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नागरिकता के बारे में कितने स्पष्ट थे, भारत के संविधान निर्माता?
How clear were the constitution makers of India about citizenship?
दिल्ली विधानसभा का ताजा चुनाव भाजपा हार जरूर गई है, लेकिन जहां 2015 में 10 मतदाताओं में से तीन ने भाजपा को वोट दिया था, वहीं इस बार, 2020 में लगभग चार ने भाजपा की झोली भरी। यानि कि हिंदुत्व के वे अनुयायी बढ़ गए हैं जो 'गद्दारों' को गोली मारना चाहते हैं, खासतौर से उनको जो संशोधित नागरिकता कानून पर सवालिया निशान (Question mark on the citizenship amendment act) लगा रहे हैं।
Strong debates in the Constituent Assembly on citizenship
ऐसे वक्त में आज से 70 साल पहले की उस बहस पर ध्यान देना रोचक होगा जब संविधान बनाया जा रहा था और 10 से 12 अगस्त, 1949 के बीच नागरिकता पर संविधान सभा में जोरदार बहसें हुईं थीं। इन बहसों की मुख्य बातें आज भी मौजूं हैं, जबकि उस समय देश पर बंटवारे का घोर अंधेरा छाया हुआ था और पाकिस्तान की बड़ी चर्चा थी।
संविधान के निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर की प्रस्तुति में पांच प्रकार के नागरिक थे: एक, जिनका जन्म और निवास भारत में हुआ; दूसरे, जिनका जन्म नहीं, लेकिन निवास भारत में हुआ; तीसरे, जो भारत से पाकिस्तान चले गए; चौथे, जो पाकिस्तान से भारत आ गए, और पांचवें, जिनका, या उनके मां-बाप का जन्म भारत में हुआ, लेकिन वे रहते भारत के बाहर थे।
कुछ सभासदों के विचार इससे भिन्न थे।
पहला सवाल था कि हिन्दू और सिख को छोड़कर किसे भारत लौटकर नागरिक बनने का 'परमिट' मिलेगा?
अम्बेडकर का कहना था कि पाकिस्तान से केवल उन लोगों को लौटने की इजाजत मिलेगी जिनके पास पुनर्वास या स्थायी वापसी का परमिट होगा, परन्तु डॉ. देशमुख ने पूछा, 'आपको कैसे मालूम कि वो देशद्रोही नहीं होगा?'
प्रो. शाह ने मांग रख डाली, 'कानून ऐसा बने कि मीर जाफर जैसे लोग न आ पाएं।'
ठाकुरदास भार्गव ने ऐसे लोगों से सावधान किया जो 'जमीन हड़पकर असली मालिकों को आतंकित करके इस देश में बहुसंख्यक बनना चाहते हैं।'
बनारसी प्रसाद झुनझुनवाला सहमत थे कि 'असम में पूर्वी पाकिस्तान से घुसपैठिये अपनी आबादी बढ़ाने के कपटी मकसद के लिए आ रहे हैं।'
रोहिणी कुमार चौधरी भी उनको बाहर करना चाहते थे 'जो चुपके से घुसकर असम का शोषण करना चाहते हैं।'
और मौलाना हिफजुररेहमान ने उन 'षड़यंत्रकारियों और चोरों' को कटघरे में खड़ा कर दिया 'जो केवल अपना धंधा बढ़ाने आये हैं।'
प्रधानमंत्री नेहरू ने इस सबका मुखर जवाब देते हुए कहा था कि 'तुष्टिकरण' या कुछ लोगों को मनाने से नागरिकता का कुछ लेना-देना नहीं है और परमिट निष्पक्ष नियमों के मुताबिक दिया जा रहा है। आखिर में जब मतदान हुआ तब सभा ने अम्बेडकर के पांच नागरिक प्रकारों का ही पक्ष लिया। इसमें केवल एक और धारा जोड़ दी गई -'जिन्होंने विदेशी नागरिकता स्वीकारी है वे भारत के नागरिक नहीं बन सकते'।
संविधान सभा के सामने दूसरी समस्या थी, नागरिकता और रोजगार के बीच की कड़ी जोड़ने की।
जसपतराय कपूर ने उन सरकारी कर्मचारियों का जिक्र किया था जो 'पाकिस्तान जाकर लौट आये, क्योंकि पाकिस्तान में उनका जीना मुश्किल था।'
अलीबेग भी उन लोगों के बारे में चिंतित थे जो 'पाकिस्तान के प्रदेशों में नौकरी करते हुए भारत लौट आये हैं।'
सरदार भूपिंदर सिंह मान का तर्क था कि परमिट केवल 'भारत में व्यापार और धंधा करने से जुड़े सफर के लिए नहीं, बल्कि नागरिकता के हक के लिए भी होना चाहिए।'
ठाकुरदास भार्गव उन बंधुआ मजदूरों की तरफ ध्यान खींचना चाहते थे जो वापस आकर 'उद्योगपति, व्यवसायी और उत्साही मजदूर बनकर देश की सम्पदा बनाना चाहते हैं।'
अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर भी उनके हितैषी थे जो गोवा, फ्रांसीसी इलाकों और अन्य जगहों से भारत में आकर बसे हैं और व्यवसाय को बढ़ा रहे हैं।
चौधरी उनको नागरिकता देने को तैयार थे जो सरकारी नौकर और व्यवसायी बनकर असम आये थे,परन्तु उनका मत था, हर प्रदेश सम्पन्न होना चाहता है, लेकिन दूसरों की कीमत पर नहीं।
गोपालस्वामी अय्यंगार इस बात से सहमत थे कि बड़ी संख्या में मुस्लिम पाकिस्तान से भारत आकर पंजीकृत हो जायेंगे और असम... और पश्चिम बंगाल... की अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। सिर्फ शाह ने ऐसे विदेशी पूंजीपतियों के बारे में चेतावनी दी थी जो केवल हमारी औद्योगिक और वित्तीय नीति का फायदा उठाते हैं और जिनका देश से कोई प्यार नहीं है। अंत तक सभासद इस मामले का निपटारा नहीं कर पाए कि किसको सुरक्षा दें? उन्हें जो देश के लिए धन पैदा करते हैं या उन्हें जो देश का धन चूस लेते हैं?
