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Hindutva Movie Review : भारी संवादों तले दबा हिंदुत्व

Hindutva Movie Review : भारी संवादों तले दबा हिंदुत्व

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दो नजरों से देखिए इस 'हिंदुत्व' को

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'हिंदुत्व' फिल्म रिव्यू | Hindutva Bollywood Movie Review in Hindi

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फिल्म रिव्यू करने से पहले कुछ जरूरी बातें, सवाल हो जाएं? तो देखिए, सुनिए आप सिनेमाघरों में जाते हैं, हो सकता है आप सबसे बड़े सिनेमा लवर हों और हर फिल्म देखते हों, लेकिन कुछ लोग और भी होते हैं जो कभी-कभी सिनेमाघरों में आते हैं ऐसी एजेंडा परक फ़िल्मों को हिट करवाने तो उनके शोर मचाने, नारे बाजी करने से आप चिंतित न हों।

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फिर एक बात ये कि 'हिंदुत्व' जैसी फ़िल्में दो नजरों से देखी जाने वाली फिल्में हैं। एक कट्टर हिंदूवादी नजरिया और दूसरा केवल सिनेमाई नजरिया।

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'हिंदुत्व' फिल्म की कहानी

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अब आते हैं फिल्म पर। उत्तराखंड के पहाड़ों में चल रही एक यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ के चुनाव होने हैं। 'दूसरे' धर्म का एक छात्र, वहां पहले भी चुनाव जीत चुका है, जिसकी इस यूनिवर्सिटी में ही नहीं बल्कि देश की दूसरी कई यूनिवर्सिटीज में भी अच्छी पकड़ है। इस बार इलेक्शन में 'दूसरे' धर्म के सामने आ गया 'हिंदुत्व' वादी चेहरा। दोनों बचपन के अच्छे दोस्त। किसी समय 'इस' धर्म के लड़के की मां ने 'उस' धर्म के लोगों को बचाया था। यूनिवर्सिटी में दोनों दोस्त की विचारधारा क्या बदली, सुर ताल बदल गए।

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इधर विदेश से आई एक लड़की यूनिवर्सिटी में 'उस' धर्म के लड़के को चाहने लगी। एक दिन 'धर्म' के लड़के ने 'उस' धर्म के लड़के की असल सच्चाई लडकी के सामने रख दी।

अब क्या होगा उनकी मोहब्बत का? क्या होगा यूनिवर्सिटी के इलेक्शन का?

खैर बीच में आपको 'इस' और 'उस' धर्म के बीच की नफरतें दिखाने का एक ही तरीका मिला जो पिछले कुछ सालों में राजनीति के या विश्वविद्यालयों की गलियों से जो खबरें, बयान, कानून, गिले, शिकवे, शिकायतें, दंगे सामने आए उन्हें बीच में डाल दिया। लो जी हो गया 'हिंदुत्व' का एजेंडा परक सिनेमाई मसाला तैयार। लेकिन कहानी इस बीच कहीं खो गई।

अभिनय को उम्दा और आला बनाने के लिए दमदार डायलॉग्स तो लिखने की कोशिश की गई, लेकिन जब उन्हें कायदे से आपकी पूरी स्टार कास्ट संभाल न सके तो क्या करेंगे आप? जब उन दमदार संवादों के बोझ तले ही आपके क्लाकार दम घोंटने, चीखने, चिल्लाने लगें तो वह सिनेमा तो नहीं।

'हे बॉलीवुड' वालों माफ कीजिए उन लोगों को, जो कायदे से अपनी मेहनत की कमाई लुटाने तुम्हारे पास चले आते हैं। फिर ये फिल्म की शुरुआत में 'श्रद्धा राम फिल्लौरी', 'मनोज कुमार' तुम्हारे प्रेरणा स्रोत हैं इस सिनेमाई 'हिंदुत्व' के, ऐसा कहकर मजाक तो ना बनाएं।

कायदे से ऐसी फ़िल्मों को दो आंखों, दो नजरों से देखा जाना चाहिए। एक कट्टरवादी फिल्म नाम रूपी नजरों से, दूसरा साधारण नजरों से।

