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हिमाचल प्रदेश चुनाव : क्या टूट जाएगी लोकतंत्र की लय!

हिमाचल प्रदेश चुनाव : क्या टूट जाएगी लोकतंत्र की लय!

डॉ. प्रेम सिंह, Dr. Prem Singh Dept. of Hindi University of Delhi Delhi - 110007 (INDIA) Former Fellow Indian Institute of Advanced Study, Shimla India Former Visiting Professor Center of Oriental Studies Vilnius University Lithuania Former Visiting Professor Center of Eastern Languages and Cultures Dept. of Indology Sofia University Sofia Bulgaria

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1991 से दिल्ली के बाद शिमला मेरा दूसरा शहर रहा है. इस दौरान हिमाचल प्रदेश के सभी शहरों, कस्बों और  गांवों में आना-जाना होता रहा है. खेती-किसानी से लेकर व्यवसाय से जुड़े लोगों तक, प्रशासन से लेकर साहित्यकारों, पत्रकारों, कलाकारों, शिक्षकों, विद्यार्थियों, वकीलों, नेताओं आदि तक और कुलियों (जिन्हें खान कह कर बुलाने का रिवाज़ है और शिमला सहित सभी शहर कस्बे जिनकी पीठ पर टिके हैं) से लेकर इमारत, सड़क, पुल आदि के निर्माण में लगे प्रवासी और स्थानीय मजदूरों तक से कुछ न कुछ परिचय और चर्चा होती रही है. इस दौरान मैंने यह अनुभव किया है कि हिमाचल प्रदेश में बारी-बारी से कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने की परिघटना को यहां का नागरिक समाज सहजता से लेता है. प्रदेश के विकास-कार्य, कार्य-संस्कृति, साहित्यिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक  गतिविधियां दोनों पार्टियों के शासन में बिना किसी खास व्यवधान के सामान्य रूप से चलती रहती हैं. कांग्रेस-शासन में भाजपा के लोगों के काम नहीं रुकते और भाजपा-शासन में कांग्रेस के लोगों के. दोनों पार्टियों की सरकारें चुनने वाली हिमाचल की सामान्य जनता का काम भी सुभीते से होता रहता है. 

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इस साल लगभग पूरी गर्मियां मैं शिमला में रहा.

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जून के अंतिम सप्ताह और जुलाई के पहले सप्ताह को मिला कर करीब 10-12 दिनों की लंबी यात्रा - शिमला, रामपुर बुशहर, सराहन, सांगला, कल्पा, पूह, सपीलो, ताबो, काजा, लोसर, चंद्रताल, बातल, कोकसर, केलोंग, उदयपुर, मनाली, कुल्लू, मंडी, बिलासपुर, शिमला - एक बार फिर की. इस दौरान मिलने वाले प्राय: सभी लोगों से मैंने आगामी विधानसभा चुनावों के बारे में उनका आकलन और रुझान जानने की कोशिश की. प्राय: सभी ने एक जैसा जवाब दिया - अभी चुनावों में देर है. कुछ फैसला नहीं किया है. देखेंगे क्या करना है. सितम्बर तक लोगों का कमोबेश यही जवाब बना रहा.

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चुनावों की घोषणा के बाद से लोग कई सारे मुद्दों पर मुखर होने लगे. नौकरी-पेशा लोग स्वर्गीय अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में समाप्त की गई पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने की बात करने लगे.

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खेती और बागवानी करने वाले किसान बीज-खाद, कीटनाशक आदि के तेजी से बढ़ने वाले खर्च की शिकायत करने लगे. जब मैंने पूछा कि प्रधानमंत्री की किसान योजना के तहत किसानों को हर महीने कुछ आर्थिक मदद मिलती है, तो कई किसानों ने कहा कि यह बनियागीरी है, एक हज़ार देंगे, चार हज़ार वापस छीन लेंगे. बेरोजगारी और महंगाई पूरे देश की तरह हिमाचल प्रदेश में भी दो गंभीर समस्याएं हैं. ये दोनों मुद्दे भी लोगों के बीच चर्चा का विषय बनने लगे. सेना में नौजवानों की भर्ती की अग्निवीर योजना पर लोगों का गुस्सा सामने आने लगा. इस विषय में मैंने जब हिमाचल के कुछ अवकाश-प्राप्त फौजियों से चर्चा की तो वे इसके खिलाफ काफी नाराज नज़र आए. उनका कहना था कि यह योजना सेनाओं में सिपाही भर्ती की इच्छा से परिचालित युवाओं के कैरियर के लिहाज़ से तो गलत है ही, सेनाओं के अनुशासन और शक्ति के लिए भी घातक है. अलग-अलग महकमों के कर्मचारी भी अपनी समस्याओं के बारे में बताने लगे.

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यह तथ्य भी चर्चा में आया है कि 2017 के बाद से हिमाचल में नशे (ड्रग्स) की समस्या में वृद्धि हुई है. इस पूरी चर्चा में मैंने पढ़े-लिखे लोगों से हिमाचल प्रदेश में स्थापित किये जा रहे निजी विश्वविद्यालयों और नई शिक्षा नीति के बारे में सवाल किया. लेकिन मुझे आश्चर्य और निराशा भी हुई कि इन मुद्दों पर उनमें किसी की भी साफ़ सोच नहीं है. चुनावी चर्चा में ये मुद्दे शामिल नहीं हैं. 

