किसान आंदोलन की ऐतिहासिक जीत

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Guest writer
19 Nov 2021
किसान आंदोलन की ऐतिहासिक जीत

Historic victory of the peasant movement

आज सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी(Prime Minister Narendra Modi) ने जब तीन कृषि कानून वापिस लेने की घोषणा (Announcement to withdraw three agricultural laws) की तो आंदोलकारी किसानों के चेहरे विश्वास और ख़ुशी से चमक उठे। पिछले एक वर्ष से अनगिनत विपदाओं, भीषण सर्दी, गर्मी और अब फिर सर्दी के चक्र से मुकाबले और मीडिया व सोशल मीडिया में दुष्प्रचार की पीड़ा, अपने अनेकों साथियों को खोने का गम, सब कमतर लगने लगे, इस जीत की ख़ुशी में। और जीत केवल किसानों के लिए नहीं बल्कि देश की जनता के लिए। उनकी खाद्य सुरक्षा को बचाने की, जम्हूरियत को बचाने की।

इस किसान आंदोलन की गंभीर समीक्षा (Critical review of the farmers' movement) बाद में होगी फिलहाल आज सब तरफ चर्चा है परन्तु किसानों को याद है 26 नवंबर 2020 का दिन जब भाजपा की सरकारें दावा कर रही थी कि वह किसानों को दिल्ली तक नहीं पहुँचाने देंगी, पुलिस लाठियां, पानी और आंसू गैस के गोले किसानों पर दाग रही थी। 26जनवरी की रात जब बहुत से बुद्धिजीवी और टीवी चैनलों के एंकर किसान आंदोलन के समाप्ति की भविष्यवाणी कर रहे थे, राकेश टिकैत के आंसुओं पर ठहाके लगा रहे थे। लेकिन यह सब किसानों के हौसलों को नहीं डिगा पाया।

इतना लम्बा संघर्ष - आज़ाद भारत में पहले कभी न देखा गया। हर बीते दिन के साथ किसानों के हौसले मज़बूत होते गए। और आज किसान आंदोलन इतिहास में दर्ज हो गया केवल लम्बा चलने वाला आंदोलन ही नहीं बल्कि एक तानाशाह सरकार को झुकाने के लिए।

परिपक्व किसान आंदोलन : Mature peasant movement

किसान संगठनों ने बड़े ही सावधानीपूर्वक इस निर्णय को लिया है। इतनी बड़ी जीत की खुमारी और शेखी बघारने से बचते हुए किसान आंदोलन के परिपक्व नेतृत्व ने तय किया है कि जब इन तीनों कानूनों के संसद में वापिस (रिपील) करने के प्रक्रिया पूरी नहीं कर ली जाती तब तक आगे का कोई निर्णय नहीं हो सकता।

मोदी जी ने तो आज अपने चिरपरिचित अंदाज़ में किसानों से घर वापिस जाने के लिए कहा, परन्तु किसान जानता है कि खेत में फसल पकना तो शुरुआत है लेकिन जब तक फसल का मंडी में उचित मूल्य नहीं मिल जाता तब तक काम पूरा नहीं होता।

इसलिए कानून वापसी की घोषणा तो किसानों के आंदोलन के फसल का पकना है, किसानों को तब तक पहरेदारी करनी होगी जब तक कि संसद में इसे वापिस नहीं ले लिया जाता।

मैं न मानूं हरिदास

किसानों ने एक साल चली इस जंग में सरकार और भाजपा को मजबूर कर दिया इन कानूनों की वापसी की घोषणा करने के लिए परन्तु अभी भी प्रधानमंत्री की भाषा में बदलाव नहीं आया है। आज भी घोषणा करते हुए उन्होंने कहा कि कानून तो अच्छे हैं, परन्तु किसानों को समझ नहीं आए और केवल कुछ किसान ही इनका विरोध कर रहे हैं। आज का दिन चुनना भी उनके इसी प्रचार का हिस्सा हो सकता है।

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री अभी एक साल पहले के अपने एजेंडे से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। किसानों के आंदोलन ने प्रमाणित कर दिया है कि न तो यह कृषि कानून सही थे और न ही यह कुछ किसानों के आंदोलन है।

