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ज्ञानवापी मामले को पूजा स्थल अधिनियम के दायरे से बाहर बताना राजनीतिक फैसला- शाहनवाज़ आलम
राजनीतिक प्रभाव में अपने ही पुराने फैसलों की अवमानना करने से न्यायपालिका की विश्वसनीयता कम होगी
थिरुवनंतपुरम, 13 सितंबर 2022। उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष शाहनवाज़ आलम ने बनारस ज़िला अदालत द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद में पूजा करने की मांग वाली याचिका को स्वीकार करने और इसे पूजा स्थल अधिनियम 1991 के दायरे से बाहर बताने को राजनीतिक निर्णय बताया है।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा पूजा स्थल अधिनियम 1991 को चुनौती देने वाली याचिका (Petition challenging the Place of Worship Act 1991) के स्वीकार करने के बाद से ही यह संदेह जताया जाने लगा था कि न्यायपालिका का एक हिस्सा पूजा स्थल अधिनियम 1991 को खत्म करने के लिए प्रॉक्सी मुकदमों के ज़रिये देश की अखंडता को तोड़ने के राजनीतिक षड़यंत्र का समर्थक हो गया है।
उन्होंने कहा कि ईडी और सीबीआई के बाद न्यायपालिका का राजनीतिक दुरूपयोग लोकतंत्र के लिए अशुभ है।
कांग्रेस नेता ने कहा कि अल्पसंख्यक कांग्रेस जल्द ही न्यायपालिका के राजनीतिक दुरूपयोग के खिलाफ़ जन जागरूकता अभियान चलायेगी।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि ज्ञानवापी मस्जिद में पूजा करने की मांग वाली याचिका को सुप्रीम कोर्ट को प्रथम दृष्ट्या ही ख़ारिज कर देना चाहिए था क्योंकि 14 मार्च 1997 को मोहम्मद असलम भूरे वर्सेस भारत सरकार (रिट पिटीशन नंबर 131/1997) { Mohd. Aslam Bhure Vs. Government of India (Writ Petition No. 131/1997)} में सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट कर चुका था कि काशी विश्वनाथ मंदिर, ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और शाही ईदगाह की स्थिति में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। अपने पुराने निर्णय (रिट पटिशन 541/1995) का हवाला देते हुए कोर्ट ने यह भी कहा था कोई भी अधिनस्त अदालत इस फैसले के विरुद्ध निर्देश नहीं दे सकती। लेकिन इसे जानबूझ कर स्वीकार कर लिया गया और मामले को जिला अदालत भेज दिया गया ताकि वहाँ से आने वाले संभावित राजनीतिक फैसले को मुस्लिम पक्ष हाई कोर्ट में चुनौती दे और मामला हाई कोर्ट चला जाए। यह दूसरी बाबरी मस्जिद बनाने की कोशिश है।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि इस बीच एक रणनीति के तहत मथुरा, बनारस, बदायूं, क़ुतुब मीनार, ताजमहल समेत कई ऐतिहासिक मुस्लिम इमारतों के मंदिर होने के दावे वाले प्रॉक्सी मुकदमे निचली अदालतों ने स्वीकार करने शुरू कर दिये, ताकि एक व्यापक माहौल बन सके। इसी रणनीति के तहत सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद के कथित सर्वे की रिपोर्ट के लीक होने पर तो नाराज़गी जतायी थी, लेकिन उस कथित सर्वे के आधार पर मीडिया द्वारा प्रसारित किए जा रहे सांप्रदायिक अफवाहों पर कोई रोक नहीं लगाई थी, ताकि मस्जिद के खिलाफ़ कथित जन भावना का निर्माण किया जा सके।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि वर्ष 1937 में बनारस ज़िला न्यायालय में दीन मोहम्मद द्वारा दाखिल वाद में ये तय हो गया था कि कितनी जगह मस्जिद की संपत्ति है और कितनी जगह मंदिर की संपत्ति है। इस फैसले के ख़िलाफ़ दीन मोहम्मद ने हाई कोर्ट इलाहाबाद में अपील दाखिल की जो 1942 में ख़ारिज हो गयी थी। इसके बाद प्रशासन ने बैरिकेटिंग करके मस्जिद और मंदिर के क्षेत्रों को अलग-अलग विभाजित कर दिया। वर्तमान वजूखाना उसी समय से मस्जिद का हिस्सा है।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि सवाल उठता है कि जब 1937 और 1942 में ये कथित शिवलिंग जिसे आज सर्वे टीम खोज निकालने का दावा कर रही है, वहां मौजूद नहीं था तो आज कैसे मिल गया? जिसके बुनियाद पर यह याचिका स्वीकार कर ली गयी। उन्होंने कहा कि राजनीतिक प्रभाव में अगर अदालतें अपने ही पुराने फैसलों की अवमानना करने लगेंगी तो न्यायपालिका पर कौन विश्वास करेगा।
अब न्यायपालिका भी वॉट्सएप ज्ञान का शिकार
उन्होंने कहा कि बहस के दौरान जिस तरह औरंगजेब को उद्धरित किया गया उससे भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इतिहास की समझ और वैज्ञानिक विवेक से संचालित होने के बजाय न्यायपालिका भी अब वॉट्सएप ज्ञान का शिकार होने लगी है।
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