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अब ये सभी मुद्दे चुनावी माहौल में बिखरे हुए हैं. कांग्रेस इनमें से कई मुद्दों को उठा रही है और उनके समाधान के वायदे कर रही है. जिन अखबारों में चुनावों की ठीक-ठाक रिपोर्टिंग हो रही है, उन सभी में ये मुद्दे शामिल हैं. लेकिन जरूरी नहीं है कि कांग्रेस को इसका चुनावी लाभ मिल जाएगा. इन मुद्दों के साथ लोग कांग्रेस के बिखराव का सवाल भी उठा देते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के बिखराव का हिमाचल पर ज्यादा असर न भी हो, लोगों का कहना है कि राजा वीरभद्र सिंह के निधन के बाद हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में पहले जैसी एकजुटता का अभाव है.

भाजपा शुरू से यह प्रचार कर रही है कि कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार हैं. हालांकि, भाजपा के इस प्रचार में ज्यादा दम नहीं है. कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष और दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह चुनाव नहीं लड़ रही हैं. कांग्रेसियों के मुताबिक वे मुख्यमंत्री की दावेदार नहीं हैं, और संगठन के संचालन और मजबूती का काम करती रहेंगी. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कौल सिंह ठाकुर और सुखविंदर सिंह 'सुक्खू' के नाम ही मुख्यमंत्री के दावेदारों में शेष बच जाते हैं. ये दोनों भाजपा के वर्तमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से ज्यादा प्रखर और अनुभवी नेता हैं.       

गर्मियों से लेकर अभी तक हिमाचल प्रदेश के प्रवास के दौरान मुझे कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होंने स्पष्ट कहा कि वे मोदी के समर्थक हैं और मोदी को ही वोट देंगे. ऐसा कहने वालों में परंपरागत रूप से कांग्रेस को वोट देने वाले लोग भी शामिल हैं. यह अकारण नहीं है कि भाजपा ठोस मुद्दों और कमजोर छवि वाले मुख्यमंत्री से जनता का ध्यान हटाने के लिए पूरी तरह नरेंद्र मोदी के 'करिश्मे' पर निर्भर हो गई है. पूरा मीडिया मैनेजमेंट भी वह उसी दिशा में किया गया है. प्रधानमंत्री चुनावों के मद्देनज़र हिमाचल प्रदेश की चार-पांच यात्राएं कर चुके हैं. अपनी हाल की सोलन की चुनावी सभा में उन्होंने सरकार, मुख्यमंत्री उम्मीदवारों को एक तरफ हटा कर सीधे अपने नाम पर वोट डालने की अपील की है. यह दुहाई देते हुए कि लोगों का वोट मोदी के लिए आशीर्वाद होगा.

ज़ाहिर है, भाजपा ने यह रणनीति अपनाकर मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश की है कि कांग्रेस के पास मोदी जैसा नेता नहीं है. भाजपा के बागियों के लिए भी उसका संदेश है कि पार्टी से बगावत मोदी के नेतृत्व से बगावत है. हालांकि, भाजपा को ही यह सोचना है कि ऐसा करके एक राजनीतिक पार्टी और सरकार के तौर पर वह अपनी कमजोरी दिखा रही है या ताकत? लगभग सभी अखबारों ने यह लिखा है कि कांग्रेस चुनावों में आर्थिक संसाधनों की कमी से जूझ रही है. दूसरी तरफ भाजपा अपनी नई राजनीतिक शैली के तहत चुनावों पर पानी की तरह पैसा बहाती है. हिमाचल में अकेले प्रधानमंत्री की यात्राओं पर कई करोड़ रूपया खर्च हुआ है. लोगों  के बीच यह चर्चा का विषय भी है. इस पर भी भाजपा को ही सोचना है कि धन-बल पर इस कदर निर्भरता उसकी कमजोरी है या ताकत?

मैंने यह पाया है कि कांग्रेस के डॉ. यशवंत सिंह परमार से लेकर वीरभद्र सिंह तक और जनसंघ/ भाजपा के शांता कुमार से लेकर प्रेम कुमार धूमल तक की सामान्य जनता और बौद्धिक समाज में स्वीकृति रही है. लोकतंत्र की इस स्वस्थ शैली का परिणाम हिमाचलवासियों के अच्छे शैक्षिक और आर्थिक स्तर में निकला है. यहां महिलाओं और युवाओं की जागरूकता को भी यहां की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का हिस्सा माना जा सकता है. आरएसएस/ भाजपा की 2014 से अस्तित्व में आई राजनीतिक शैली ने हिमाचल प्रदेश की उसके निर्माण के समय से चली आ रही इस लोकतान्त्रिक लय को काफी हद तक तोड़ा है. देखना यह है कि 12 नवम्बर 2022 को होने वाले विधानसभा चुनावों में हिमाचल के लोग लोकतंत्र की ख़ूबसूरत लय को बचाते हैं, या और ज्यादा टूट के हवाले करते हैं? 

प्रेम सिंह

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं)    

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