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जब-जब यह सोच सरकार बनाती है विचारों का खुलापन सीलेपन की बदबू से घिर जाता है,

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hastakshep
14 Feb 2020
आज संपादक इवेंट मैनेजर है तो तब वो हुआ करता था बनिये का मुनीम या मंत्र पढ़ता पंडत

इतिहास, शिक्षा, साहित्य और मीडिया (History, education, literature and media )

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ये चार ऐसे शक्तिशाली हथियार हैं, जो किसी भी समाज को लंबे समय तक कूपमंडूक और बौरा देने की क्षमता रखते हैं। युद्ध में हुई क्षति के घाव तो देर-सबेर भर जाते हैं, लेकिन ज़रा बताइये कि उन घावों जख्मों का क्या किया जाए, जो मनुस्मृतियों, वेद पुराण और उपनिषदों के रजाई गद्दों को हज़ारों साल से ओढ़ बिछा कर, और इनमें लिखे की गलत-सलत व्याख्या कर हम अपने ही समाज के एक बड़े वर्ग को छुआ छूत और ऊंच नीच की जंजीरों से जकड़ दिये जा रहे हैं!!

ईसाइयत ने क्राइस्ट की और इस्लाम ने मोहम्मद साहब की मानवीयता को ताक पर रख अपने-अपने हिसाब से बाइबिल और कुरान को खूनी हथियार बनाया। तो हमारे देश में आज इन्हीं हथियारों से सोच की आज़ादी को कुचल कर, मसल कर युवा वर्ग को शाहदूले की मज़ार के चूहे बनाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। और जो चूहा बनने को तैयार नहीं हैं, उन पर अर्बन नक्सल, टुकड़े टुकड़े गैंग, जिन्ना की पता नहीं कौन सी आज़ादी, पाक परस्त वाले आरोप थोपे जा रहे हैं।

जामिया की लाइब्रेरी (Jamia's Library) हो या जेएनयू के हॉस्टल (JNU hostels), या गार्गी गर्ल्स कॉलेज या अभिव्यक्ति का केंद्र बन गए देश भर के शाहीनबाग-सब देश के विभाजन कारी केंद्र साबित किये जा रहे हैं।

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जहां से जो याद है वहीं से शरुआत करूँ तो 1960 के आसपास दिल्ली के गली मोहल्लों में खाली पड़े बड़े-बड़े मैदानों में सुबह-शाम स्वास्तिक का झंडा लगा कर सांस्कृतिक प्रवचनों और देसी खेल खेलते खाकी निकर और सफेद कमीजधारियों की भरमार दिखी। कई बार शामिल भी हुआ। पर उस छोटी सी उम्र में ही कई सारे ख़तरे सूंघ कर उस धारा से अलग हो गया।

स्कूलों में भी वही गंध। पांचवी क्लास तो शुद्ध संघी स्कूल के पवित्र वातावरण में गुजरी। जहां लड़की बहिन और लड़के भैया हुआ करते। उस वेदकालीन एक साल ने अपन को काफीकुछ अधर्मी बना दिया और फिर अपनी को छोड़ किसी दोस्त की बहन तक से राखी नहीं बंधवाई। दिल्ली में BITV के दिनों तक में राखी बांधने आयी युवती को दोस्ती का हवाला दे कर साफ इंकार कर दिया।

मतलब कि ये ससुरी वेदकालीन संस्कृति दो जेण्डरों को सिर्फ औरत-मर्द में ही देखती है, तभी गार्गी कॉलेज में हस्तमैथुन आस्था से जुड़ जाता है। उस पांचवी क्लास वाले स्कूल में समलैंगिक संबंधों की बू भी आयी। जो बाग बगीचों तक तो फैली हुई थी ही। बड़े होने पर सुबह घूमने के दौरान कुछ बुजुर्ग हाथ भी कई बार कुछ टटोलते नज़र आये।

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जब-जब यह सोच सरकार बनाती है, इतिहास और साहित्य खास मसालों में लपेटे जाने लगते हैं, विचारों का खुलापन सीलेपन की बदबू से घिर जाता है, सावन और शिवरात्र की कांवड़ यात्राएँ आस्था के समूहों से निकल ताण्डवकारी गुंडई में तब्दील हो जाती हैं, जिन पर पुष्पक विमान से पुष्प बिखेरने की इच्छा ज़ोर मारती है।

प्रेमचंद, रोमिला थापर, मुन्नवर राणा गद्दार नज़र आने लगते हैं तो मंगोलों से इस देश को बचाने वाले अलाउद्दीन खिलजी में भन्साली टाइप इंसान को पैशाचिक रूप दिखता है।

अंग्रेजों पर पहली बार तलवार उठाने वाले हैदर अली और टीपू सुल्तान धर्मान्ध दिखने लगते हैं। बल्कि कर्नाटक में तो इन दोनों की देशभक्ति के सवाल पर साल में एकाध दंगा भी हो जाता है। .कई उम्रदराज औरत मर्द इतिहासकार, पत्रकार, विचारक गोलियों से भून दिए जाते हैं।

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बीफ के सबसे बड़े निर्यातक देश की सड़कों पर गाय की रास थामे जा रहे मुसलमानों को पीट पीट कर मार डाला जाता है। जबकि उस दौरान गोवा और उत्तर पूर्व के राज्यों से मधुर गायन उठ रहा होता है कि हम गायखोर हैं, क्या कर लोगे हमारा।

मैं नास्तिक क्यों हूँ लिखने वाले घोषित अधर्मी और कम्युनिस्ट शहीद भगत सिंह से एक दूरी बना कर हर ऐरे गैरे नत्थुखेरे से बस यही गवाया जाता है कि गांधी ने भगत सिंह को फांसी पर क्यों चढ़ जाने दिया (Why did Gandhi allow Bhagat Singh to be hanged) तो विदेशमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति 70 साल बाद हारमोनियम पर नेहरु-पटेल, नेहरु-पटेल गा रहा है। जबकि इसी सोच की धार को सुभाषचंद्र बोस की आत्मा ने बहुत जल्द भोथरा जो कर दिया।

बचा मीडिया, तो 1977 की जनता पार्टी की सरकार में जनसंघी आडवाणी को सूचना मंत्रालय दिलवाया ही इसलिए गया ताकि आज सुधीर चौधरी, अर्णब गोस्वामी, कश्यप, चौरसिया, श्वेता सिंह टाइप कुपढ़ पत्रकार पत्रकारिता का तियापांचा कर सकें और मीडिया का बड़ा हिस्सा जनता को सफेद झूठ परोस सके और व्हाट्स अप पर आईटी सेल देश को बांटने का सिलेबस छाप सके।

राजीव मित्तल

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