एक्टिंग के मामले में 'अंकित राज', 'आशीष शर्मा', 'गोविंद नामदेव' आदि अच्छा काम करते नजर आते हैं। साथी कलाकारों दीपिका चिखलिया, सोनारिका भदौरिया, अनूप जलोटा बस फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। करने को इनके पास काफी कुछ था, लेकिन जब आपके सिनेमाई एजेंडा पहले से फिक्स हों तो आपको मालूम ही होता है कि हम दो और दो पांच कर ही लेंगे।

फिल्म के गाने भी बस एक दो ही जमते हैं।

सिनेमैटोग्राफी हल्की तो बैलग्राउंड स्कोर फिल्म के मूड के मुताबिक चलता नजर आता है। एडिटर ने सफाई से कैंची इस्तेमाल की होती तो यह झेल फिल्म न हो पाती।

यह फिल्म बनाने से पहले इसके लेखक, निर्देशक, प्रोड्यूसर आदि ने इतना गणित तो बैठा ही लिया होगा कि कैसे दो और दो पांच जमा सात करना है। निर्देशक 'करण राजदान' हल्के हाथों से 'हिन्दुत्व' की तलवार लेकर चलते पर्दे पर नज़र आते हैं। ऐसी तलवार जिसमें धार तो है, लेकिन महसूस नहीं होती। जिसमें कुछ साफ दिखाने वाला आईना तो है, लेकिन आपकी आंखें उस धुंधले पड़ चुके आईने से 'हिंदुत्व' की साफ तस्वीर नहीं देख पाती।

आपके पास बजट नहीं था, ऐसा न कहना निर्देशक साहब। ऐसी फ़िल्मों के लिए बजट नहीं दिल की जरूरत होती है। वो कहते हैं ना सिनेमा पैसों से नहीं पैशन से बनता है। तो आपने हिन्दुत्व का पैशन तो खूब बिना प्रचार प्रसार के अपनी सिनेमाई कलम को चलाते हुए गढ़ लिया ,अफसोस कि उन सिनेमा प्रेमियों या दर्शकों के दिलों को गढ़ नहीं पाए।

आज का दर्शक सजग और सचेत है अनूप जलोटा जी वो 'ॐ जय जगदीश हरे' सुनकर आंखों में पानी नहीं लाएगा। असल में आप सिनेमा को कुछ देना चाहते हैं तो एजेंडा और प्रोपेगैंडा से हटकर सोचिए।

और ये क्या था भाई कोई बताएगा?

उत्तराखंड में कुरुक्षेत्र का ज्ञान किसने, कब, क्या दिया था? कोई ये बताएगा मरते हुए आदमी के सीन को फिल्माने के लिए पर्दे पर कैमरा छोटे बच्चे के 'पालने' हिलने वाले सीन की तरह क्यों था? कोई ये बताएगा कि दिल्ली का एम्स जिस कैमरे से गुजरा उसका कमरा उत्तराखंड में कैसे बना? दिल्ली का एम्स इतना बडा हो गया? चलो मान लिया उत्तराखंड के एम्स का बस निशान एक पुल पर दिखाया आपने। लेकिन दंगे तो दिल्ली में भड़के थे? नारे तो दिल्ली में स्थित यूनिवर्सिटीज में लगे थे। तो उत्तराखंड?

जाते- जाते इतना ही कि कृपया सिनेमाघरों में बेवजह सीटियां ना मारें, गालियां ना दें सीन दर सीन और अपनी तरफ से कमेंट्री करना शुरू ना करें, दूसरों को भी फिल्मे देखने दें। क्योंकि ऐसी फ़िल्मों को देखकर आपकी भुजाएं भले फड़क उठें और आप तलवार लेकर चल पड़ें अभी  'उस' धर्म को मिटाने उनकी जन्नत और लव जिहादी बातों को मिटाने। लेकिन इस ओर बाकि लोग भी हैं जिनकी सिनेमाई आंखों में आप व्यवधान डाल रहे होते हैं।

अपनी रेटिंग - 2 स्टार

तेजस पूनियां

Hindutva chapter 1 movie review

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