनहित में नहीं करनी चाहिए।

एक तरफ पुलिस समाज के अपराधियों, समाज में अराजकता फैलाने वाले अनैतिक लोगों से लड़ती दिखाई देती है; तो दूसरी तरफ उन्हीं अपराधियों एवं समाज के दुश्मनों का संरक्षण करती दिखती है।

सवाल इसलिए उठते हैं कि आखिरकार पुलिस अपनी इमेज, छवि को लेकर इतनी अस्पष्ट, भ्रमित क्यों है ? पुलिस जनता का विश्वास हासिल करने में इतनी पीछे क्यों है ?

आज देश की आम जनता पुलिस पर विश्वास नहीं करती है तो इसके पीछे कौन से, कौन-कौन से कारण हैं ?

देश के सुदूर, ग्रामीण, अंदरूनी, दुर्गम एवं नक्सली क्षेत्रों में पुलिस की भूमिका अक्सर संदेहास्पद क्यों रहती है ? नक्सली हमेशा पुलिस को अपना निशाना क्यों बनाते हैं ? पुलिस का अक्सर अपराधियों के साथ गठजोड़ क्यों देखने को मिलता है ? कई बार जानते हुए भी पुलिस सही, सच्चाई का साथ न देकर गलत का साथ क्यों देती है ? पुलिस अक्सर अपनी भूमिका में गलत क्यों साबित होती है ? न्यायालयों में पुलिस सबूत साबित करने में अक्सर असफल क्यों होती है ? सैकड़ों सवाल हैं जिनका जबाव पुलिस के पास है, लेकिन फिर भी पुलिस बेचारगी की स्थिति में है। क्या यह पुलिस की निर्बलता है, अक्षमता है, अनिर्णयात्मकता है, किंकर्तव्यमूढ़ता है ? विडम्बना है ? बेबसी है ? क्यों है ? किसलिए है ? इन सवालों का उत्तर भी पुलिस को देना होगा, देना चाहिए, क्योंकि पुलिस लोकतंत्र की एक महत्वपूर्णं कड़ी और रक्षक है। लोकतंत्र की सफलता का दायित्व पुलिस पर भी है। पुलिस इस जिम्मेदारी एवं जवाबदेही से बच नहीं सकती है। आज पुलिस को यह समझने की जरूरत है कि पुलिस कहीं न कहीं अपनी भूमिका के निर्वहन में चूक कर रही है। इस दबाव से उसे बचना होगा, निकलना होगा तभी वह अपनी भूमिका के प्रति न्याय कर सकती है।

सबसे महत्वपूर्णं बात जिस पर इस समय अधिक विमर्श एवं परिचर्चा की दरकार है कि पुलिस एवं सरकार मिलकर पुलिस सुधार या पोलिसिंग रिफार्म की बात क्यों नहीं करते हैं ? पुलिस अपनी इमेज-छवि सुधारने की दिशा में ठोस काम क्यों नहीं करती है ? घटना के घटित हो जाने के बाद ही पुलिस घटनास्थल पर क्यों पहुंचती है ? पुलिस जिस दिन समाज के अंतिम पंक्ति के लोगों की दुखदर्द की भागीदार बन जायेगी, सरकारों की हां में हां मिलाना छोड़कर अपनी जिम्मेदारी एवं जवाबदेही निभाने लगेगी, उसी दिन सही अर्थ में पुलिस की भूमिका देश के लिए सार्थक बन सकेगी।

सार यह है कि इस समय देश में पुलिस एक्ट कानूनों में सुधार एवं संशोधन की जगह देश को पुलिस सुधार या रिफार्म की अधिक जरूरत एवं आवश्यकता है।

सरकारों को चाहिए कि पुलिस एक्ट कानूनों में नई धाराएं जोड़कर पुलिस को शक्तिशाली बनाने के बजाय पुलिस सुधार एवं पुलिस रिफार्म पर काम करें। सरकारों की कठपुतली बनने के बजाय पुलिस जनता की हितैषी बने, जनता का विश्वास अर्जित करे, तो यही पुलिस के लिए बड़ी ताकत बन जाायेगी। पुलिस अपनी जिम्मेदारी एवं जवाबदेही के लिए सरकारों पर निर्भर रहने के बजाय अपनी शक्तियों का सही इस्तेमाल करे। पुलिस, आज न सिर्फ जनता की हमदर्द बन सकती है बल्कि समाज सुधार एवं लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में मील के पत्थर की भूमिका भी निभा सकती है, और पुलिस को यह भूमिका अवश्य निभानी चाहिए।

(लेखक; मीडिया पेनलिस्ट एवं सामाजिक-आर्थिक विमर्शकार हैं)

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