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Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।
Hindu hone ka matalab| हिन्दू होने का मतलब
क्या विक्रमी संवत का नव-वर्ष हिंदू नव वर्ष है?
विक्रमी संवत के नव-वर्ष के हिंदू नव वर्ष होने के दावे (The new year of Vikrami Samvat claims to be the Hindu New Year) के साथ, निजी तौर पर तो नहीं, पर सोशल मीडिया पर बधाई संदेशों की जैसी बाढ़ इस बार देखने को मिली, इससे पहले कभी देखने को नहीं मिली थी। गांधी के बंदर बनकर, हर बुराई से आंख मींच लेने और हर चीज में सिर्फ अच्छाई देखने वालों को, जरूर इसमें किसी प्रकार का ‘हिंदू जागरण’ (Hindu Jagran) दिखाई दे सकता है। दुर्भाग्य से इतना भोलापन ओढ़ना सब के लिए संभव नहीं है। इसमें बेशक, एक समस्या यह भी है कि कथित ग्रेगरी कलेंडर (Gregory Calendar), को तो मान लीजिए कि विदेशी या ईसाई वगैरह कह भी दिया जाए और इसी तरह हिज्री संवत को भी विदेशी मान लिया जाए, फिर भी विक्रमी संवत को क्या भारत में पहले चलन में आया एकमात्र कलैंडर या पंचांग कहा जा सकता है।
दक्षिणी पंचांगों को अगर छोड़ भी दें तब भी, क्या उत्तर भारत में ही शक संवत भी उसी प्रकार चलन में नहीं रहा है? तब विक्रमी संवत एकमात्र हिंदू पंचांग कैसे हो गया?
एक अनैतिहासिक बल्कि कहना चाहिए कि फर्जी हिंदू पहचान (fake hindu identity) गढ़ने के लिए, इस महादेश की परंपराओं की समृद्ध विवधता में से क्या-क्या गैर-हिंदू बनाकर बहिष्कृत किया जाएगा?
लेकिन, बात सिर्फ इसी तक सीमित नहीं है कि हजारों वर्षों में जीवन के स्वाभाविक प्रवाह में विकसित हुई समृद्ध विविधता में से एक सूत्र को ही पकड़कर, बाकी सब को बुहार कर बाहर किया जा रहा है। बात वास्तविक ऐतिहासिक विविधता पर, एक झूठी एकरूपता थोपे जाने से आगे तक जाती है। इसका संबंध इस तथ्य से है कि एकमात्रता का यह दावा चूंकि मूलत: एक राजनीतिक मकसद और वह भी सांप्रदायिक राजनीतिक मकसद से संचालित है, इसलिए बहुत बार इस तरह की एकमात्रता का दावा, बहुविध परंपराओं में से किसी एक वास्तविक परंपरा के लिए भी नहीं किया जा रहा होता है बल्कि एक पूरी तरह से गढ़ी हुई कृत्रिम परंपरा के लिए किया जा रहा होता है। इसी फर्जी हिंदू नववर्ष ने, इस फर्जीपन का भी एक आंखें खोलने वाला उदाहरण पेश किया।
कर्नाटक : दक्षिण भारत में हिंदुत्व की प्रथम प्रयोगशाला
कर्नाटक में, जिसे दक्षिण भारत की हिंदुत्व की पहली प्रयोगशाला (South India's first Hindutva laboratory) बनाने की संघ-भाजपा जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं और सबसे बढ़कर राज्य में शासन तक अपनी पहुंच का सहारा लेकर इसकी कोशिशें कर रहे हैं, हिजाब के पूरी तरह से गढ़े हुए विवाद के जरिए, राज व बहुसंख्यक समाज के मुस्लिम विरोधी झुकाव का खुला प्रदर्शन (An open display of the anti-Muslim leanings of the majority society) करने के बाद, हिंदुत्ववादी ताकतों ने हलाल मांस का मुद्दा उछाल दिया। विक्रमी संवत से जुड़े नव वर्ष से जुड़े नवरात्रि के मौके पर, हिंदुत्ववादी गिरोह उसी प्रकार हलाल मांस पर अपना हिंसक विरोध जताने पहुंच गए, जैसे इससे पहले हिजाब पर विरोध जताने के लिए सड़कों पर उतरे थे।
बहरहाल, दिलचस्प यह है कि यह विरोध जताने के लिए वे झटके का मांस दिए जाने की मांग कर रहे थे! दूसरी ओर, उसी नवरात्रि के मौके पर योगी जी के राज में उत्तर प्रदेश में, दिल्ली की सीमा पर स्थित शहर गाजियाबाद में, नगर निगम की मेयर ने आदेश जारी कर, मांस की सारी दुकानें नवरात्रि की ‘‘पवित्र’’ अवधि के लिए बंद करा दीं।
बेशक, ज्यादा शोर मचने पर बाद में गाजियाबाद प्रशासन ने उक्त आदेश को वापस ले लिया, लेकिन धार्मिकता के इस खेल के पीछे से झांकती सांप्रदायिक राजनीति तो सब को दिखाई दे ही गयी।
आखिर, हिंदू परंपरा कौन सी है?
