क्या पांच राज्यों के चुनाव परिणाम से कांग्रेस ने कोई सबक सीखा, क्या उसके पास कोई रोड मैप है?

क्या पांच राज्यों के चुनाव परिणाम से कांग्रेस ने कोई सबक सीखा, क्या उसके पास कोई रोड मैप है?

Has Congress learned any lesson from the election results of five states, does it have a road map?

राहुल गांधी ने कर्नाटक में कहा कि इस बार 150 सीटें जीतना है। इससे कम एक भी नहीं। अच्छी बात है। राजनीति में यह आत्मविश्वास दर्शाते रहना चाहिए। इससे कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ता है, जनता में सही, सकारात्मक संदेश जाता है। लेकिन नेता को समझना यह चाहिए कि ये बातें पब्लिक कंजप्शन (कहने की) के लिए होती हैं, खुद विश्वास करने के लिए नहीं। खुद को तो ग्राउन्ड रियल्टीज ( जमीनी हकीकत) मालूम होना चाहिए। और उसी के अनुरूप जीत के लिए काम करना चाहिए।

पांच राज्यों के चुनाव नतीजों का ठीक से विश्लेषण भी नहीं किया है कांग्रेस ने

कहना मुश्किल है कि अभी पांच राज्यों के चुनाव नतीजों (five states election results) से कांग्रेस ने कोई सबक सीखा या नहीं। हमारी अपनी समझ और जानकारी के मुताबिक तो कांग्रेस ने इन नतीजों का ठीक से विश्लेषण भी नहीं किया। निष्कर्ष ही अभी दूर की बात है। और सबक तो बहुत दूर की बात।

जल्दबाजी में और जी-23 के दबाव में अपनी सबसे उच्चस्तरीय समिति कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) की बैठक बुला ली और वहां असंतुष्ट नेताओं को अपनी बात कहने का मौका देकर तात्कालिक राहत पा ली। मगर जीतते हुए उत्तराखंड को क्यों हारा? पंजाब हाथ से क्यों निकल गया? गोवा में क्या गलती हुई? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। पांच राज्यों में से इन तीन राज्यों में कांग्रेस को जीत की उम्मीद थी। उत्तराखंड तो जीता हुआ ही माना जा रहा था। पंजाब में बाद में थोड़ी दिक्कतें आईं, मगर आम आदमी पार्टी की ऐसी जीत का अंदाजा किसी को नहीं था। कांग्रेस को इन राज्यों से क्या तथ्य मिले, उनके आधार पर क्या विश्लेषण हुआ, क्या किसी निष्कर्ष पर पहुंचे? किसी को नहीं मालूम।

प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश के नेताओं, कार्यकर्ताओं से बात करके कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। मगर वहां का महत्व इसलिए ज्यादा नहीं है कि वहां के परिणामों के बारे में सबको पता था। कांग्रेस की स्थिति के बारे में किसी को आश्चर्य नहीं है। प्रियंका की मेहनत और कोशिशें जबर्दस्त थीं। यह अलग बात है कि कांग्रेस ने गलत जगह इस्तेमाल कीं। मगर जहां भी कीं, प्रियंका ने अपना मैटल बता दिया। हार रहा मैच भी कितनी ताकत और कौशल से खेला जा सकता है यह प्रियंका ने बता दिया। अगर उनकी क्षमता का इस्तेमाल किसी अनुकूल राज्य में किया जाता तो क्या परिणाम होते यह बताने की जरूरत नहीं है।

लेकिन खैर जो भी होता है अच्छा होता है। इसके बहाने प्रियंका तप कर बाहर निकल आईं। राजनीति में कार्यकर्ता और वोट देने वाली जनता दोनों के लिए नेता का तपा तपाया होना बहुत जरूरी होता। जन मान्यता तभी मिलती है जब नेता गांव, गली घूमा हो, सड़कों पर संघर्ष किया हो, जनता से संवाद होता हो। अब प्रियंका के लिए कोई परीक्षा बची नहीं है। राजनीति के हर पद के लिए उन्होंने पात्रता हासिल कर ली है।

क्या है कांग्रेस की राजनीति? क्या कांग्रेस विपक्ष की जिम्मेदारी निभाने में सफल है?

खैर तो बात हो रही थी राहुल के कर्नाटक की 224 में से 150 सीटें जीत के दावे के बहाने कांग्रेस की राजनीति (Congress politics) की। कांग्रेस देश का सबसे बड़ा विपक्ष है तो जाहिर है जनता की आवाज उठाने की उसकी जिम्मेदारी पर बात होगी ही। यह भी बात होगी कि जनता को विकल्प देने के लिए उसके क्या तैयारी है? विपक्ष का काम केवल विरोध करना ही नहीं है। जनता के लिए नई संभावनाओं को पैदा करना भी है। क्या कांग्रेस इसमें सफल है?

