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जोहार महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी। आपके पदनाम को लेकर जो विवाद चल रहा है, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।
इसका इस देश का एक आम नागरिक होने की हैसियत से मुझे बेहद अफसोस और शर्म दोनों है।
हमारे नेताओं को भाषा की कितनी तमीज है?
स्त्रियों का हमारे नेता कितना सम्मान करते हैं?
इससे भी बड़ा सवाल था और है कि हमारी भाषा और संस्कृति पितृसत्ता के शिकंजे से कितनी आजाद है?
किसने क्या कहा, हम इस विवाद पर चर्चा नहीं करना चाहते। रोज लाइव वीडियो में रंग-बिरंगे नेताओं के विविध बोल प्रसारित होते हैं जिसमें स्त्री के प्रति कोई सम्मान नहीं होता। क्या हर मामले में समान प्रतिक्रिया होती है, स्त्री उत्पीड़न के मामले में?
खाप पंचायत हमारी विरासत है। डायन और भ्रूण हत्या हमारी संस्कृति है, तो शब्दों का क्या?
दशकों तक सांसद बने रहने के बावजूद, दिल्ली में स्थाई निवास होने के बावजूद गैर हिंदी भाषियों की क्या कहे, हिंदीभाषी धुरंधर विद्वानों और साधु संतों की भी जुबान फिसलती रहती है।
कैसे-कैसे फिसलती है, इस पर संसद में भी हर मामले में चर्चा नहीं होती।
विचारधारा कोई हो, राजनीति कुछ हो, दल चाहे कोई भी हो, हमारे नेताओं की भाषा में सामंती पितृसत्ता को पुरजोर असर नजर आता है।
अपनों के सात खून माफ होते हैं। इसलिए इस पर कोई वस्तुगत संवाद नहीं होता।
भावनाओं की राजनीति प्रबल है। आस्था में भी हिंसा और घृणा का स्थाई भाव है। विवेकहीन समय में किसी भी मुद्दे पर लोगों की भावनाएं आहत हो जाती हैं।
नेताओं की छोड़ें, हम जो पढ़े लिखे नागरिक हैं, उनकी भाषा और निजी जीवन में आचरण के संदर्भ में स्त्री का कितना सम्मान होता है?
जुबान चमड़े की है और मौके-बेमौके फिसलती रहती है। हर वक्त संसद सत्र बाधित नहीं होता और हर वक्त अफसोस नहीं जताना पड़ता।
राजनीति क्या, जीवन के किसी भी क्षेत्र में नेतृत्व करने वाली स्त्रियों का हम कितना सम्मान करते हैं?
निराधार आरोप और चरित्र हनन के हम अभ्यस्त हैं।
क्या राष्ट्र का कोई पति या राष्ट्र का कोई पिता हो सकता है? क्या यह राष्ट्र को पितृसत्ता का गुलाम बनाने की मानसिकता नहीं है?
हिंदी और भारतीय भाषाओं में परिभाषिक शब्दों के पर्याय को लेकर बहुत ज्यादा गड़बड़ी है। बुनियादी अवधारणा के विपरीत अर्थ निकलता है। अकादमिक अध्ययन में अनेक भ्रांतियां हो जाती है।
परिभाषिक शब्दों के अनुवाद की वजह से ज्ञान विज्ञान की हिंदी में अनूदित पुस्तकें अक्सर अपठनीय हो जाती हैं।
अंग्रेजी शब्द president का अर्थ होता है अध्यक्ष। लोक गणराज्य के राष्ट्राध्यक्ष के लिए अंग्रेजी में इस शब्द का प्रयोग होता है। इसलिए प्रेसीडेंट का हिंदी अनुवाद राष्ट्राध्यक्ष होना चाहिए। इसमें पति कहां से आ गया?
यह हमारी पितृस्त्तमक सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति है। भाषा के इस्तेमाल में इस देश की जाति व्यवस्था और उसी में जन्मे नस्लवादी दृष्टि का भी बहुत ज्यादा असर है।
लैंगिक भेदभाव के मामले में हमारे देश का स्थान शोचनीय है।
अंग्रेजी में भी पुलिंग और स्त्रीलिंग हैं, लेकिन वे हमारी तरह पदनाम का लिंगभेद नहीं करते।
डॉक्टर, टीचर, वकील, प्रोफेसर, जज, इंजीनियर का लिंगभेद नहीं होता।
हम अध्यक्ष का भी अध्यक्षा बना देते हैं। सांसदी या विधायिका नहीं कहते, मंत्राणी नहीं कहते गनीमत है। लेकिन हम डॉक्टरनी, मास्टरनी संबोधित करते हुए उन शब्दों को भी स्त्रीलिंग बनाने से बाज नहीं आते, जिनका अंग्रेजी में स्त्रीलिंग नहीं होता। लेखक लेखिका और गायक गायिका, कवि का कवयित्री हम ही बनाते हैं। अंग्रेजी में लेकिन ऐसा नहीं होता।
भारतीय भाषाओं में बांग्ला, असमिया, भोजपुरी जैसी कई भाषाएं हैं, जिनमें स्त्री पुरुष का भेद नहीं है। इसलिए बंगालियों की तरह अनेक बिहारी विद्वान भी शब्दों का लिंग समझ नहीं पाते और गलती कर जाते हैं। हालांकि ये गलतियां जानबूझकर किसी के अपमान के लिए नहीं की जातीं। सचमुच जुबान फिसल जाती है और कलम से भी गलतियां हो जाती हैं।
मसलन मेरी मातृभाषा बांग्ला है और अंग्रेजी माध्यम से मेरी पढ़ाई हुई। 1973 से लगातार हिंदी में लिख रहा हूं। चाहे आप मुझे हिंदी का लेखक माने या न माने, मैं ज्यादातर हिंदी में ही लिखता हूं। कोलकाता छोड़ने के बाद बांग्ला और अंग्रेजी में नहीं लिखता। फिर भी मुझसे भी स्त्री लिंग पुल्लिंग की गलतियां हो जाती हैं। क्या करें?
लेकिन पितृसत्ता के समर्थक और हमारे तमाम आदरणीय लोगों की भाषा में संवेदनाएं काम, संवाद उससे कम, हिंसा और घृणा उससे ज्यादा और सबसे ज्यादा स्त्रीविरोधी मानसिकता है।
क्या हम राष्ट्रपति शब्द के बदले कभी राष्ट्रध्यक्ष का प्रयोग करेंगे या डॉक्टर, इंजीनियर और प्रोफेसर की तरह मूल शब्द प्रेसिडेंट का इस्तेमाल करेंगे?
हिंदी में क्या सिर्फ संस्कृत तत्सम है? अपभ्रंश नहीं है? देशज शब्द, बोली और लोक नहीं है? उर्दू, फारसी, अरबी और फ्रेंच जैसी भाषाओं के शब्द प्रचलित नहीं है?
राष्ट्र को अगर हम स्त्री भी मानें तो इस लोक गणराज्य में उसे पितृसत्ता के प्रतीक पति और पिता से नत्थी करने से बाज आएं।
इस देश की संसद में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से पर इन बुनियादी मुद्दों पर क्या कभी बहस हो सकती है?
पलाश विश्वास
30.07.2022
How much language do our leaders have? How many leaders respect women?