पिछले एक वर्ष में स्वामीनाथन फॉर्मूले से कहीं कम MSP को घोषणा, कृषि उत्पादों की लगातार कम होती सरकारी खरीद, उर्वरकों की कमी और बढ़ते दाम, खाद्य वस्तुओं की कीमतों में बेहताशा वृद्धि ने साबित कर दिया कि किसानों के सवाल जायज हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी अभी भी वही राग गा रहे हैं। उनको समझना होगा कि अब इस भ्रामक प्रचार कोई फायदा नहीं है और ईमानदारी से लोकतंत्र में जनता के आंदोलन को स्वीकार करते हुए यह घोषणा करनी चाहिए थी।

लेकिन... शर्म तुमको मगर नहीं आती

इस घोषणा की जानकारी ही भाजपा के कार्यकर्ता के फेसबुक पोस्ट से मिली जिसमें उन्होंने मोदी जी के इस निर्णय को उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए मास्टर स्ट्रोक करार दिया था। यह परिचायक है भाजपा IT सेल के प्रचार का। अभी भी भाजपा प्रचार कर रही है कि यह किसान आंदोलन के कारण नहीं हुआ है बल्कि उनके युग पुरुष की किसान आंदोलन को मात देने की नायब चाल है। यह प्रचार अपने आप में ही 700 से ज्यादा किसान शहीदों का अपमान है। और भी कई बुद्धिजीवी हैं जो इस जीत का श्रेय किसान आंदोलन से छीनना चाहते हैं। मसलन एक बड़ा प्रचार है कि यह निर्णय तो आगामी विधान सभा चुनावों के मद्देनज़र लिया गया है। हालाँकि इस बात में कुछ सच्चाई है परन्तु चुनाव तो इससे पहले भी हुए और आगे भी होंगे। अगर किसान आंदोलन न होता तो भाजपा तो राजनीतिक खतरा न दीखता और वह ऐसा निर्णय लेने के लिए मजबूर न होती।

नवउदारवादी नीतियों पर लगाम

शुरू से ही किसान आंदोलन की समझ (Understanding the Peasant Movement) साफ़ थी कि यह तीनों कृषि कानून नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के अगले चरण के सुधार हैं, जिससे कृषि में कॉर्पोरेट हिस्सेदारी बढाई जा सके और खेती भी बाज़ार के हवाले कर दी जाए। सरकार और कॉर्पोरेट घरानों की साठ-गांठ से यह किसानों में और भी साफ़ होता जा रहा था। इसलिए किसानों ने भी सीधे कॉर्पोरेट से भी लड़ाई ली और अडानी और अम्बानी का बहिष्कार करने का निर्णय लिया।

किसान आंदोलन का असर इतना प्रभावशाली था कि गाँव-गाँव में मोदी शाह-अडानी अम्बानी की सरकार का नारा गूंजने लगा। जो बात कई दशकों की मेहनत के प्रगतिशील ताकतें जनता को नहीं समझा पा रही थी किसान आंदोलन ने पिछले एक साल में शासक वर्ग को बेनकाब कर दिया कि कैसे कॉर्पोरेट घरानों के इशारों पर सरकारें निर्णय लेती है।

यह सभी समझ रहे थे कि यह कॉर्पोरेट हित ही है जो सरकार को किसानों से सकारात्मक बातचीत करने से रोक रहे हैं।

दरअसल सब समझ रहे थे अगर यह कृषि कानून लागू नहीं होते तो कॉर्पोरेटपरस्त बाकी नीतियां भी रूक जाएंगी। इसलिए असल में तीनों कृषि कानूनों का वापिस होना नवउदारवादी नीतियों पर लगाम लगना है और एक नीतिगत जीत है।

700 से ज्यादा किसानों की मौत की जिम्मेदारी : Responsibility for the death of more than 700 farmers

पिछले एक साल से किसान अपने आंदोलन से भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री को समझाने की कोशिश कर रहे थे। 25 नवम्बर को यही बात मन में लिए किसान अपने घरों से चले थे कि शायद राज्यों में आंदोलन से दिल्ली में बैठी सरकार उनकी बात नहीं सुन पा रही है इसलिए उन्हें दिल्ली जाकर अपनी आवाज उठानी होगी। लेकिन वह दिल्ली की सीमाओं पर ही रोक दिए गए। इस एक साल में किसानों ने न केवल कठोर विपदाएं सहीं बल्कि कईयों को अपनी जान गंवानी पड़ी।

किसानों के संघर्ष के पिछले एक साल के दौरान करीब 700 लोगों की जान गंवाने के लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार जिम्मेदार हैं। प्रधानमंत्री और भाजपा सरकार को अपनी असंवेदनशील और अड़ियल स्थिति के कारण सैकड़ों लोगों की जान गंवाने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और देश से माफी मांगनी चाहिए।

