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Knowledge is also ignorance
इस पूरी दुनिया में हम में से कोई भी ऐसा नहीं है जिसके पास दुनिया का पूरा ज्ञान हो, जो सब कुछ जानता हो, यही कारण है कि हम जितना अधिक सीखते हैं उतनी ही शिद्दत से हम महसूस करते हैं कि हम कितना कम जानते हैं, हम कितने अज्ञानी हैं। इसी का परिणाम है कि जो लोग जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं वे लगातार कुछ न कुछ नया सीखते रहते हैं, नया सीखने का प्रयत्न करते रहते हैं। पर यदि हम परिपक्व न हों, हमारा नज़रिया स्पष्ट न हो तो हमारा ज्ञान ही हमारे लिए अभिशाप बन जाता है और हमें फायदा पहुंचाने के बजाए हमारा नुकसान करना आरंभ कर देता है। एक बहुत छोटे से उदाहरण से हम समझ जाएंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूं।
लगभग चालीस साल पहले, जब मुझे नौकरी में आये अभी दो-तीन साल ही हुए थे और अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए मैं विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेता रहता था, तब एक प्रशिक्षण के दौरान हमारे ट्रेनर ने लगभग 200 लोगों से खचाखच भरे हॉल में बैठे श्रोताओं से यह पूछा कि कितने लोगों को यह मालूम है कि सैर करना सेहत के लिए अच्छा है।
सवाल सचमुच बहुत साधारण था और जवाब भी हम सबको पता ही था। सभी श्रोताओं ने सहमति में अपने-अपने हाथ ऊपर उठा दिये।
अब ट्रेनर ने अगला सवाल किया कि कितने लोग ऐसे हैं जो रोज़ सैर के लिए जाते हैं। शायद आपको जानकर हैरानी होगी कि इस बार कुल 20-22 हाथ ही ऊपर उठे, या शायद आप इस पर हैरान न हों क्योंकि यह भी हो सकता है कि सैर करना सेहत के लिए अच्छा है, यह जानते-बूझते हुए भी आप भी सैर न करते हों।
ज्ञानवान लोग अज्ञानियों से भी अज्ञानी क्यों हैं? (Why are wise people more ignorant than the ignorant?)
ज्ञान का हाल ऐसा ही है। लगभग नब्बे प्रतिशत लोग ज्ञानवान हैं, उन्हें सच्चाई का पता है, लेकिन वे अज्ञानियों से भी गये-गुज़रे हैं क्योंकि जानकारी होने के बावजूद वे उस जानकारी का लाभ नहीं उठा रहे हैं। इस तरह के ज्ञान के तीन नुकसान हैं। पहला नुकसान तो स्पष्ट ही है कि हम उस ज्ञान से लाभ नहीं ले रहे, दूसरा नुकसान यह है कि हम इस खुशफहमी में रहते हैं कि हम "जानते" हैं। जहां यह भावना आ जाती है कि हम जानते हैं, वहां सीखने की इच्छा खत्म हो जाती है, नया दृष्टिकोण समझने की इच्छा खत्म हो जाती है और हम अपने ज्ञान के अधूरेपन में ही मस्त रहते हैं।
यही नहीं, चूंकि हम उस ज्ञान का उपयोग नहीं कर रहे, उसे जीवन में नहीं उतार रहे, अत: हम उतने-से ज्ञान का भी लाभ नहीं ले पा रहे, जो हमारे पास है। यही नहीं, इस ज्ञान का एक तीसरा नुकसान भी है और वह पहले दो नुकसानों से भी ज्यादा बड़ा और ज्यादा गहरा है, और वह अगर अपने समय का सदुपयोग नहीं करते, अपना काम ढंग से नहीं निपटा पाते और अस्त-व्यस्त होने को व्यस्तता समझकर सैर के लिए समय नहीं निकाल पाते तो हमारे दिल में यह धारणा घर कर जाती है कि हमारे पास समय ही नहीं है कि हम सैर कर सकें। अगर यह धारणा आ जाए तो सारा ज्ञान इसलिए व्यर्थ हो जाता है क्योंकि हम ठान लेते हैं कि सैर पर जाना समय की बर्बादी है। इस तरह से हम अपने ज्ञान को खुद ही नकार देते हैं। यह स्वीकार करने के बजाए कि हम आर्गेनाइज्ड नहीं हैं, हम अपने समय का सदुपयोग नहीं कर रहे, हम बहाने गढ़ने लगते हैं। जब एक बार हम किसी बात के लिए बहाना गढ़ लेते हें तो बहाने गढ़ना हमारी रुटीन में शामिल हो जाता है और हम जीवन के हर क्षेत्र में बहाने गढ़ने की आदत पाल लेते हैं।
ज्ञान के कितने स्तर हैं?