संविधान सभा में तीसरा मसला उनके बारे में था जिनका जन्म भारत में नहीं हुआ था, जिनके मां-बाप, दादा-नाना भारतीय थे, जो पाकिस्तान से लौटकर पाकिस्तान वापस नहीं जाना चाहते थे, या जो दोहरी नागरिकता चाहते थे। वक्त कम था इसलिए समझ नहीं बन पाई कारण जो भी रहा हो, संविधान सभा ने इन मुद्दों को आगे के लिए बढ़ा दिया: संसद बाद में इन विषयों पर कानून बनाएगी।
इसी पृष्ठभूमि में 1955 में संसद ने नागरिकता कानून पारित कर दिया जिसमें नागरिकता जन्म, पितृत्व, पंजीकरण, देशीकरण या देश के फैलाव पर आधारित है। इन पांचों में जमीन बुनियादी है। वर्ष 1949 में भारतीय कौन है? सवाल का जवाब नहीं मिल पाया था। जब प्रो. सक्सेना ने डॉ. देशमुख से यही सवाल पूछा, तब देशमुख बोले, 'मैंने तो सोचा था कि भारतीय बहुत आसानी से पहचाना जा सकता है। जमीन के साथ जोड़ देंगे तो और आसान हो जायेगा।'
पांच बार संशोधित होने के बाद भी नागरिकता कानून इन सवालों का जवाब दे पाया है या नहीं, यह अलग बहस का विषय है, लेकिन एक सूत्र है जिसको बिल्कुल ही छोड़ दिया गया है। वो है नागरिक और रोजगार के बीच की कड़ी। जो व्यक्ति भारत में जन्मे थे, लेकिन भारत में कमाया सारा धन बटोर कर विदेश भाग गए, क्या उनको नागरिक का दर्जा देना उचित होगा? वर्ष 2014 और 2018 के बीच ऐसे 23,000 करोड़पति हैं जो भगोड़े बन गए और उनमें से केवल 36 ने देश को 40,000 करोड़ रुपये का चूना लगा दिया।
क्या नेहरू, ब्रजेश्वर प्रसाद और प्रो. शाह की बात सही निकली?
दूसरी तरफ, उन लगभग दो करोड़ लोगों के बारे में क्या सोचा जाए, जो भारत में पैदा होते हुए भी, विदेश में (ज्यादातर मुस्लिम देशों में) काम करते हुए केवल 2019 में ही भारत को 5,70,000 करोड़ रुपये भेज पाए थे? और उन 'गैर-कानूनी' 55 लाख इंसानों तथा 10 करोड़ प्रवासियों को नागरिकता की कौन सी छाया मिलेगी, जो राष्ट्रीय सम्पदा को अपनी मेहनत से बढ़ाते हैं?
लोकतंत्र में राज्य और नागरिकों के बीच एक निर्णायक समझौता होता है जिसके तहत जनता, वोट के अलावा, कर (टैक्स) देती है, तब सरकार देश की व्यवस्था सम्हालती है। टैक्स वही दे पाएगा जो अपनी मेहनत से, अपने रोजगार या व्यवसाय से कमा पाएगा, बाजार से कुछ खरीद पाएगा-और जो नागरिकता के बल पर अपनी आजीविका की रक्षा कर सकेगा। जो समाज की सम्पन्नता में योगदान करते हैं, चाहे उनका काम कितना ही 'नीच' क्यों न माना जाये, क्या वे नागरिकता के हक और जिम्मेदारी के पात्र नहीं हैं? यदि नागरिकता कानून को बदलना ही है, तो 'मेहनत' की बात इस बार टाली नहीं जा सकती।
दुनू राय
(देशबन्धु)
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