अभी भी देश की जनता लखीमपुर की घटना जिसमें भाजपा के केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी का बेटा आशीष मिश्रा किसानों की हत्या के लिए जिम्मेदार है, पर प्रधानमंत्री से प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही है। अब तो मंत्री के बेटे की कारगुजारी सबके सामने आ गई है फिर भी वह अपने पद पर बने हुए हैं। अच्छा तो यही होता कि प्रधानमंत्री आज उनको भी मंत्रालय से बर्खास्त करने की घोषणा करते।

मोदी सरकार को लगातार चुनौती देते किसान : Farmers constantly challenging Modi government

हालाँकि पिछले एक साल में मीडिया द्वारा मोदी सरकार के हर निर्णय को अजेय पेश किया जाता रहा है। नोटबंदी, CAA, GST, जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाना और लोकतंत्र की हत्या (murder of democracy) कर केंद्र शासित प्रदेश में बदलना, लेबर कोड, नई शिक्षा नीति आदि एक लम्बी फेहरिस्त है मोदी सरकार के जनविरोधी निर्णयों की।

लॉकडाउन (lockdown) के समय की अमानवीय तस्वीरें तो अभी सबके जेहन में ताजा हैं। इन कई निर्णयों के बाद जन आंदोलन विकसित करने के प्रयास भी किए गए परन्तु मोदी जनता के एजेंडे को भटकने में सफल रहा, हालाँकि नई शिक्षा नीति और लेबर कोड को लेकर छात्र और मजदूर निर्णायक लड़ाई में हैं। लेकिन इससे पहले भी किसानों ने मोदी सरकार को पीछे धकेला था। पहले भी किसानों के नेतृत्व में एकजुट विरोध ने सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को स्थगित करने के लिए मजबूर किया था।

प्रधान मंत्री की घोषणा कृषि को निगमित करने और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाने के प्रयास के खिलाफ एक बड़ी जीत है।

किसान मजदूर एकता की जीत

इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन की एक सबसे बड़ी खूबी किसानों और मजदूरों की एकता रही है जो पहले दिन से आंदोलन में दिखी है। अभी तक की सरकारें और शासक वर्ग मजदूरों और किसानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता आया है, लेकिन इस किसान आंदोलन के अनुभवों से भारत में इन दोनों मेहनतकश वर्गों जिसमें खेत मजदूर भी शामिल है, ने सीखा है कि उनकी लड़ाई में दुश्मन एक है और जीत के लिए दोनों को एक साथ आना पड़ेगा। इस आंदोलन में भी केन्द्रीय मजदूर यूनियन के मंच और संयुक्त किसान आंदोलन ने बड़ी ही खूबसूरती के साथ काम किया और जीत हासिल की।

लड़ाई जारी है : the fight continues

हालांकि, इस ऐतिहासिक किसान संघर्ष की एक मूलभूत मांग, सभी किसानों की सभी फसलों को उत्पादन की व्यापक लागत (सी2+50%) के डेढ़ गुना पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने के लिए एक केंद्रीय अधिनियम- अभी पूरी नहीं की गई है। इस मांग को पूरा करने में विफलता ने कृषि संकट को बढ़ा दिया है और पिछले 25 वर्षों में 4 लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या का कारण बना है, जिनमें से लगभग एक लाख किसानों को मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के पिछले 7 वर्षों में अपना जीवन समाप्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

अगर प्रधानमंत्री को लगता है कि उनकी घोषणा से किसानों का संघर्ष खत्म हो जाएगा, तो वे सरासर गलत हैं। संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक लाभकारी एमएसपी सुनिश्चित करने के लिए एक अधिनियम पारित नहीं हो जाता है, बिजली संशोधन विधेयक और श्रम संहिता वापस ले ली जाती है। यह तब तक जारी रहेगा जब तक लखीमपुर खीरी और करनाल के हत्यारों को न्याय के कटघरे में नहीं लाया जाता। यह जीत कई और एकजुट संघर्षों को बढ़ावा देगी और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रतिरोध का निर्माण करेगी।

विक्रम सिंह

विक्रम सिंह  (Dr. Vikram Singh  Joint Secretary  All India Agriculture Workers Union)

विक्रम सिंह

(Dr. Vikram Singh

Joint Secretary

All India Agriculture Workers Union)

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