ज्ञान के चार स्तर हैं और चौथे स्तर तक जाये बिना ज्ञान या तो अधूरा है या बेकार है। ज्ञान का पहला स्तर है ज्ञान का ज्ञान, यानी, यह पता होना कि सच क्या है, या किसी काम को करने के साधन क्या-क्या हैं, औजार क्या हैं, टूल क्या हैं। ज्ञान का दूसरा स्तर है उसे समझना, सिर्फ देखने, सुनने, पढ़ने से आगे बढ़कर उसे गुढ़ना, उसकी बारीकियों को समझना। यह ज्ञान का दूसरा स्तर है, और ज्ञान का तीसरा स्तर है उसे तर्क की कसौटी पर कसना। यह परखना कि जो कुछ कहा जा रहा है, बताया जा रहा है, समझाया जा रहा है, वह सचमुच कितना सच है। चौथा और अंतिम स्तर है, इन सब चरणों से गुज़रे हुए उस ज्ञान को जीवन में उतारना। जीवन में उतारे बिना हर ज्ञान बेकार है। जब हमने यह कहा था कि सैर करना सेहत के लिए अच्छा है, वह ज्ञान था, लेकिन उस सच्चाई को जानकर, उसे अपने जीवन में उतार लेना ज्ञान का चौथा स्तर है। सैर पर जाये बिना हम ज्ञान का फायदा नहीं उठा सकते। यह एक साधारण तथ्य है। इसकी ज्यादा खोजबीन की आवश्यकता नहीं है। लेकिन बहुत-सी और भी ऐसी बातें होती हैं, घटनाएं होती हैं, जिन्हें हम परखने की कोशिश नहीं करते, उन पर विचार करने की कोशिश नहीं करते, सवाल नहीं उठाते। कभी वह अज्ञान के कारण होता है, कभी आलस्य के कारण और कभी झूठी आस्था के कारण। एक उदाहरण से हम इसे समझ सकते हैं।
यदि कोई राजनीतिज्ञ यह वायदा करे कि वह अपने चुनाव क्षेत्र को पेरिस बना देगा, तो क्या हम यह सवाल करते हैं कि उसके लिए उसके पास क्या साधन हैं, काम की योजना बनाने वाला विशेषज्ञ कौन है, फंड कहां से आयेगा, कितना समय लगेगा, और यदि वह राजनीतिज्ञ पहले कभी सत्ता में रह चुका है तो उसने वह काम पहले ही क्यों नहीं अंजाम दिया?
हम किसी एक दल या किसी एक नेता की बात नहीं कर रहे। यदि कोई ज्योतिषी, साधु, मौलवी, पादरी किसी तरह का तावीज देकर यह वायदा करे कि इस पहनने से, घर पर रखने से या गल्ले में रखने से आप सुखी हो जाएंगे या अमीर हो जाएंगे तो यह देखना चाहिए कि खुद वह सुखी है या नहीं, उसका अपना जीवन कैसा है, अपने ही परिवार के सदस्यों के साथ उसके अपने संबंध कैसे हैं और वह खुद अमीर है या नहीं। हरी चटनी और लाल चटनी में कृपा बांटने वाले लोगों के अलावा ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो दूसरों का भविष्य बताने का दावा करते थे लेकिन खुद वे किसी दुर्घटना का शिकार होकर जान गंवा बैठे। उन्हें अपने ही भविष्य का पता नहीं था।
आस्था के नाम पर लूट : हर धर्म में है यह बीमारी
समस्या यह है कि यह किसी एक धर्म, किसी एक मजहब तक ही सीमित नहीं है। यह बीमारी हर समाज में, हर देश में आम है। आस्था के नाम पर लूटने वाले लोगों की दुनिया में कहीं कोई कमी नहीं है। आध्यात्मिक होना और बात है और अंधविश्वासी होना बिलकुल अलग बात है। दोनों में बारीक फर्क है, पर फर्क है।
नया सीखना, उसे परखते रहना, एक्सपैरीमेंट करते रहना, सफलता और असफलता दोनों से सीखना, अपने ही नहीं, दूसरों के जीवन से भी सीख लेना, और सीखे हुए को जीवन में उतारना ही सच्चा ज्ञान है, वरना वह ज्ञान नहीं, अज्ञान है।
पी. के. खुराना
लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।
Web title : Know how knowledge is also ignorance