गाजियाबाद वाली, जो एक समुदाय के धार्मिक त्यौहार के बहाने पूरी आबादी पर शाकाहार थोपने को जरूरी समझती है या कर्नाटक वाली, जो हलाल के खिलाफ है क्योंकि मुसलमान हलाल के पक्ष में हैं और इसलिए, झटके के मांस के पक्ष में खड़े होने के लिए भी तैयार है? और अगर वास्तव में ये दोनों ही हिंदू परंपराएं हैं, जो कि एक विशाल, विविधतापूर्ण देश में स्वाभाविक भी है, तो फिर हिंदू परंपरा के नाम पर, एकरूपता थोपने की जिद क्यों?
पर यह किस्सा इतने पर भी खत्म नहीं होता है। उसी कथित हिंदू नववर्ष का समारोह, राजस्थान में करौली में सांप्रदायिक हिंसा का कारण बन चुका है। आखिर, जैसा गढ़ा हुआ ‘हिंदू नववर्ष’ वैसा ही नकली उसकी खुशी। और उसे मनाने का तरीका उससे भी खतरनाक। अचानक खोज निकाला गया यह नव वर्ष, करौली में हिंदू शक्ति के प्रदर्शन के जरिए मनाया गया। और वह शक्ति प्रदर्शन ही क्या जो ‘दूसरे’ न देखें। जंगल में मोर नाचा और किसी ने देखा ही नहीं, तो क्या नाचा। सो शक्ति प्रदर्शन मुस्लिम बहुल इलाके में ही होना था।
मोटर साइकिल सवार जोशीले एक मस्जिद के ऐन सामने जाकर डट गए और ‘टोपी वाले सिर झुकाएंगे, जय श्रीराम दोहराएंगे’ आदि चुनौती के अंदाज में गाने लगे। जैसाकि होना ही था, दूसरी ओर से पथराव के जरिए चुनौती को स्वीकार कर लिया गया। फिर क्या था, दंगा शुरू हो गया। हिंदू नव वर्ष का उत्सव मन गया! शाम होते-होते राजस्थान से जुड़े मोदी सरकार के मंत्री, दंगे के लिए राजस्थान की कांग्रेसी सरकार की ‘तुष्टीकरण की नीति’ (The 'policy of appeasement' of the Congress government of Rajasthan) को दोषी ठहरा चुके थे और ‘भारत में हिंदू नव वर्ष मनाने के अधिकार’ की हिमायत में मैदान में उतर चुके थे। और क्यों न उतरते? हिंदू नव वर्ष तो मनाया ही गया था, इसी हिंदू हिमायत के लिए अवसर पैदा करने के लिए।
आखिरकार, 2023 में राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं और राज्य में दोबारा सत्ता पर कब्जा करने की तैयारियों में खुद नरेंद्र मोदी सीधे हस्तक्षेप कर रहे बताए जाते हैं। केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह का इस तरह खुलकर संघ परिवार के उपद्रवियों की हिमायत में उतरना, जाहिर है कि किसी न किसी रूप में प्रधानमंत्री के अनुमोदन के बिना नहीं हो सकता था।
इस सिलसिले में यह याद दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि अपने पहले कार्यकाल के दूसरे वर्ष में, गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग की बढ़ती वारदातों की पृष्ठभूमि में, नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की हैसियत से कथित गोरक्षकों को सार्वजनिक रूप से टोका था और उनके कानून हाथ में लेने पर नाखुशी जतायी थी। लेकिन, वह ऐसा पहला और आखिरी मौका था। उसके बाद गुजरे छ: साल से ज्यादा में, नरेंद्र मोदी ने ऐसे सभी प्रकटत: सांप्रदायिक अभियानों को, अपनी मुखर चुप्पी से बढ़ावा देने का ही काम किया है।