2014 का लोकसभा चुनाव बुरी तरह हारने के बाद सब तरफ कहा जा रहा था कि अब कांग्रेस में भारी परिवर्तन होगा। आमूलचूल बदलाव जैसे बड़े-बड़े शब्द यूज किए जा रहे थे। तब हमने कहा (उन दिनों टीवी जाने लायक हुआ करता था) और लिखा कि पत्ता भी नहीं खड़केगा। वही हुआ। आज भी 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव की हार पर ऐसे कोई चार प्वाइंट नहीं हैं कि हार के ये मुख्य कारण यह हैं। चार के बाद छह और ऐसी बड़ी गलतियां कहीं लिखित में या जबानी नहीं हैं कि यहां हम और काम कर सकते थे।

दस साल की सरकार के बाद कोई ऐसे नहीं हारता है। मगर कांग्रेस ने इसे इतने सामान्य तरीके से लिया जैसे यह कोई दार्शनिक मामला हो। आत्मा की खोज या दुनिया के अस्तित्व जैसा। जिसका उत्तर खोजने की किसी को जरूरत या जल्दी नहीं है, बस इस पर बात करते रहना ही पर्याप्त है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि इस बीच कांग्रेस ने अपनी चमक नहीं दिखाई हो। कुछ राज्य जीते। राहुल गांधी ने जनता के हर मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाया। सड़क से लेकर संसद हर जगह लड़े। और सबसे बड़ी बात लगातार निडर बने रहे।

इस आठ साल के दौर में सबसे बड़ी बात यह है। जब हर इन्सिटट्यूशन झुक गया, शरणागत हो गया तब राहुल की निर्भयता बहुत बड़ी बात है।

खुद कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा डरा हुआ है। उसने 2014 की हार के बाद से ही प्रधानमंत्री मोदी की तारीफें शुरु कर दी थीं।

सोनिया गांधी और राहुल को अभारतीय बताने के लिए मोदी को भारतीय का प्रतीक बताने की शुरुआत कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने ही की थी। राहुल का विरोध करने और मोदी का समर्थन करने वाले ये वही कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने दस साल यूपीए शासन में सरकार में मंत्री या संगठन में उच्च पद हासिल कर रखे थे। सबसे पहले यही डरे। इनमें सबसे वरिष्ठ प्रणव मुखर्जी तो नागपुर संघ कार्यालय तक जाकर हाजिरी लगा आए।

लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। भाजपा और संघ में पहले राहुल की निर्भय छवि को आश्चर्य से देखा गया फिर सराहना के भाव से। राहुल जब चीन के खिलाफ बोलते हैं, अंबानी, अडानी के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो संघ परिवार के बड़े

हिस्से में भी जोश आता है। मगर आज की परिस्थितियों में बोल तो कोई सकता नहीं है मगर आपसी बातचीत में कहते हैं कि एक बात तो है कि बंदा डरता नहीं है। यह बहुत बड़ा सर्टिफिकेट है। विरोधी की तारीफ चाहे वह अभी चुपचाप ही हो मगर सबसे बड़ी प्रशंसा है।

राहुल गांधी या कांग्रेस का सबसे कमजोर पक्ष क्या है?

आज के इस वक्त में जब हर कोई खुद को बचाने में लगा हुआ है चाहे वह न्याय की देवी ही क्यों न हो तब एक साहस का दीप बहुत बड़ी ताकत है। जो लोगों में उम्मीद की रोशनी जलाए हुए है। किसी में कम किसी में ज्यादा मगर समाज के हर वर्ग में, राजनीति में, हर पार्टी में एक आशा की किरण है कि वक्त बदलेगा।

लेकिन केवल साहस से इतनी बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। राहुल का या कांग्रेस का सबसे कमजोर पक्ष यह है कि उनके पास कोई रोड मैप नहीं है। कोई तैयारी नहीं है। फौज अनुशासनहीन है। चार जनरल भी ढंग के नहीं हैं। और इससे भी बड़ी बात यह कि जो बागी हैं उनसे समझौते की अंतहीन कोशिशें जारी हैं। वे जाकर सोनिया से मिलते हैं और मीडिया में खबर चलती है कि राहुल के तीन खास सिपहसालारों को निकालने की मांग।

हमने पूछा कि और जरा अच्छे से मालूम करो कहीं राहुल को भी निकालने की मांग तो नहीं की थी! कोई बड़ी बात नहीं है कि राहुल को ही वनवास दे दिया जाए। बंदे में लाख कमियां हों मगर इतना तो आज्ञाकारी है कि अगर उसे छोड़कर जाने के लिए कहा जाएगा तो पार्टी हित के लिए वह फौरन तैयार हो जाएगा। यह अलग बात है कि इससे पार्टी का हित होगा या अनहित। पार्टी कितनी बचेगी। कितने टुकड़ों में बंटेगी।

मगर यह सच है कि अगर जैसा कि टीवी में खबरें चलीं, अखबारों में छपीं कि समझौते के लिए बागियों की शर्त कि इन-इन को हटाओ तो अभी नहीं कहा होगा तो हाईकमान के दबने से आगे इतने हौसले बढ़ जाएंगे कि कल कहा जा सकता है कि राहुल को भी हटाओ, प्रियंका को भी हटाओ।

मोदी जी जो चाहते हैं परिवार मुक्त कांग्रेस उसकी शुरूआत हो सकती है। फिर कांग्रेस मुक्त भारत बनने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।

शकील अख्तर

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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