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पुस्तक समीक्षा : महफ़िल लूटना चाहते हैं तो मुक्तक रट लीजिए

पुस्तक समीक्षा : महफ़िल लूटना चाहते हैं तो मुक्तक रट लीजिए

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मुक्तक क्या है

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हिंदी साहित्य में व्यवस्थित रूप से मुक्तकों को लिखने की परंपरा का विकास रीतिकाल में हुआ। इस दौर में कबीरदास, रहीम तथा मीरा बाई ने कई मुक्तक अथवा छंद लिखे। कविता का वह संक्षिप्त रूप जो दोहा अथवा मुक्तक शैली या विधा में लिखा जाए उसे मुक्तक कहा जाता है। कबीर आदि के बाद वर्तमान में यह विधा राहत इंदौरी, मुन्नवर राणा, कवि गोपालदास नीरज और वसीम बरेलवी आदि के माध्यम से मुखरित हुई है।

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हिन्दी-काव्य में मुक्तक-काव्य-परम्परा का इतिहास (History of muktak-kavya-tradition in Hindi-poetry) देखा जाए तो यह पर्याप्त प्राचीन है। संस्कृत साहित्य से चली आ रही इस परंपरा को हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में पर्याप्त मान, सम्मान मिला। हिन्दी के प्राय: सभी छोटे-बड़े कवियों ने अपनी रुचि के अनुसार मुक्तक लिखे हैं। पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने तो ‘चोखे चौपदे’ और ‘चुभते चौपदे’ शीर्षक से स्वतंत्र मुक्तक-संग्रह भी प्रकाशित करवाया है।

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लंबे समय से मुक्तक हिन्दी कवि-सम्मेलन तथा मंचों के प्रिय बने हुए हैं। किसी भी सभा-सम्मेलन को लूटना हो या उसमें चार चांद लगाने हों तो दो-चार मुक्तकों की फुलझड़ियाँ छोड़ दीजिए।

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मुक्तक में चार पंक्तियाँ होती हैं, जिनमें पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति सतुकांत रहती है।

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क्यों पसंद किए जाते हैं मुक्तक

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मुक्तकों को वाहवाही मिलने का मुख्य कारण यह है कि एक छोटे-से मुक्तक में पूर्ण भाव तथा विचार गुम्फित रहता है, जिससे कम शब्दों में ही श्रोता या पाठक को रस की प्राप्ति हो जाती है। उसे गीत या अन्य लम्बी कविताओं की तरह लक्ष्य-प्राप्ति के लिए देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। मुक्तकों का आपस में पूर्वापर सम्बन्ध भी नहीं होता तथा इसकी अभिव्यक्ति शैली भी बहुत प्रभावपूर्ण होती है। मुक्तकों का कोई निश्चित छन्द भी नहीं होता। इन्हें किसी भी छन्द में लिखा जा सकता है।

ख़ैर आज पुस्तक समीक्षा की कड़ी में पुस्तक मेरे पास है 'डॉक्टर महेंद्र प्रजापति' द्वारा लिखित मुक्तक संग्रह "मैं ऐसा वैसा नहीं हूँ।" इस छोटी सी पॉकेट बुक में कुल इक्यासी मुक्तक हैं।

नयी किताब प्रकाशन दिल्ली से हालिया प्रकाशित यह किताब और इसमें दर्ज मुक्तक आप यदि कंठस्थ कर लें तो किसी भी महफ़िल को अपने नाम कर सकते हैं। या उस शाम अथवा अपने महबूब के हाल को रंगीन कर सकते हैं। इक्यासी मुक्तकों में चार-पांच मुक्तकों को छोड़ दिया जाए तो सभी मुक्तक दिल की गहराई तक जाकर वार करते हैं और अगर कहूँ कि आपके दिल को भीतर तक भेदते हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

लेखक महेंद्र प्रजापति दिल्ली विश्वविद्यालय के अधीनस्थ हंसराज महाविद्यालय में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर कार्यरत हैं तथा कहानी, मुक्तक आदि लिखने के अलावा विभिन्न विषयों पर लेख भी लिखते रहते हैं। इसके अलावा सिनेमा में उनकी विशेष रुचि है। सिनेमा पर भी कई महत्वपूर्ण लेख उन्होंने लिखे हैं।

प्रस्तुत है मुक्तक संग्रह मैं ऐसा वैसा क्यों हूँ के कुछ महत्वपूर्ण मुक्तक -

ख्वाहिशें ज़ुबान तक न आने पाए

दर्द कभी मुस्कान तक न आने पाए

दुश्मनों से भी इतनी सहूलियत रखो

उनका हाथ गिरेबान तक न आने पाए।

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दिल टूटा है इतनी बार, एतबार कर न पाउँगा

मैं चाहकर भी किसी से प्यार कर न पाउँगा

मगर जाने क्यूँ ऐसा लगता है बार-बार

वो इज़हार करेगी तो, इंकार नहीं कर पाउँगा।

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माना कि हम मजबूर थे मगर इतने भी नहीं

माना कि तुमसे दूर थे मगर इतने भी नहीं

तूने अपनी महफ़िल में शामिल नहीं किया

माना कि तुमसे दूर थे मगर इतने भी नहीं।

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हो सकता है तेरी नफ़रत मेरे लिए लाज़िमी हो जाए

मगर ये हो नहीं सकता है मेरी चाहत में कमी हो जाए

खुदा बनने का ख़्वाब तू दिल से निकाल से पागल

ज्यादा है अगर इस दौर में आदमी आदमी हो जाए।

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जुबाँ पर वास्ते उसके कोई फ़रियाद न आए

दीवाना फिर कोई दुनिया में मेरे बाद न आए

खुदा मेरे रहम इतना तू मुझपे कर दे एक बारी

मैं उसको याद न आऊँ वो मुझको याद ना आए।

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दुश्मनी में किसी से चाहत भी की जा सकती है

सुकूँ खोकर किसी को राहत भी दी जा सकती है

जो जुबाँ पर है, वो दिल में भी हो ज़रूरी तो नहीं

प्यार दिखाकर तो नफ़रत भी की जा सकती है।

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सुना है जमाने भर से शिकायत करता है

कौन है जो मुझसे इतनी मुहब्बत करता है

किसे है वक़्त किसी को वक़्त दे अपना

कोई तो है जो मुझ पर इतनी इनायत करता है।

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लेखक - महेंद्र प्रजापति

समीक्षक - तेजस पूनियां

विधा - मुक्तक संग्रह

प्रकाशक - नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य - 100 रुपए

संस्करण - 2021





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