बल्लीमारान की चूड़ी वाली तंग गली में..
इन दिनों खनक नहीं है ..
बाज़ार में लड़कियों की धनक नहीं है...
ज़रा ज़रा से बहाने मेंहदी लगवाने ..
भइया पक्का रचेगी ना ..
करती हुई बातें ...
शगुनों वाली औरतों की जमातें ..
काशीदा दुपट्टे कानों के झूलते बाले ..
वो रौनक़ों के उजाले..
सब ग़ायब हैं ...
पाँच रूपये के छह गोलगप्पो के लिये..
झगड़ती लड़कियाँ ...
इन गलियों की तरफ़ खुलती खिड़कियाँ ..
चाट के ठेले ..
लोगों के रेले ..
अब नहीं दिखते ...
अजब सा ठहराव है ..
हर तरफ़ सन्नाटों का पसराव है ..
सड़क किनारे ज़ायक़े ढूँढती चटोरी जबां ...
गर्मागर्म जलेबी समोसे की ख़ुशबू वाली सुबह ...
अदरक वाली चाय का धुआँ ..
जाने कहाँ गुम हुआ ...
पाकड़ के खोके वाला अब्दुल अब भट्टी नही फूंकता ..
कोई भी पाकड़ के मुँह पर पुड़ियाँ नहीं थूकता ..
टाइयाँ गले में टाँगे चश्मे वाले लोगों का..
सिरा पता ना छोर..
फ़र्राटों से गुज़रता हुआ शोर ..
जाने कहाँ जा के थम गया ..
खौफजदा है हर शख़्स ..
शहर का शहर सहम गया ..
जूस, शरबत, निम्बू पानी, लेमनसोडा, नारियलपा नी..
बेचने वाले ...
सिग्नल पर कार को बेवजह पोंछने वाले लड़के ..
अब नज़र नहीं आते ..
जाम में फँसे लोग भी आपस में नहीं टकराते ..
अब सड़कों के कलेजे में सुकून बड़ा है ..
सिग्नल भी बत्तियाँ बुझाये चैन से पड़ा है ..
घड़ियाँ टिकटिका रही हैं ..
मगर वक़्त पर किसी ने हाथ रक्ख दिया ....
अखबारों की काली सुर्ख़ियो में रोज डर छपता है ...
हर्फ़ दर हर्फ़ ..बेबसी ..
बस यही इक लफ़्ज़ खपता है ..
मगर इन सबसे परे ...
डॉ. कविता अरोरा (Dr. Kavita Arora) कवयित्री हैं, महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली समाजसेविका हैं और लोकगायिका हैं। समाजशास्त्र से परास्नातक और पीएचडी डॉ. कविता अरोरा शिक्षा प्राप्ति के समय से ही छात्र राजनीति से जुड़ी रही हैं।
बिना डरे ..
छज्जों छतों पर फिर हो रही है पतंग बाज़ियाँ....
मुस्करा रही है फिर मोहल्लों की छतें सांझियां ....
फलक पर ..
फजां की नीली झलक पर ..
इक चाँद फ़िदा है ..
फूलों से महकती बाग की अदा है ..
सितारों से जगमगा रहा है कायनात का शरारा है..
रात भीगी-भीगी ..
और इक चाँद प्यारा प्यारा है...
डॉ. कविता अरोरा
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