याद रहे कि गोरक्षकों वाले उक्त प्रकरण में भी, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने, थोड़ा घुमाकर ही सही, प्रधानमंत्री की कथित गोरक्षकों की आलोचना से यह कहकर असहमति जता दी थी कि ज्यादातर गोरक्षक अच्छा सामाजिक काम कर रहे थे! ऐसा लगता है कि उसके बाद प्रधानमंत्री ने जरूरी सबक ले लिया और उसके बाद फिर कभी उन्होंने संघ परिवार के ऐसे किसी अभियान में टांग अड़ाने की गलती नहीं की।
लेकिन, इस बीच सत्ता पर निरंतर कब्जे से संघ-भाजपा की राजनीति की गंगा में बहुत सा पानी बह गया है। प्रधानमंत्री सिर्फ मौन रहकर, संघ परिवार की कतारों के सांप्रदायिक अभियानों को बढ़ते ही नहीं रहने दे रहे हैं। वह भाजपा की राज्य सरकारों से लेकर, अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों तक को बढ़ते पैमाने पर, सरकारी तौर पर ऐसे नये-नये अभियान छेड़ने/ उनसे जुड़ने के लिए, अपना आशीर्वाद देते लगते हैं। और यह सिर्फ चुनाव तक ही सीमित भी नहीं है, हालांकि संघ परिवार के ऐसे विभाजनकारी अभियानों और भाजपा के पक्ष में उनके चुनावी अभियान में, अक्सर घनिष्ठ रिश्ता रहता है।
दरअसल, संघ परिवार के संगठन, भाजपा की राज्य सरकारें और मोदी की सरकार, तीनों कदम से कदम मिलाकर, संघ परिवार के हिंदू-बोलबाले का राज कायम करने के एजेंडा को ही आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं।
कश्मीर फाइल्स जैसी मुस्लिमविरोधी फिल्म के अपने खुल्लमखुल्ला प्रमोशन से प्रधानमंत्री मोदी ने दिखा दिया है कि इन अभियानों उनकी दिखावटी दूरी भी, तेजी से घट रही है।
अचरज नहीं है कि बढ़ते आर्थिक संकट और कोरोना की दुहरी मार के चलते, लोगों की बढ़ती नाखुशी की काट के तौर पर संघ परिवार-प्रभावित संगठनों, भाजपायी राज्य सरकारों और मोदी सरकार की तिकड़ी ने, और प्रत्यक्ष तरीके मुस्लिमविरोधी स्वरों को आगे बढ़ाया है। यह विशेष रूप से उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड के चुनावों में मुस्लिमविरोधी मुद्राएं अपनाने या मिसाल के तौर पर कर्नाटक में पहले हिजाब और अब हलाल जैसे मुद्दे उछाले जाने तक ही सीमित नहीं रहा है। इसी की संगत में बाकायदा मुस्लिमविरोधी हिंसा के आह्वान भी शुरू हो गए हैं। इनकी शुरूआत पिछले साल के मध्य में दिल्ली में जंतर-मंतर पर ‘मुल्ले काटे जाएंगे’ का एलान करने वाली रैली से हुआ था और उसे हरिद्वार से शुरू कर, अगल-अलग जगहों पर आयोजित की जा रही तथाकथित हिंदू धर्म संसदों में मुस्लिमविरोधी हिंसा के आह्वानों में आगे बढ़ाया जा रहा है। इस क्रम में ताजातरीन धर्म संसद दिल्ली में बुराड़ी में हुई है, जिसमें भी हथियार उठाने के आह्वान को दोहराया गया है। भाजपा की केंद्र व राज्य सरकारों का रुख कुल मिलाकर, इस तरह की गोलबंदियों को बढ़ावा देने वाला ही रहा है। यह देश को बड़ी तेजी से सांप्रदायिकता की खाई में धकेल रहा है। यह लुढ़कन कहां जाकर खत्म होगी कोई नहीं जानता।
0 राजेंद्र शर्मा